Aishani Aishani

Drama Tragedy Fantasy

4.7  

Aishani Aishani

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ज़िंदगी -एक हादसा (भाग 2)

ज़िंदगी -एक हादसा (भाग 2)

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'आ अब लौट चलें'

यह तो प्रतिदिन का नाटक था कुछ ना कुछ नया काण्ड होता ही रहता था फिर भी कहने को कुछ ना कुछ रहता ही था।

उस दिन की ही बात है जिस रोज ग्रहण लगने वाला था। विदिशा जैसे ही घर में प्रवेश करती है उसके मामा उससे कहते हैं....,

चल पीहू तुझे नानी बुला रहीं हैं आज तो तुझे अच्छे से पिटेंगी।

हाँ...! घर में सभी विदिशा को पीहू कहकर ही पुकारते थें।

नानी के पिटाई के डर से वह अपना स्कूल बैग पटककर सीधे छत के बालकनी की तरफ भागी और जाकर उसने बालकनी का दरवाजा बंद कर लिया। नानी के बुलाने पर भी वह नीचे नहीं आई, तब नानी ने भी यह कहकर बाहर से दरवाजे पर लांक लगा दिया कि.... 'आज तू वहीं पड़ी रहो तुम्हें भोजन भी नहीं मिलेगा'।

 भूखी विदिशा, वहीं बालकनी के पास ही वाशरूम था उसमें जाकर आराम से कुर्सी लगाकर पड़ी रही, कब उसे नींद ने अपने गोद में सुला लिया पता ही नहीं चला!।

रात 10 बजे जब दिशा काम से वापस आयी और विदिशा को कहीं न पाकर उसने वीर से पूछा.. ' पीहू कहीं नहीं दिख रही है, कहाँ गई है'..?

तब वीर ने बताया नानी ने उसको बालकनी में बंद कर दिया है अभी तक उसने कुछ नहीं खाया।

 ओह....!

जाओ उसको बुलाकर ले आओ, कहकर दिशा शांत हो गई। उस रात उसने भी कुछ नहीं खाया, अब ग्रहण लग चुका था, कौन भोजन करता भला..??

अगले दिन ही भोजन नसीब हुआ वो भी स्कूल में सहेलियों के साथ लंच टाइम में।

क्यों करती है वो इतनी शैतानी ? मैंने अपनी बेटी से पूछा;

एक लगाव सा हो गया था मेरा विदिशा के साथ, जिसे मैं जानती भी नहीं थी, बस उसकी शैतानों के बारे में ही सुनती रहती थी फिर भी, एक कौतुहल रहता उसके बारे में जानने का।

अक्सर उसकी सहेलियाँ उससे कहती, तुम तो नानी के यहाँ रहती हो, और नानी लोग तो बहुत मानती है फिर..?

 वो ठहाके मारकर हंस देती- हहह्हहहह्ह... और.. एक लम्बी सांस छोड़कर.... हूं... ' नानी के साथ रहने लगो तो नानियां भी दादी बन जातीं हैं'।

दिशा भी जानती थी, बच्चों के दर्द को और उनकी ज़रुरतों को भी, इसलिए वो अपने आपको इनके लिये हमेशा तैयार रखती थी।

कहते हैं ना कि जब स्वयं को सजाना सवारना हो तो श्रृंगार करना पड़ता है, शब्दों को भी रस, छंद से अलंकृत करके उसको और ज्यादा आकर्षित कर सकते हैं, किन्तु ज़िन्दगी को सवारनें के लिए अपने संकल्प को और ख़ुद को बहुत दृढ़ करना पड़ता है'।

दिशा भी यही कर रही थी, दिन रात स्वयं को जला - जलाकर और तपाकर अपने बच्चों के जीवन को सवारनें का प्रयास कर रही थी।

 उसने अब जमीन भी खरीद लिया था, और एक दो कमरा भी बनवा लिया जहाँ वह अपने बच्चों के साथ रह सकती थी। बस कुछ दिन की बात और थी उसके बाद वह माँ के घर से जाने वाली थी।

 ऐसा नहीं कि उसको माँ से प्यार नहीं था, पर अब बच्चे भी बड़े हो रहे थें, और उनकी ज़रुरतें भी।

वह अक्सर विदिशा से कहती...., 'पीहू' नानी से कुछ मत कहा कर वो मेरी माँ हैं, जैसे तेरी माँ को कोई कुछ कहता है तो तुझे अच्छा नहीं लगता है ना, वैसे ही मुझे भी नहीं अच्छा लगता है बेटा।

 विदिशा अपने दोस्तों की ही नहीं पूरे क्लास की जान थी, अगर वो ना आये तो लगता था क्लास में कोई है ही नहीं।

वह अक्सर कहती रहती कि देखो, ज़िन्दगी मुझे नहीं मैं ही उसको रुलाती हूँ, ये जो चश्मा है ना ये उसी की देन है वो मुझे आंसू देती है और मैं उसको बाहर नहीं निकलने देती हूँ, बैरंग लौटा देती हूँ, क्यों लूं मैं इसके तोहफे..??

ये ख़ुद ही एक दिन आकर अपने परिवार से ...,

 अपने परिवार..? उसकी बात को सब बीच में ही काटकर पूछ बैठती;

विदिशा आंसू का भी परिवार होता है क्या...?

 हाँ..! होता है ना..!!

आंसू का भी परिवार होता है, दु:ख,दर्द, अकेलापन और....,

इतना कहकर वो फिर ठहाके मारकर हंस पड़ी...,

ह्ह्ह् ह्ह्ह् ह्ह्ह्,

 एक दिन ये आंसू अपने परिवार से बोलेंगे "आ अब लौट चलें"

इस परिवार में बहुत हौसला है हम इनके हिम्मत को नहीं तोड़ सकते..।

पता नहीं पर मुझे विदिशा की बातें और उसका ज़ज्बा बहुत अच्छा लगता है।

मैं अक्सर अपनी बेटी से कहती तुम लोग उसको भूखे मत रहने दिया करो।

मुझे अब विदिशा की अधिक चिंता होने लगी थी, वो अब अपनी सी लगने लगी थी।

मेरे प्रभु आपसे यही विनती है कि.. विदिशा और दिशा का साथ हमेशा देते रहना।


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