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Indu Jhunjhunwala

Others

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Indu Jhunjhunwala

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अनुत्तरित प्रश्न

अनुत्तरित प्रश्न

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श्रद्धा परेशान थी, जब भी रामायण और गीता जैसे शास्त्रों को पढ़ती,, अनेकों सवाल से घिरी होती,,, कभी मर्यादा पुरुषोत्तम से प्रश्न करती, कभी कृष्ण से।

पात्रों की अच्छाईयाँ मन को लुभाती और बुराईयों से परेशान हो उठती। सबसे ज्यादा परेशान वो इस बात से हो जाती कि ईश्वर की तरह पूजे जाने वाले पात्र भी इतनी बड़ी- बडी गलतियाँ कैसी कर जाते हैं और विद्वान होते हुए भी रावण जैसे पात्र पाप के भागीदार क्यों बन जाते हैं?

मन की इन यात्राओं पर चलते हुए आज जब वो देश भ्रमण पर निकली तो मिली एक संस्कृत की कथित प्रकांड विदूषी सृष्टि से,,,उसके ज्ञान से प्रभावित श्रद्धा ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया।

सृष्टि भी श्रद्धा को पाकर प्रसन्न दिखी, पर जैसे -जैसे वो उसके साथ अलग -अलग शहरों में धूमने लगी, उसने महसूस किया कि विद्वता का सम्बन्ध जब अंहकार से हो जाता है, तो विद्वता धरी-की-धरी रह जाती है।

अंहकार जन्म देती है ईष्या को, ईष्या जो मन में स्वार्थ के साथ मेलमिलाप कर लेती है। जब ये तीनों मिल जाते हैं तो विद्वत्ता उस किताबी रहे रटाए वाक्यों से अधिक कुछ नहीं होती जिसके अर्थ खो चुके हैं, बिल्कुल पिंजरे में फँसे उस तोते कि तरह जो एक वाक्य को दोहराते हुए कि शिकारी आएगा जाल बिछाया, दाना डालेगा, तुम उसमें मत फँसना।

रावण की विद्वता इन तीन दुर्गुणों के साथ अपना अस्तित्व खो चुकी थी, महर्षि वाल्मीकि यही समझाना चाहते थे हमें इस कथा के द्वारा।

आज पहली बार समझ पाई श्रद्धा कि हर कथा में ऐसे पात्र जीवन के सत्य को ही उजागर करते हैं।

प्रश्न अभी राम से भी हैं और कृष्ण से भी।

तभी मिली एक और परम विदूषी वेदों व उपनिषदों की ज्ञाता कीर्ति से, श्रद्धा ने महसूस किया कि उसका स्वरूप लक्ष्मी और सरस्वती की भाँति खींच रहा था उसे।

उसकी विनम्रता में उसे माँ सीता की विनम्रता का अहसास हुआ, जिसने लोकमत और राजकुल की प्रतिष्ठा के लिए अग्नि का आह्वान किया, अपनी सत्यता को प्रमाणित कर अपने राम को सारे विवादों से परे किया और ससम्मान महारानी के पद पर आसीन हुई।

बात समझ में आई, ज्ञान जीवन में विनम्रता और निःस्वार्थता लाता है, तभी उसका महत्व है, बतलाता है देवी सीता का चरित्र। 

देवी सीता का वनागमन अपने कोख में पल रहे शिशुओं के अच्छे संस्कारों को पुष्पित पल्लवित करने के लिए एक माँ के उत्कृष्ट प्रेम, ममता और त्याग को दर्शाता है।

पर श्रीराम के युद्ध और जीत में राजा के कर्तव्यों में पति व पितृधर्म से च्युत हो जाना, सीता और लव-कुश को विस्मृत कर परिवार के धर्म से विमुख हो जाना है, अर्थात राजधर्म, पितृ और पिता धर्म से भी कभी दूर राम अन्ततः पश्चाताप की अग्नि में स्वयं को ही जलाता है, इस सत्य से सामना कराना भी तो आवश्यक है ना! 

एक आत्मा शरीर धारण कर अनेक भूमिका में जीती है, तब सभी भूमिका के साथ न्याय कर पाना कितना कठिन है और जीत का नशा सर्वोपरि बन अपने ही कर्तव्य पथ से च्युत कर देता है, इसका अहसास उन्हें फिर से सीता के पास लेकर तो जाता है, पर स्त्री के स्वाभिमान की रक्षा का भार भी तो था सीता के कंधों पर, तभी तो सीता को लाने का प्रयास असफल हो जाता है , भूमिजा सीता को माँ धरती की गोद में समा जाना उचित लगा।

कृष्णा का गोकुल और वृन्दावन में रास रचना,,, 

कृष्णा एक नन्हा बालक जो खेलता है अपने ग्वाल बाल सखाओं के साथ, चुराता है गोपिकाओं के बिलोंए गए माखन,, फोड़ता है पानी से भरी गगरी,,, कभी स्वयं छिप जाता है कभी वस्त्र छुपा देता है नहाती गोपिकाओं के,,,

इसे 'रास' कहना कितना उचित,,,सोचती है वो।

जब स्वयं एक बालक की माँ बनी श्रद्धा तो नजर आया अपने बाल में वही बाल गोपाल, वही कृष्णा का बाल रूप और शरारतें।

निर्दोष नन्हा बालक,,, जो नहीं जानता विलासितापूर्ण जीवन की बातें, जो नहीं समझता स्त्री पुरूष का भेद,,,

जो समझता है तो सिर्फ माँ की ममता और दुलार,, साथी सखाओं का प्यार और छेड़छाड़,,,, बस यही रास है तो वो हर बालक-बालिका के जीवन में आते है कुछ पल इस निर्मल निष्कलुष रास के ।

कहते है तेरह वर्ष की आयु में तो कान्हा कृष्ण बन चले गए थे मथुरा,,,,।

फिर कन्हैया के रास को लेकर, फैली इतनी भ्रांतियाँ क्यों?

बीतते समय के साथ पुरातन पर उठती हैं ऊंगलियाँ और तार्किक मन हो उठता है बेचैन!

ढेरों प्रश्न अभी भी बाकी हैं,,, जानती है वो, यात्राएँ अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर भी तलाशने में मदद करेगी,, इसी आशा के साथ एक नई यात्रा पर चल पड़ा फिर से श्रद्धा का मन,, ।



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