वापसी

वापसी

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सुबह बगीचे में टहलते हुए स्वयं से बातें करना वसुधा का प्रिय काम रहा है। उस समय वह अपने साथ इतनी व्यस्त रहती है कि किसी से नमस्ते भी नहीं करती। सब लोग उसे थोड़ा घमंडी भी समझते। पर वह अपनी ही सोच में मग्न रहती।

सबसे मिलने का अवसर तो मिलता ही रहता है, पर हम खुद से कितनी बातें - मुलाकातें करते हैं। अपने जीवन के कटु - मृदु अनुभव के विषय में वह विचार करती रही, इन्हीं सब में अपने भटके पति का भी ख्याल आया। वसुधा जिसे देवता समझ पूजती रही, कब उसने चुपके से अपने कदम पीछे कर किसी और का हाथ पकड़ लिया , उसे पता ही नहीं चला। बस रह गई - शिकायतें।

पर वह सब भी निष्प्रभावी। एक बार जब इंसान हाथ छुड़ा के चलना शुरू कर दे तो फिर हाथ पकड़ना और पकड़ना दोनों ही मुश्किल होते हैं। यही सोचते हुए उसकी नज़र अपने आस - पास फैले पत्तों पर पड़ी ओस की बूंदों पर गई।

पता नहीं, ये बूंदें दिनभर कहां रहती है, कहां भटकती हैं और पता नहीं , रात की किस घड़ी में इन पत्तों पर आ जाती हैं ठीक वैसे ही जैसे सब प्राणी रात में अपने घर आ जाते है। कई को तो सचमुच घर ही जाना होता है और कई सुबह के भूले की तरह घर आ जाते हैं। शराबखाना हो या तवायफ खाना , सिर्फ सबका दिल भले ही लगाते हैं, साथ बैठाते हैं, आपका दुख बांटते भी हैं और देते भी हैं, पर आपका घर नहीं बसाते।अंत में यही कहते हैं, बहुत समय हुआ, अब अपने घर जाओ। बस वसुधा ने भी अपना इरादा पक्का कर लिया और चल पड़ी, अपने भूले पति को भटके हुए की तरह घर वापस लाने के लिए।


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