विद्या बड़ी या धन
विद्या बड़ी या धन
मोहन सर गणपति प्राइमरी स्कूल में कक्षा पाँच तक के बच्चों को पढ़ाते थे। वे बच्चों के प्रिय अध्यापक थे। वे बच्चों को सही मायनों में विद्या दान देकर शिक्षित करते थे। एक बार उन्होंने कक्षा पांच के बच्चों की वाद-विवाद प्रतियोगिता रखी। विषय था- "विद्या बड़ी या धन" ज्यादातर बच्चे इसके पक्ष में बोल रहे थे कि शिक्षा के द्वारा धन की प्राप्ति होती है। हम शिक्षा प्राप्त करके बड़ी-बड़ी कंपनियों में नौकरी करके बहुत सा धन कमा सकते हैं। धन कमाने के लिए हमें शिक्षित होने की आवश्यकता है।
धन विद्या से बहुत बड़ा है। ऐसी शिक्षा जो हमें धन न दे सके, उसका कोई महत्व नहीं है।
एक बच्चा जिसका नाम विवेक था, उसने अपने विवेक के आधार पर इसके विपक्ष में बोला कि शिक्षा का उद्देश्य धन कमाना नहीं है। शिक्षा के द्वारा हम संस्कार प्राप्त करते हैं। हम शिक्षित होते हैं, हम एक अच्छा इंसान बनते हैं। मेरे जीवन का उद्देश्य भी यही है कि मैं बड़ा होकर एक अच्छा इंसान बनूँ। जब मैं एक अच्छा संस्कार युक्त इंसान बनूंगा तो धन न केवल मैं अपने देश में बल्कि विदेश में भी कमा सकता हूँ। मैं विवेक देने वाली, अच्छे बुरे का ज्ञान देने वाली शिक्षा ग्रहण करता हूँ और हमारे मोहन सर भी हमें इसी प्रकार की शिक्षा देते हैं। हमारी पुस्तकों में भले ही कुछ भी लिखा हो पर मोहन सर उसको वास्तविक शिक्षा से जोड़ देते हैं।
धन तो एक कम पढ़ा-लिखा मनुष्य भी कमा सकता है पर वो सम्मान नहीं कमा सकता है। सम्मान सिर्फ और सिर्फ अच्छे गुणों और संस्कारों से ही मिलता है। यही हमारे जीवन की सबसे बड़ी संपत्ति है जो कि हर कोई नहीं खरीद सकता है। मैं अब्दुल कलाम साहब, स्वामी विवेकानंद व नरेंद्र मोदी जैसा बनना चाहता हूं। मैं पूर्ण शिक्षित होना चाहता हूँ।
सभी बच्चे विवेक का वक्तव्य सुनकर चुप रह गए। मोहन सर व सभी बच्चों ने खड़े होकर बहुत जोर-जोर से तालियां बजाईं। विवेक ने हाथ जोड़कर सबको धन्यवाद दिया।
अब मोहन सर उठे और कहने लगे, "शाबाश विवेक, आज मेरा पढ़ाना सार्थक हो गया। यह विद्या ऐसा धन है जिसे कोई तुमसे छीन नहीं सकता है। न इसमें वजन होता है। इसको हम जितना खर्च करते हैं उतना ही यह बढ़ती जाती है। यह विद्या धन सभी धनों में प्रधान धन है।"
मोहन सर ने कहा- "मुझे लगता है कि सभी बच्चों को विवेक की बात समझ में आ गई होगी और आज से सभी बच्चे शिक्षा या विद्या को धन से नहीं तोलेंगे। विद्या बेशकीमती है इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है। सच्ची विद्या बुद्धि को परिमार्जित करती है।
विद्या सुखी नीरोगी प्रसन्न जीवन की कुंजी कहलाती है तभी कहा गया है कि‘‘विद्वाविहीनः पशुभिः समानः’’ विद्या हीन व्यक्ति पशु के समान होता है। विद्या से ही व्यक्ति विद्वान बनता है।"
सभी बच्चों को मोहन सर की बात समझ में आ गई और सबने स्वीकार किया कि विद्या धन से बड़ी है।
