उलझन
उलझन
19 वी सदी हो .... या 21 वी सदी .... औरत की किस्मत नहीं बदली .... बदलाव हुए है जरूर हुए है, पर उनको देने वाले दर्द के .... उनको कसौटी पर परखने के ....
शिक्षित हुई है स्त्रियां ... पर काटें उनकी राह में अब भी बिछे हुए हैं ... पैरों पर खड़ी है वो अपने ...अपने परिवार भरण-पोषण भी कर रही है सफलता पूर्ण .... पर अफसोस अपने ही वजूद को अपने ही घर में घायल होने से वो बचा नहीं पाती .....
क्या दहलीज के अंदर ... क्या दहलीज के बहार ... रोज लड़ना पड़ता है अपने आत्मसम्मान के लिए .... दहलीज के बहार तो वो कुशलता से बचा भी लेती हैं अपने अस्तित्व को .....
पर अपनी ही दहलीज में खो देती हैं वो अपने अस्तित्व को ...
उस आत्मसम्मान को जो वो बाहर तो हासिल कर लेती है
पर तरस जाती है वो अपने ही आंगन में आत्मसम्मान पाने को ....
खोखली हो जाती है उसके उसकी पीड़ा .... ना उसके अश्रु उसकी मर्जी से निकलते है .... ना उसकी मुस्कान पर उसकी मन मर्जियां .....
पर वो देवी जरूर कहलाती हैं ... घर की लक्ष्मी जरूर बनाई जाती है और पुजा जाता उनके जिस्म को ..... अनगिनत घाव से ....
घर मेरा,
पर ये चार दीवारें ...
लगती क्यों ?
अनजान सी है ....
ये छत मुझे,
आश्रय देती है ...
पर मांगती क्यों ?
मुझसे मेरी पहचान है ....
ये आंगन,
पनपता हैं ...
मेरी छाया में,
फिर क्यों करता सवाल ?
मेरे वजूद पर है ....
ये सांसे तो मेरी हैं,
ये अश्रु तो मेरे है .....
ये मुस्कान तो मेरी है,
फिर भी जाने क्यों ?
इन पर अधिकार,
मेरा नहीं .....