वो आख़िरी शाम
वो आख़िरी शाम
एक अंतराल के बाद स्वधा बाहर निकली थी, घूमने के लिये, पता नहीं कितने वर्षों से उसने ख़ुद को कैद कर रखा था, यह भी नहीं याद रहा उसे। याद था तो केवल अग्नेय का बिना मिले, बिना कुछ बोले चुपचाप चले जाना।
अग्नेय के जाने के बाद तो उसने जैसे सबसे रिश्ता ही तोड़ लिया था, कोई कुछ भी कहता या कुछ भी बोलकर चल देता उसे अब कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। वो तो बस जहाँ देखती वहाँ उसे अग्नेय ही दिखाई देता था। कोई भी काम करती तो लगता मानो अग्नेय आकर खड़ा है और कह रहा है, 'तो आज तक तुम ठीक से काम करना नहीं सीख पाई। वो जैसे ही देखती कोई नहीं होता था कहीं भी।
इस प्रकार वो हमेशा उसी में रमी रहती थी, शरीर कहीं हो पर आत्मा हमेशा अग्नेय के ख़यालों में उसी के इर्द गिर्द घूमता रहता था। सब कुछ होकर भी कुछ नहीं था स्वधा के पास।
जाने क्या सूझा वो अपने बच्चे के साथ आज प्रेमचंद पार्क में घूमने निकल गई। किसे ख़बर थी कि अग्नेय भी वहीं मिल जायेगा।
घूमते घूमते अचानक से उसकी नज़र अग्नेय पर पड़ती है और वो उसे पहचान जाती है तथा आवाज़ देती है।
अग्नेय.., अग्नेय.., अग्नेय नहीं सुनता है वो और करीब जाकर उसे फ़िर से आवाज़ देती है।
अपना नाम सुनकर अग्नेय रुक जाता है, तब स्वधा उसके करीब जाती है और कहती है, 'कैसे हो अग्नेय... ?
आजकल कहाँ हो और इधर कैसे आना हुआ अचानक से...?
मैं ठीक हूँ, तुम स्वधा हो ना,..! अग्नेय ने उससे कहा, और दोनों पास ही के एक बेंच पर बैठ गये और बातें करने लगे।
कैसी हो स्वधा और अंकल आंटी कैसे है...?
सब ठीक है, स्वधा ने संक्षिप्त सा जवाब दिया और शांत हो गई। कुछ देर शांत रहने के बाद स्वधा ने अग्नेय से कहा, और बताओ क्या चल रहा है कहाँ रह रहे हो और... बिना कुछ कहे ही वो चुप हो गई।
मैं तो गाजियाबाद में हूँ वही पर एक कंपनी में जॉब करता हूँ, आजकल यहीं आया हूँ कंपनी के काम से,
अग्नेय ने बताया। और तुम...!
मैं, मैं भी तो ठीक हूँ बस सब कुछ भूल गई हूँ, तुमको भी, और वो आख़िरी मुलाकात भी, जब तुम मुझसे मिलने आये थे, मैं हिंदी का क्लास ले रही थी, तुमको देखा पर मिल ना सकी और तुम चले भी गये बिना कुछ कहे। मैंने तुमको बहुत तलाश किया पर तुम...,
बस मैं अब तक इसी अपराध बोध तले हूँ कि तुमसे मिल ना सकी ना ही कुछ कह सकी, पर तुमको क्या...?
कहते कहते स्वधा चुप हो गई।
स्वधा...! क्या तुम सचमुच ही...
ओह,..! तो ये बात क्या कह रही हो?
क्या मैं नहीं समझता ये सब, जो तुम छुपा रही हो, मैं तुम्हारा अपराधी हूँ स्वधे..! मैं अपराधी हूँ, मैं मानता हूँ, अग्नेय ने कहा और कहते कहते ही उसकी आँखें भर आई। पर उस दिन जब मैं तुमसे मिलने गया था, मुझे भी नहीं पता था कि आज के बाद हम नहीं मिल पायेंगे। मिलने तो तुमसे ही गया था, लेकिन उसी वक़्त पापा का फोन आ गया और मुझे तुमसे मिले बिना ही आना पड़ा। इतना कहकर अग्नेय शांत हो गया। दोनों ही उस समय भावुक हो गये थे।
तुम्हें याद नहीं शायद, पर उस दिन मैं भी केवल तुमसे मिलने ही आयी थी, लेकिन मिलना बदा नहीं था नसीब को। अग्नेय तुमको देखकर मैंने एक पंक्ति लिखी थी, उसके बाद नहीं लिख सकी, लिखना मेरी ज़िंदगी था तुमको याद नहीं क्या..?
तुम जाते जाते मेरी उम्मीद मेरी ज़िंदगी भी लेकर चले गये, कितनी बार कलम उठाई पर भावों और शब्दों ने आने से इनकार कर दिया, मानो किसी ने उनको काला पानी सुना दिया हो, स्वधा कहे जा रही थी और अग्नेय चुपचाप उसको देखे जा रहा था। शाम अपने दायित्व को रात्रि को सौंप कर चलने को आतुर थी, ये बात मालूम नहीं हुआ उन दोनों को और वो....।