V Aarya

Inspirational

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उनकी भी होली

उनकी भी होली

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मिन्नी, बेटा ! ज़रा ये गुझिया अपनी फ्रेंड आरोही के घर देकर आ।" प्रतिमा ने ज़ब मिन्नी को आवाज़ लगाई तब वो अपने भाई के साथ दादी से उनके ज़माने के होली के किस्से सुन रही थी। कैसे उस वक़्त कई तरीके से होली खेली जाती थी। कभी पानी से तो फिर गीले रंग से फिर ग़ुलाल से। कुछ लोग तो चेहरे पर पेंट तक लगा देते थे। जिसे छुड़ाने में कई दिन लग जाते थे। दोनों बच्चों को सुनकर बहुत मज़ा आ रहा था। बताते हुए उनका चेहरा भी एकदम बच्चों जैसा चंचल और खुश लग रहा था।फिर वो लट्ठमार होली के किस्से सुनाने ही जा

रही थी कि बंटी ने पूछ लिया, " दादी, आपको होली खेलना बहुत पसंद है ना? तो खेलती क्यूँ नहीं ?"

ना जाने क्यूँ यह सुनकर दादी की आँखें कुछ पनिया सी गई।

थरथराते होंठों से बस मुस्कुराकर सर हिलाया ही था कि तब तक फिर से बहु ने मिन्नी को बुलवा भेजा।

दोनों बच्चे अभी दादी के पास से बिल्कुल नहीं उठना चाहते थे क्यूंकि अब दादी लट्ठमार होली के किस्से सुनाने वाली थी।


मम्मी के दुबारा बुलाने पर मिन्नी बेमन से उठ तो गई पर बंटी और दादी को हिदायत देती गई कि इसके आगे दादी और कोई होली की कहानी ना सुनाए। रात में फिर दोनों भाई बहन एक साथ सुनेंगे। दादी ने भी उसकी बात मानते हुए सर हिलाया तब कहीं मिन्नी गुझिया की प्लेट आरोही के घर पहुँचाने गई।

आरोही की मम्मी गुझिया पाकर बहुत खुश हुई क्यूंकि वो अभी प्रेग्नेंट थी इसलिए घर पर गुझिया बनाना मुश्किल लग रहा था, और आरोही के दादाजी बाहर का कुछ खाते तो उनका पेट खराब हो जाता था इसलिए वो भी गुझिया देखकर बहुत खुश हुए थे।

आरोही और मिन्नी खेल रहे थे तभी उसके पापा ने घर में प्रवेश किया वो होली के लिए ग़ुलाल, पिचकारी सब लेकर आए थे। आरोही दौड़कर सब सामान देखने लगी। तभी उसके पापा ने रंगों के कुछ पैकेट अलग करते हुए अपने पापा यानि आरोही के दादाजी को दिया और कहा, "पिताजी, ये आपकी पसंद के हर्बल गुलाबी रँग का सिर्फ दो ही पैकेट बचा था,आज सब खत्म हो गया। कल होली जो है।"

मिन्नी ने भी सुना और सोचने लगी दादी को भी तो होली बहुत पसंद है, उनसे मैंने उनकी पसंद का रँग तो पूछा ही नहीं फिर उसे याद आया शायद दादी को उसने कभी होली खेलते देखा ही नहीं था।

खैर, रात को दोनों बच्चे आज ज़िद करके दादी के पास ही सोए। उनसे लट्ठमार होली की कहानी जो सुननी थी।बातों बातों में उन्होंने दादी की पसंद का रँग भी जान लिया। दादी को होली के रंगों में लाल और हरा रँग बहुत पसंद था।

सुबह सुबह बंटी और मिन्नी ने कुछ खुसर फुसर किया और ज़ब मम्मी पापा दादी के पैरों में रँग डालकर उनका आशीर्वाद ले रहे थे तो एक तरफ से मिन्नी ने लाल रँग और दूसरी तरफ से बंटी ने हरा रँग लेकर दादी के गालों पर मल दिया। ज़ब तक सब कुछ समझते दादी का चेहरा रंगीन हो चुका था और बहुत सारा ग़ुलाल दादी की सफ़ेद साड़ी पर भी गिर गया था।

अचानक मम्मी स्मिता ने जोर की डाँट लगाई " ये क्या किया तुमलोगों ने। पागल हो गए हो क्या? "

तब तक बच्चों के पापा अभिषेक को भी मामला समझ में आ चुका था।

वह भी चिल्लाते हुए बोले, " तुमलोग दोनों को ये क्या शरारत सूझी। तुमलोग होश में तो हो। जानते नहीं कि दादी होली नहीं खेल सकती। "

"लेकिन क्यूँ ?"

दोनों बच्चों का समवेत स्वर गुंजा।

"क्यूँकि वो विधवा हैँ। दादाजी के जाने के बाद उनको होली खेलना मना है।" ये स्मिता का कठोर स्वर था।

दादी सकपकाई सी एक ओर खड़ी थी, अभिषेक गुस्से में था और थोड़ा दुखी भी। शायद उसे याद आ गया हो कि माँ को होली खेलना कितना पसंद है। और स्मिता कुछ ज़्यादा ही नाराज़ हो रही थी। कदाचित एक स्त्री होकर स्त्री की भावनाओं से एकदम अनजान।

"आरोही की भी तो दादी नहीं है दादाजी अकेले हैँ तो क्या वो भी विधवा हैँ, तो वो कैसे रँग खेल रहे हैँ?" मिन्नी का तीक्ष्ण स्वर गूँज उठा।

सब चुप।

मिन्नी ने फिर कहा, " वो भी तो विधवा हैँ, ज़ब वो होली खेल सकते हैँ तो दादी क्यूँ नहीं? "

"और आपको शायद पता नहीं दादी को होली खेलना कितना पसंद है "। बंटी भी बोलने से पीछे नहीं रहा।

नन्ही मिन्नी के सवाल का कोई ठोस जवाब नहीं था अभिषेक और स्मिता के पास।

दादी के सब्र का बांध जैसे टूट गया था। दोनों बच्चों को कलेज़े से लगाए वो अब अपने आँसू नहीं ज़ब्त कर पा रही थी।

अभिषेक और स्मिता को अपनी ओछी सोच पर अफ़सोस हो रहा था और ग्लानि भी।

दोनों ने माँ से माफ़ी मांगी और अभिषेक ने माँ के गाल पर रँग लगाया तो माँ यमुनाजी बहुत भावुक हो गईं। अब तक स्मिता भी पर्याप्त पश्चाताप कर चुकी थी उसने भी माफ़ी माँगते हुए आगे बढ़कर अपनी सासूमाँ को रँग लगा दिया।

माँ ने सबको गले से लगा लिया।

आज इस घर की यादगार होली थी।

बाहर मस्तों की टोली ढ़ोल बजाते हुए गुजर रही थी।

उनके गाने की कुछ पंक्तियाँ स्वर लहरी बनकर हवा के साथ इन सबके कानों में पड़ रही थी।

"होली के दिन दिल खिल जाते हैँ

रंगों में रँग मिल जाते हैँ !"

आज दो मासूम बच्चों की कोशिश से इस परिवार में भी सारे लोगों के दिल मिल चुके थे और अपनापन और प्यार पाकर रिश्ते भी प्रेम के रँग में रँग चुके थे।

" वाकई। रंग ना तो विधवा होता है ना सधवा, बल्कि रँग तो प्रेम और सौहार्द का प्रतीक होता है।


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