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Ajeet Kumar

Inspirational

2.5  

Ajeet Kumar

Inspirational

वो भेंट

वो भेंट

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स्टेशन से सामने जाती वो सड़क ....कीचड़ से लथपथ ऑटो रिक्शा के पहिये ....खुद को बचते - बचाते चलते राहगीर .. अभी मैं गिरते गिरते बचा था.. भीड़ में से कोई बोल पड़ा -खुद को बचा लो साहेब! यहां की सरकार का कोई भरोसा नहीं, कब आपकी इज्जत पर पानी फिर जाए। चार पांच लोग उसकी बात पर हँस पड़े। मेरे भी होंठों पर मुस्कान उभर आयी।

 

जी हाँ ..तो मुझे फोटो खिंचवानी थी अब ये नौकरी देने वालों की भी पता नहीं क्या ‘प्रॉब्लम’ है? हरेक बार इनको ‘रिसेंट’ फोटो चाहिए। भाई मेरा चेहरा चार पांच महीने में ही बदल जायेगा क्या हद हैं?

 

यूँ ही मैं कोसता चला गया खिंचवानी तो मुझे फॉर्म वाली ही फोटो थी पर मैंने सारे फोटो-स्टूडियो छान मारे। अब मैं इतना माया मोह विरक्त आदमी हूँ नहीं, की कोई आधार कार्ड वाला फोटो चिपकाकर मुझसे पैसे ऐंठ ले।

 

स्टेशन से कोई पाँच सौ मीटर जाने के बाद मुझे एक फोटो-स्टूडियो जँचा। ब्लू मटमैले रंग का पर्दा, कांच के शीशे पर ढंग से सजे अक्षर - ‘वेलकम टू प्रेम स्टूडियो’ ने मुझे खींच लिया और मैं उधर ही खिंचा चला गया काउंटर  पर कोई छब्बीस साल का नौजवान था। बारिश की वजह से कोई और कस्टमर नहीं था।

 

‘जी सर कहिए’ युवक ने मुस्कुराते हुए पूछा।

हम जैसे लोग जिनको कभी कोई चाय के लिए नहीं पूछता, ऐसे समय में हर शब्द का जबरदस्त आनंद लेते हैं, पता नहीं हैं तो उनसे पूछिये जो टेलीकॉम कंपनियों के कस्टमर केयर ऑपरेटर कार्यकारी को बड़ी शान से गलियां देते हैं और वो बेचारा एक ‘कॉल गुलाम’ की तरह कहता रहता हैं – ‘सर आपकी बात समझ में नहीं आयी।’

खैर माफ़ी चाहूंगा। मुद्दे पर आता हूँ।

‘जी मुझे दस रंगीन फोटोग्राफ्स चाहिए थे’ मैं बोला।

‘ठीक हैं सर हो जायेगा।’

‘कितना लगेगा भैया।’

‘पचास रुपये।’

‘‘अच्छा ठीक हैं पर मुझे आज ही चाहिए शाम तक भेजना है ।"

‘सॉरी सर पर ये फोटोज आपको कल सुबह तक मिल पायेगा।’

मैं थोड़ा निराश हो गया। इतनी बारिश में बेकार ही स्टूडियो के चक्कर मारे। मैं बाहर जाने लगा तभी एक अधेड़ आवाज ने मुझे रोका।

 

‘क्या हुआ?  इधर आइये।’

मैं पीछे मुड़ा। मैंने मुड़कर कर देखा। करीब पचास साल का रहा होगा वो आदमी। कानों में मफलर, हालाँकि ठण्ड ज्यादा नहीं थी, झुर्रियों ने आँखों पर अपना अधिकार कर लिया था लिया पर किसी जमाने में बड़ी और गहरी रही होगी, रोबदार  सख्त चेहरा, पैनी तेज नज़रें।

 

“जी मुझे दस फोटो चाहिए आज शाम तक और भैया ने कहा क़ि कल ही आपको मिल पायेगा तो मैं जाने लगा।”

 

युवक अपना नाम सुनकर थोड़ा सकपका गया। बूढ़े आदमी ने कड़ी नज़रों से उसकी तरफ देखा फिर मेरी तरफ देखकर  बोला - ‘आपका काम हो जायेगा बस दो घंटे में आपको फोटोज मिल जाएगी।’

 

मैं काउंटर पर पचास रुपए जमा करने लगा। बूढ़े आदमी ने सौ रुपए जमा करने के लिए कहा। मैंने भी पैसे जमा कर दिए। अब रोज कौन बारिश में भाग दौड़ करता फिरे।

 

कुछ देर बाद युवक ने मुझे युवक इशारे से अंदर बुलाया और एक चेयर दिया। मैंने गौर किया, युवक के हाथ सहज नहीं थे। अंदर से आवाज आयी - ‘किसी काम का नहीं है तुम्हारा लड़का। पहले पढ़ाई न सम्हली अब काम भी ठीक से नहीं कर पाता हैं आये हुए ग्राहकों को भगाता रहता है माथे का बोझ हैं बस।’

 

मैंने उसकी तरफ देखा हमारी नजरें मिली। मैं सहज रहा ताकि वो और नर्वस न हो।

 

फोटो शूट हुआ। मैं उठने लगा तभी वो बोल पड़ा-

‘सॉरी सर, एक मिनट एक दूसरा शूट हो जाए ये अच्छा नहीं आया।’

‘अरे रहने दीजिये फॉर्म में ही तो लगाना है, चलेगा।’ मैंने उसको आश्वस्त करने की कोशिश की।

‘सर प्लीज’

मैंने उसके आग्रह को टाल ना सका। उसने दोबारा शूट किया।

‘ये परफेक्ट हैं सर’ उसकी आवाज में चहक थी।

मुझे ख़ुशी हुई चलो बन्दा मुस्कराया तो सही।

हम दोनों  काउंटर पर बैठ गए। बारिश तेज हो रही थी तो मैंने वही दो घंटे इंतज़ार करना मुनासिब समझा।

 

कुछ देर बाद बूढ़ा आदमी नेगेटिव ले गया।

मैं बोर होने लगा। मैंने युवक से पानी माँगा। वो अंदर से पानी ले आया।

‘भैया एक बात पूछूं, बुरा तो नहीं मानेंगे।’

‘नहीं नहीं पूछिये’ उसने बड़ी विनम्रता से कहा।

‘क्यों वो आपको ऐसा कहते रहते हैं बुरा मत मानियेगा पर शायद आपको भी इन सब कामों में ज्यादा मन नहीं लगता। मुझे थोड़ा खराब लगा इसलिए जबान से ये प्रश्न निकल गया’ मैंने थोड़ा सम्भल कर पूछा। हाँ जी दुनिया का आज कल क्या पता सामने वाले की क्या नियति, ठिकाना है।

‘थोड़ी लंबी कहानी हैं सर’

मैंने मुस्कुराते हुए कहा - ‘तो शॉर्टकट भी क्या बला की चीज हैं।’

 

हम दोनों हँसने लगे। वातावरण का बोझिल आवरण हट चुका था।

उसने कहना शुरू किया -

‘पोस्टमैन हैं ये, डयबिटीज हैं बीपी भी हाई रहता हैं इनका। ये मुझे आईएएस बनाना चाहते थे। पर मेरा पढ़ने में  मन नहीं लगता था मैं स्कूल जाने के नाम पर अपने दोस्त की मोटर पार्ट्स की दुकान पर बैठा रहता था। जैसे तैसे स्कूलिंग करके मैंने एक कालेज ज्वाइन कर लिया  मोटर बाइक का काम मुझे जँच गया धीरे धीरे मैंने सारी चीजें सीख ली। मैंने अपना खुद का डिजाइन किया बाइक बनाने का निश्चय किया। लोगों की तारीफ़ मिली तो मेरा मोटिवेशन बढ़ गया शहर में कोई मोटो - एक्सपो का कॉम्पटीशन था तो मैंने उसमें जाने का निर्णय लिया पर एंट्री फीस बाधा थी। आयोजक पचास हजार मांग कॉशन मनी मांग रहे थे। मेरे पास इतने पैसे कहाँ थे? घर पर बताना भी मुनासिब न था। मैंने घर से चोरी करके आयोजक को पैसे दे दिए। वह कंपनियों से अच्छा रिस्पांस मिला। उन्होंने दिल्ली आने को कहा। मैं खुश हुआ। मेरे पैसे मुझे वापस मिल गए, पर इस बात की भनक पापा को लग गयी। एक रात इन्होंने ने मेरी बाइक तोड़ डाली। ये रोने लगे। मैं जिंदगी में कुछ नहीं कर पाऊँगा। मैंने समझाने की बहुत कोशिश की पर इन्होंने कुछ नहीं सुना। बोले कहीं नहीं जाना हैं तुझे। मेकैनिक बनकर खानदान का नाम मिट्टी में मिलाएगा तू। बस तू मेरे साथ स्टूडियो संभाल कल से।’

उसने  एक ही साँस में अपनी कहानी समाप्त कर दी। वो पास रखी  गिलास से पानी पीने लगा।

‘पर भैया, आप तो अभी जवान हो, फिर से कोशिश क्यों नहीं करते हैं’

‘सबकी एक उम्र होती हैं सर। जोखिम लेनी की भी, अगले महीने मेरी शादी होने वाली हैं तब कहा कुछ कर पाऊँगा।’

 

मैं समझ गया। एक हारे खिलाड़ी को दो ही चीज वापस ला सकती हैं। उसकी जिद या फिर कोई चमत्कार। मैं साधारण इंसान हूँ मेरे बस की बात न थी।

 

‘वैसे शादी मुबारक हो भैया’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

उसने कोई जवाब न दिया

कुछ अजीब सा लगा

"अगले महीने मेरी शादी होने वाली हैं तब कहा कुछ कर पाऊँगा। शादी मुबारक हो’ मेरे कानों में गुजरने लगे। वाकई शब्दों में काफी ताकत होती हैं।

 

बारिश छूट गयी थी। कुछ देर बाद बूढ़ा आदमी मेरे फोटो ले आया। युवक ने पैक करके मेरे आगे बढ़ाते हुए कहा -

‘आते रहिएगा सर’

‘जरूर, अच्छा लगा आपसे बात करके।’

 

मैं स्टूडियो के बाहर निकला। बारिश तो बिलकुल छूट चुकी थी पर तेज हवाएं चल रही थी।

 

मैंने उत्सुकतावश पैकेट खोला। बड़ा ही सुंदर लिफाफा था।  गाढ़े अक्षरों में लिखा था ‘प्रेम स्टूडियो’ मैंने हाथों से अक्षरों को टटोला। ज्यादा देर न करते हुए फोटो निकाला।

 

अरे! मेरी आँखें खुली की खुली रह गयी। जनाब फोटो में मेरी आँखें थी ही नहीं। मेरी आँखों को नजर अंदाज कर गया वो आदमी। मेरी आँखें भौंहों से इस तरफ मिल रही थी की कोई मुझे परग्रही समझने की भूल न कर बैठे।

 

अलबत्ता मुझे क्या था फॉर्म में ही तो चिपकाना हैं, मैं खुद को समझा हुए आगे बढ़ा था तभी लिफाफा मेरे हाथ से छूट गया। मन किया इतने अच्छे लिफाफे को हाथ से न जाने दूँ पर तेज हवाओं के सामने मेरी एक न चली। उस ‘सुन्दर’ स्टूडियो का वो सुन्दर ‘लिफाफा’ जो दोनों मेरे पीछे छूट गए थे मेरे हाथों में रह गयी थी भेंट उस बूढ़े आदमी की, उस ‘अकुशल कारीगर’ की।

 

मैं तेजी से आगे बढ़ रहा था कही पोस्ट ऑफिस बन्द ना हो जाए। बस सूरज डूबने ही वाला था .........।

 


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