उत्तराधिकारी
उत्तराधिकारी
अश्व पर सवार वह स्त्री अश्व की लगाम थामे तीव्र गति से जा रही थी। स्त्री के सिर पर धारण उष्णीष अर्थात पगड़ी से पता चल रहा था कि वह किसी राजपरिवार से संबंध रखती है। अरण्य के अंदर बने हुए एक आश्रम के आगे उसने अपना अश्व रोक दिया था और अश्व को एक वृक्ष से बाँधकर उसने आश्रम में प्रवेश किया। जंगल में उपलब्ध लकड़ी,बाँस,मिट्टी आदि के इस्तेमाल से आश्रम में कुटिया बनी हुई थी। यह आश्रम शायद एक गुरुकुल था। एक तरफ यज्ञशाला बनी हुई थी ;हवन कुंडों से अभी भी धुँआ निकल रहा था ;राख अभी भी गर्म ही थी।
गुरुकुल में उपस्थित विद्यार्थी विभिन्न गतिविधियों में व्यस्त थे। विद्यार्थियों को आचार्यश्री ने आज का शास्त्र ज्ञान ग्रहण करवा दिया था ;विद्याध्ययन के बाद ही यज्ञ की परंपरा थी। अब विद्यार्थी आश्रम की अन्य गतिविधियों यथा साफ़ -सफाई,मरम्मत,वस्त्र -निर्माण,बाग़वानी आदि में सलंग्न थे।
स्त्री ने इशारे से एक विद्यार्थी से पूछा,"आचार्य श्री कहाँ है ?"
विद्यार्थी ने आचार्य की कुटिया की तरफ इशारा कर दिया। स्त्री ने राहत की स्वांस ली। यह स्त्री अवन्ति नरेश सहयाद्रि की पत्नी महारानी अपाला थी। अपाला विवाह के 10 वर्षों बाद भी माँ नहीं बन सकी थी। अपाला माँ बनती भी कैसे ;सहयाद्रि ही पिता बनने के योग्य नहीं थे। राजसभा के सभी अमात्य अब राज्य के उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर चिंतित थे।
कल ही राजसभा में इसी विषय पर हो रही चर्चा में अपाला भी उपस्थित थी।
"महाराज,अन्य राज्य हमारे राज्य पर निगाहें गड़ाए बैठे हैं। उनका सोचना है कि इस राज्य का तो कोई उत्तराधिकारी है नहीं। प्रजा में भी इस बात को लेकर चिंता के साथ-साथ आक्रोश भी है। ",एक अमात्य ने कहा।
"महाराज ऐसी परिस्थिति में दूसरा विवाह धर्म सम्मत है। ",दूसरे अमात्य ने सुझाया।
"राजमाता और महारानी दोनों को इस विवाह की अनुमति देनी चाहिए। ",सारी सभा राजमाता और महारानी की तरफ देखने लगी थी।
"हम इस पर विचार -विमर्श करके सभा को सूचित करेंगे। ",राजमाता ने अपाला के ह्रदय की दशा को समझते हुए कहा।
राजमाता स्वयं उसी रात्रि को अपाला के कक्ष में आयी थी।
राजमाता का अभिवादन करते हुए अपाला ने कहा कि,"मातो श्री,मैं स्वयं ही आपके कक्ष में उपस्थित हो जाती। आपने इतना कष्ट क्यों उठाया ?"
"पुत्री,विषय ही ऐसा था कि मुझे स्वयं आना ही उचित प्रतीत हुआ। ",राजमाता ने कहा।
"जी, माता श्री। ",अपाला ने कहा।
"पुत्री,तुमने आज अमात्यों की चर्चा सुनी।मैं स्वयं अपने पुत्र का दूसरा विवाह नहीं करना चाहती ;लेकिन हमें प्रजा के असंतोष के निवारण के भी प्रयास करने ही होंगे। ",राजमाता ने कहा।
"जी,मातो श्री। हम एक महारानी के कर्त्तव्यों को अच्छे से समझते हैं। लेकिन एक स्त्री के रूप में हम अपने पति की दूसरी पत्नी कैसे सहन कर सकते हैं ?",अपाला ने कहा।
"हाँ,पुत्री। तुम्हारे लिए एक सुझाव है। ",राजमाता ने कहा।
"हाँ,मातोश्री। अवश्य ही कहिये। ",अपाला ने कहा।
"पुत्री तुम नियोग प्रथा द्वारा पुत्र प्राप्त कर सकती हो। यह हमारे शास्त्रों द्वारा स्वीकृत प्रथा है। राजा पाण्डु और धृतराष्ट्र का जन्म भी इसी प्रथा द्वारा हुआ था और उन्हें उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकृति भी मिली। अपने राजगुरु से बेहतर पुरुष कोई और नहीं हो सकता है।तुम उनके जरिये एक संतान को जन्म देकर इस राज्य को उत्तराधिकारी दे सकती हो। ",राजमाता ने अपनी बात समाप्त की।
"तुम विचार कर लेना। ",राजमाता ऐसा कहकर वहाँ से प्रस्थान कर गयी थी।
अपाला आज अपने उसी उद्देश्य पूर्ति आचार्य श्री अर्थात राजगुरु से भेंट के लिए आयी थी। अपाला ने अपनी सारी दुविधा आचार्य श्री को बताई और उनसे सहायता के अपेक्षा रखी।
"एक वृहद उद्देश्य और कल्याण के लिए मैं प्रस्तुत हूँ। आपकी मनोकामना अवश्य ही पूर्ण होगी। ",राजगुरु ने अपाला से कहा।
कुछ दिनों बाद महारानी अपाला के गर्भवती होने का समाचार राज्य की प्रजा तक प्रसारित हुआ। प्रजा में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी थी।