वो आदिवासी लड़की
वो आदिवासी लड़की
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच जब अरुणा का नाम पुकारा गया तो अरुणा को यकीन नहीं हुआ क्या उसके द्वारा पकाया खाना उसे प्रसिद्धि की ऊंचाइयों पर ले आया?
आदिवासी उरांव जनजाति में जन्मी अरुणा ने अपनी संस्कृति, भोजन को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई है।एक समय जिसे निम्न स्तर का भोजन समझा जाता था, आज उसे संभ्रांत परिवार के लोग बहुत शान से खाना पसंद करते हैं। वे इंटरनेशनल स्लो फूड (एक इतालवी संगठन जो 150 देशों में उनके स्थानीय और पारंपरिक भोजन को बढ़ावा देता है)की सदस्य हैं।
चलिए कई वर्ष पीछे लौटते हैं_
मैयां......, छोटी अरुणा को पुकारते बाबा उसके पीछे दौड़ रहे थे।
अरुणा भागती जा रही थी, उसे बारिश में भीगना बहुत अच्छा लगता था। बारिश के गंदे पानी से फोड़ा फुंसी होना आम बात होती है। वही हुआ ....दो दिनों बाद ही अरुणा सबको अपने पैर में हो रहे लाल दाने को दिखा रही थी जो धीरे धीरे बढ़कर फोड़े की शक्ल लेने वाला था।
पिता ने बड़े प्यार से अरुणा को अपने पास बिठाया और कुछ पत्ते लेकर आए और उसे उसके फोड़े पर लगा दिया। कुछ दिन बाद फोड़ा ऐसा गायब हुआ कि हुआ भी था या नहीं ये भी पता नहीं चल रहा था।
मां तरह तरह के व्यंजन बनाती थी जो आम घरों में नहीं बनता था।
वैश्विक दौर चल रहा है, बाजारीकरण के कारण हर चीज अब एक क्लिक पर उपलब्ध है। विकास की इस आंधी से आदिवासी समाज भी अछूता नहीं है।
आदिवासी समाज के बच्चे अब बाहर निकल मिश्रित संस्कृति को अपना रहे हैं, लेकिन इस होड़ में कहीं न कहीं वे अपनी जड़ों को भूलते जा रहे हैं। विकास को अपनाना गलत नहीं होता लेकिन अपनी जड़ों को भूलना गलत होता है।
नन्ही अरुणा जैसे जैसे बड़ी हो रही थी, अपने माता पिता से उनके रहन सहन, खान पान पर विवाद करती ।उसका कहना था बाजार में इतनी सारी चीज़ें मिलती हैं आप जंगल में जाकर तरह तरह के पत्ते उठा लाते हैं मेरी सहेलियां अच्छे अच्छे पकवान लाती हैं, हम इतने गरीब तो नहीं फिर क्यों?हरित क्रांति के बाद लोग मोटा अनाज खाना छोड़ चुके थे, चावल( सफेद) और गेहूं अब अक्सर सभी घरों में खाया जा रहा था, लेकिन उनके घर में लाल चावल पकाया जाता था।
उसके पिता समझाते, बेटी हम आदिवासी हैं, हमारी वजह से ही जमीन, जल और जंगल बचे हैं। हमारे मसीहा भगवान बिरसा मुंडा, सिद्धू, कान्हू ने अपनी जमीन के लिए अंग्रेजों से संघर्ष किया है, आज वो दौर तो नहीं है हम आजाद हो चुके हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि हम अपनी पहचान छोड़ दें, हमें अपने खान पान, रीति रिवाज, संस्कृति और प्रकृति, जो हमें सब कुछ देती है उसे नहीं भूलना है।
अरुणा इन सभी बातों को सुनती और हवा में उड़ा देती। कभी कभी गुस्से में होती तो बात भी नहीं करती।
समय और बदला धीरे धीरे फास्ट फूड ने पैर पसारना शुरू किया। बूढ़े से लेकर बच्चे तक फास्ट फूड के दीवाने थे।अरुणा भी बड़े चाव से फास्ट फूड का सेवन करती, और आए दिन पेट की समस्या रहती, तब मां उसके लिए म्हार झोर (ब्राउन राइस के स्टार्च में जड़ी बूटियां मिला कर एक खट्टा मिश्रण )पीने को देती जिससे पेट की समस्या दूर हो जाती थी।
ग्रेजुएशन के बाद अरुणा ने जेवियर सेवा संस्थान, रांची में मैनेजमेंट कोर्स में दाखिला लिया।पढ़ाई के दौरान उसने कई राज्यों का दौरा किया, वहां के गांव घूमी, समस्याओं को जमीनी रूप से जाना।
सभी प्रदेश के लड़के लड़कियां मिलते, और अपने अपने प्रदेशों के पकवान के बारे में चर्चा करते।
आखिर एक ऐसा मोड़ आया जिसने अरुणा की सोच की दिशा बदल दी।वो था एक सवाल जो उसकी साथी आंध्र की लक्ष्मी ने पूछा_"अरुणा तुम्हारे झारखंड का क्या विशेष खाना है?
अरुणा चौंक गई। उसने कोई जवाब नहीं दिया।
वह रात भर बिस्तर पर करवटें बदलती रही _क्या है हमारा खाना?
क्या हमारा खाना घास फूस और चींटियां, मेढक है, हमारा खाना और हमें समाज क्यों पिछड़ा मानता है? अनगिनत सवाल थे।
जिसका जवाब दिया अरुणा ने 2016 में हुए अंतराष्ट्रीय स्वदेशी दिवस पर। जब उसने आदिवासी खाना पका कर जीता प्रथम पुरस्कार।
ये उसके अपनी संस्कृति को लोगों तक जाने का प्रथम प्रयास था। अरुणा का संघर्ष शुरू हुआ।
सन 2000 में झारखंड, बिहार से अलग होकर अलग राज्य बना, अपने राज्य को अलग पहचान देनी थी।झारखंड प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध राज्य होने के बाद भी गरीब है।यहां 900 प्रकार की जड़ी बूटी पाई जाती हैं, लेकिन धीरे ये जानकारी पीढ़ी दर पीढ़ी अब लुप्त हो रही है।
उसने जंगल की जड़ी बूटियों को आम धारा में लाने के उद्देश्य से आजम अल्बा नाम का अपना रेस्टुरेंट खोला, आजम अल्बा एक कुडुख शब्द है जिसका अर्थ होता है स्वादिष्ट खाना।
इस रेस्टुरेंट में सब कुछ है जो उनकी संस्कृति में शामिल है।
लोग नंगे पैर वहां प्रवेश करते हैं, मौसम के हिसाब से रेसिपी लकड़ी के चूल्हे पर पकाया जाता है, आप जो भी खाना चाहें वह थोड़ी देर में गर्मागर्म साल के पत्तों पर परोसा जाता है।पीतल के लोटे में पानी दिया जाता है।
ढोल, मांदर, ढेकी (जिसमें चावल कूट कर तैयार किया जाता है) यहां रखे हुए हैं।
देसी मुर्गा, चावल की चाय, याददस्त बढ़ानी वाली साग जिसे स्थानीय भाषा में बेंग साग कहते हैं परोसा जाता है। गोंदली का हलवा जो आदिवासी थाली से लुप्त हो चुका था वह भी अरुणा ने लोगों की थाली में परोस दिया।
धुसका, रुगड़ा, बांस, देसी मुर्गा, हंडिया, घुगनी, सनई के फूल का भरता, रागी के मोमोज ।
देशी व्यंजन को विदेशी तड़का लगा कर नए नए एक्सपेरिमेंट करती अरुणा महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हैं, वे गरीब महिलाओं को आर्थिक स्वावलंबी बनाने के लिए ट्रेनिंग भी देती हैं।उनके रेस्टुरेंट में महिलाएं कार्य करती हैं।
आज उनका नाम देश और विदेश दोनो जगह है।
ये मेरी कहानी का समापन है लेकिन अरुणा तिर्की के रोज़ाना सफलता के शिखर पर चढ़ने का सफर है।
