Zahera A

Drama Tragedy Inspirational

4.7  

Zahera A

Drama Tragedy Inspirational

उड़ान!!

उड़ान!!

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"इसलिए इंसान को अपनी ज़मीन से जुड़े रहना चाहिए जिससे ठोकर ही भर लगती है अगर कभी क़दम लड़खड़ाएं तो ,क्योंकि आसमानों पे ऊंचा उड़ने वाले जब भी गिरते हैं ज़मीन ही पर गिरते है और चकनाचूर भी हो जाते हैं, वो भी जिन्होंने अभी अभी उड़ना सीखा हो।" ये कहते हुए अनवर मियां ने अपनी बची खुची जायदाद यतीम खाने के नाम करते हुए सुकून की सांस ली। आसमान की तरफ दुआ के लिए हाथ बुलंद करते हुए कहा" अल्लाह! तू बड़ा कारसाज़ है और बड़ा रहम करने वाला है, इस नाचीज़ के गुनाहों की बख़्शीश कर दे।" और फिर यतीमखाने से सीधे कब्रिस्तान की तरफ का रुख़ किया। 


चेहरे पेे सुकून और आंखों में शर्मिंदगी और पछतावे के आंसू भरे पच्चीस साल पीछे की जिंदगी को मुड़ के देखने लगे। जहां पर उन्हें अपना पुश्तैनी खपरैल वाला घर और बड़े भाई आबिद का परिवार साफ साफ नज़र आने लगा जो गैरत की चादर में अपनी गरीबी को छुपाने की पुरज़ोर कोशिश करने में लगा रहता। वक्त के थपेड़ों की मार आबिद के चेहरे पे सबको साफ नज़र आती थी जिसे अनवर ने हमेशा अनदेखा किया था।


अनवर को बहुत पुराना वो वक्त याद आने लगा जब वो मुबारकपुर नाम के छोटे से कस्बे में अपने भाई आबिद और उसके परिवार के साथ रहा करता था। वो हमेशा से अपने घरेलू हालात से भागना चाहता था। जिंदगी के उन दिनों को जो उसने अपने परिवार के साथ गुजारे थे हमेशा के लिए भूल जाना चाहता था। क्योंकि आज जब वो उनके बारे में सोचता है तो पछतावे और तकलीफ से उसका दिल भर आता है। सोचता की काश वो वक्त फिर आ जाता और मैं उसे ठीक कर सकता।


उस रोज आबिद घर के आंगन मेंं फटी पुरानी दरी पर करघे से तैयार साड़ियां तह कर रहा था तभी आसिया ने पूछा "आज तो खर्ची मिली ना की फाका ही बरकरार रही?" आबिद ने सूखे पपड़ीयाए होठोंं पे ज़बान फेरते हुए कहा " देख तो का होता है, सेठजी बुलाए तो हैं माल ले के। सोचत रहो की अबकी तानी(हाथ करघा पे साड़ी या शाल बुनने के लिए धागों का ताना बाना) पूजे पर आमना अउर मोहसिन के एक जोड़ी कपड़ा सियावे के, पर साल एक जोड़ा कपड़ा आवा रहा।" कहता हुआ आबिद ज्यों ही जाने को मुड़ा त्यूं ही आमना उसी के लहजे में टोकते हुए बोली, "अब्बा! कपड़ा नाही चाही... किताब चाही, पईसा अगर मिली तो किताब ले लीयो, अगले महीने इम्तहान ह।" "अच्छा बेटी! ", कहते हुए आबिद ने अपनी जेबें टटोलीं और तैयार माल को सिर पे रखते हुए घर से बाहर निकल गया। सोच के भंवर में उलझा हुआ वो अपने सेठजी के बैठके पर जब पहुंचा तो देखा सेठजी इंतजार कर रहे थे बोले, "आ गए आबिद तुम्हारा ही इंतज़ार कर रहा था, एक जगह माल चाहिए था इसीलिए बुलवा भेजा, बाज़ार के सब गाहक तुम्हारा ही माल मांगते हैं । कितनी साड़ियां हैं ?"

" सेठजी अबकी बहुत नहीं चला पाए सिर्फ पांच ही ले आया हूं। "

"अच्छा चल रख दे और मुनीब से अपना हिसाब ले ले।" इतना सुनते ही आबिद के चेहरे की फिक्र की लकीरें कुछ गायब सी होने लगीं, आंखों के सामने सबके खिले चेहरे देख वो मुस्कुराने लगा। मुनिब ने पूछा " क्या बात है आबिद बड़ा मुस्कुरा रहे हो?"

"बड़े रोज बाद आज सब कोई चावल दाल तरकारी खायेंगे मुनिबजी, वरना कितने ही दिनों से खाली सादी चाह और सुखी रोटी ही नसीब हो रही थी, वो भी आधे पेट, आज इतने दिन बाद कुछ ले जाऊंगा तो भर पेट सब खायेंगे वही सोच के मुस्कुरा रहा था मालिक।", कहते हुए आबिद ने गमछे का एक कोना दोनो हाथों में फैलाए मुनीब के आगे बढ़ा दिया। आंखों में मायूसी, सूखे होंठ, चमड़ी से बाहर झांकने की कोशिश करती हड्डियां, बिखरे हुए बाल जो उमर से ज्यादा गुर्बत की मार से पके हुए लग रहे थे, एक फटी पुरानी कमीज़ ये सब उसके हालात की गवाही दिए जा रहे थे जो मुनीब जी से छुपे नहीं रह सके। रुपए गिनते हुए मुनीब ने कहा "आबिद इतनी परेशानी काहे झेल रहे थे, मांगते तो क्या मदद नहीं हो जाती? और वो तुम्हारा भाई अनवर, वो क्या करता है? माशा अल्लाह ! पढ़ा लिखा है कुछ ही करता तो क्या चार पैसे नहीं कमा लेता? इतनी परेशानी में रह कर भी तुमने उसे काम भर पढ़ाया तो सही, अब तो कमाने खिलाने लायक हो गया है!" आबिद बोला " ऊ तो दू महीना पहिले ही शहर चला गया।" और फिर अपने पैसों के मिलने का इंतजार करने लगा।

अक्सर गुर्बत नाम की लानत के साथ साथ कुछ ताकतें भी पनपती है जो कम ही इंसानों में दिखाई पड़ती है और वो होती है खुद्दारी और गैरतमंदी की ! आबिद के तो खून की एक एक बूंद में ये बेशुमार भरी पड़ी थी इसलिए उसे भूखा रहना मंजूर हुआ लेकिन किसी के आगे हाथ फैलाना नहीं। आखिर विरासत में एक यही जायदाद तो मिली थी।

उस साल रमज़ान में काम कुछ कम हुआ था, घर में फाके की नौबत थी और आज बड़े दिन बाद कुछ माल तैयार हुआ था जिसे मालिक ने मंगवा भेजा था। पैसा मिलते ही आबिद ने घर के लिए कुछ सौदा लिया और आमना के लिए किताबें खरीदने लगा। मोहल्ले का करीम बोला "ई किताब केकी खातिर खरीदत हो, आबिद भैय्या ?" इस पर आबिद की आंखों में चमक आ गई और बड़े तेवर से बोला "अरे! अपनी 

आमना की खातिर, अगले महीने इम्तहान ह ओका।"

"एक के तो पढ़ा के देख लिए हौ, का फायदा मिला जऊन अब दूसरी पर पईसा बर्बाद करत हो।" करीम ने तंजिया कहा।"ई तो वक्त आए पर पता चली की का होई !" कहता हुआ आबिद घर की तरफ मुड़ गया।

घर पहुंच कर आबिद ने आमना को आवाज लगाई और किताबें देते हुए कहा " ले बेटी ! अपनी किताब पकड़ और इतनी मेहनत से पढ़ की लोगन के मुंह पर ताला लग जाए"। "फिक्र मत करो अब्बा एक दिन हम सब का भी दिन पलटेगा, पढ़ लिख के हमको आगे बढ़ना है, जरूरतमंदों की मदद भी करना है और हम सबका दिन भी तो संवारना है।" किताबों को हाथ में लेते ही मानो आमना के हाथों में जादू की छड़ी लग गई हो।

" जानते हैं अब्बा ! हमारी मैम कहती हैं तालीम वो कुंजी है जिससे हर तरह के ताले खुल जाते हैं, और हमसे उनको बहोत ज़्यादा उम्मीद है, कहती हैं की आमना एक दिन तुम जरूर कुछ ऐसा करोगी की सबको तुम पर नाज़ होगा।" कहते हुए आमना किताबें लिए आंगन में पड़ी दरी पर बैठ गई। उसकी आंखों में एक नई खूबसूरत दुनिया का जन्म होता देख आबिद के अंदर उम्मीद की चिंगारी भड़क उठी और उसने हवा देने के लिए अपने आपको और मेहनत करने पर अमादा करने लगा।

आबिद को अपनी गरीबी से कोई शिकायत नहीं थी हर हाल में खुदा का शुक्र अदा करता रहता। लेकिन जब अपने बच्चों की तरफ देखता तो दुखी हो उठता, बेटा मोहसिन पैदायिशी अपाहिज और बड़ी बेटी आमना जिसे तंगहाली ने वक्त से पहले ही समझदार बना दिया था, उसका बचपन गरीबी की भट्टी में तप कर ही जवान हो रहा था। कभी कभी सोचते सोचते आसमान की तरफ नजरें उठा के मन ही मन बुदबुदाता, मानो अल्ला मियां से कहता हो की " मेरी ही किस्मत मिली थी तुझे बिगाड़ने के लिए? लगता है कोयले से लिखी है, और अब लगता है उसी कोयले की कालिख मेरे बच्चों की जिंदगियों पर भी अपना रंग जमा रही है "। चेहरे पे पड़ी फिक्र और मायूसी की झुर्रियां इस बात की गवाही दे जाती थी। घर में एक करघा थी जो रोजी रोटी का एक ही ज़रिया थी। दिन रात जब हाथ पैर इस पे नाचते तब कहीं तीन चार दिन में एक साड़ी तैयार होती। एक तानी में दस साड़ी तैयार करने में जान निकल जाती लेकिन यही काम था इसी से घर में चूल्हा जलता था। अनवर ये सब जानता था।


अनवर की आंखें उस वक्त जो नहीं देख पाईं वो इस वक्त पच्चीस साल बाद साफ साफ देख पा रहीं थीं, वो थी आबिद की बेबसी। कैसे वो आबिद के अपनेपन को कुचल कर उसकी गरीबी का मजाक बनाकर उसकी खुद्दारी को तहस नहस करके बाहर मुल्क चला आया था? मन मन सोचते हुए आंखें भीग गई थीं।भाई का सहारा बनने की बजाए बेसहारा छोड़ भागा था वो सिर्फ पैसों के लिए, घर में कितना हंगामा किया था उसने उस रोज़। लंदन के एक रईस ने ख्वाब जो दिखाया था उसे अच्छी नौकरी, अच्छे पैसे और अच्छा रहन सहन का। "अरे अनवर! यहां क्या पड़े हो इस गंदगी में, पढ़े लिखे हो सूरत के धनी हो चलो मेरे साथ मैं आज से नहीं ज़माने से रहता हूं लंदन में, क्या रखा है यहां ? अपने मुल्क में रहोगे तो कभी ज्यादा कुछ नहीं कर पाओगे। तुम्हारा भाई तो तुम्हारा ही फायदा उठायेगा। इसलिए तो पढ़ाया लिखाया तुमको की तुम्हारी कमाई खायेगा।" इतना ही कच्चा ईमान था अनवर का अपने परिवार पर अपने मुल्क पर की पैसों की खनक और चांदनी उसे अपनी तरफ खींच ले गई। उसे क्या पता था की रईस को घर जमाई चाहिए था जो उसकी इकलौती बेटी को भी संभालता और कारोबार को भी। 


अल्फाज़ के दांत नहीं होते लेकिन जब काटते हैं तो दर्द बहुत गहरा होता है। और ये अल्फाज़ ही थे जिसने आबिद के दिल को छलनी कर दिया था। अनवर ने वो सब कुछ कहा जो नहीं कहना चाहिए था। भाई को कमज़र्फ, लालची बेघैरत तक बना डाला

यहां तक कह डाला की उसकी गरीबी एक दिन उससे भीख मंगवाएगी, उसका वजूद कुछ नहीं है इस दुनिया में , वो बेकार है। इतना सब सुन के भी आबिद एक भी लब्ज नहीं बोला। सबर का माद्दा बहोत था उसमे। बस यही कहा "अनवर तोहके जहां अच्छा लगे वहीं रौ बाबू ! कमाओ खाओ लेकिन हमके छोड़ के मत ज..! अम्मा आखरी वक्त तोके मोरे हाथ सौंप गई रही। का जवाब दू हूं ओके मरे के बाद ?? आंखों से झरने बहते रहे, गरीब रोता रहा लेकिन अनवर पैर पटकते चला गया।


लंदन में उसने अपनी जिंदगी के पच्चीस साल गुज़ार दिए। रईस की बेटी उसकी बीवी थी। माशाल्लाह चार बच्चों का बाप था अनवर। रुपया पैसा ज़मीन जायदाद कारोबार सब था। इतना सब कुछ तो था अनवर के पास लेकिन सुकून नहीं था। जिस दुनिया का ख्वाब देखा था मिली तो लेकिन खुद्दारी को गिरवी रख के मिली। बच्चे बाप से ज्यादा मां के थे। बीवी बच्चे मिलके ताना देते की उसका क्या है सब तो खैरात में मिला है। मेहनत तो कभी नहीं की इतना सब पाने के लिए। चुपचाप सुनता रहता। कारोबार भले ही वो देखता लेकिन रईस सब अपनी बेटी के नाम ही कर के मरा था। उसके पास वही थोड़ी सी जमीन जायदाद थी जो उसने अपनी हिक्मत से कमाई थी। बेहिसाब दौलत होते हुए भी वो मोहताज था। बच्चे हाथ से निकले हुए थे। तमीज़ और अखलाक किस चीज का नाम है नहीं जानते थे। किस्मत ने अच्छी ठोकर मारी थी। तभी मुल्क ,भाई और घर याद आने लगे। अनवर बीमार रहने लगा। अपने किए का पछतावा सताने लगा था उसे। दौलत और शोहरत की चांदनी फीकी पड़ने लगी थी। इतने साल बाद उसे घर आने का मौका मिला था। बीवी बच्चों से कह आया था " मेरा इंतजार मत करना, मन करेगा तो आ जाऊंगा।"


एक ठोकर ने उसे यादों के झुरमुट से बाहर निकाला तो अनवर ने अपने आप को शहर से बाहर जाने वाली सड़क पर पाया, थक चुका था सो वहीं एक गुमटी पर बैठ गया। चाय वाले ने उसे पहचानते हुए कहा " "अनवर नहीं ना हो? आबिद के भाई?" अनवर बोला "हां भाई ! मुझको कैसे जानते हो ?" अरे! पहचाने नही? हम करीम है तुम्हारे घर मोहल्ले के पास ही तो रहते थे। अब वो मोहल्ला छोड़ दिए। यही रहते हैं अब बगल के मोहल्ले में शहर से दूर।" "कैसे आना हुआ? आबिद भैय्या तो रहे नहीं। मोहसिन जब बहुत बीमार था तब तुमको बहुत याद करते थे, इलाज के पैसे नहीं थे। मांगने की आदत थी नहीं, जब तक जिला पाए मोहसिन को तब तक जिया। बच्चे को ले के तड़पते थे। उसकी तकलीफ बेचैनी नहीं देख पाते थे। बहुत साबिर था तुम्हार भाई। खैर मोहसिन के जाने के बाद खुद भी चले गए। आमना आसिया के साथ रहती है शहर में।" इतना सुन अनवर नजरें नहीं उठा पाया और बोला जानता हूं करीम भैय्या। शहर ही से आ रहा हूं, उन्ही से मिलके यहां आया हूं। चाय पीके अनवर आगे बढ़ गया शाम होने वाली थी और कब्रिस्तान अभी दूर थी।

चलते चलते यादों ने फिर उसको अपनी गिरफ्त में ले लिया। आज से, एक महीने पहले जब वो अपने मुल्क पहुंचा था तब पता चला की किसी खतरनाक बीमारी ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही उसे रोक लिया गया। पता चला वो भी इस बीमारी के चपेट में है।लगता था कोई छूत की बीमारी हो। कोई किसी के पास नहीं आता था। उसे तेज बुखार और सांस लेने में भी तकलीफ हो रही थी। उसे लगने लगा अब उसका आखरी वक्त आ गया है। कोई नहीं था उसका अपना उसके पास। थोड़ा सा होश अभी बाकी रहा होगा तभी कुछ लोग उसे उठा के एक अस्पताल ले गए। होश गुम होने तक तो उसके पास कोई नहीं था लेकिन जब गशी की हालत से वापस आया तो कोई उसके पास खड़ा था चेहरा तो नहीं देख पाया क्योंकि वो ऊपर से नीचे तक सफेद लिबास में ढका था सिर्फ आंखें दिख रही थीं। उसके होश में आते ही उसने पूछा "अब कैसी तबीयत है आपकी?" बड़ी मीठी सी आवाज़ उस सफेद लिबास में से आई। अनवर ने थोड़ी तकलीफ से कहा "जी सांस में थोड़ी सी दिक्कत है और कमजोरी सी लग रही है।" वैसे मैं कहां हूं? आप कौन हैं?" इतने में एक शख्स कमरे में दाखिल होता है और कहता है, " आप इस वक्त शहर के सबसे बड़े हॉस्पिटल के स्पेशल वार्ड में हैं, मैं डॉ. बंसल हूं और ये हमारे अस्पताल की सबसे काबिल नर्स हैं जो इस खतरनाक बीमारी से जूझ रहे लोगों का बहुत अच्छे से खयाल रख रहीं है। आप बिल्कुल सही जगह और सही हाथों में हैं अनवर साहब। लंदन से जो फ्लाइट कल आई है उसमें बहुत लोग इसी वार्ड में हैं, आपको हमारी टीम बिलकुल ठीक करके भेजेगी।" कहते हुए डॉक्टर साहब अगले मरीज के पास चले गए। उस लड़की ने अनवर की तीमारदारी में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जब अनवर पूरी तरह ठीक हो गया तो डॉक्टर ने उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी। "लेकिन वो नर्स कहां है डॉक्टर साहब ?मैंने आज उसे कहीं नहीं देखा, उसका नाम भी नहीं जानता। बहुत खिदमत किया उसने मेरी, बिलकुल बेटी बन के। मैंने तो अपने जीने की उम्मीद ही छोड़ दी थी, उसने हिम्मत जगाई मेरे अंदर। उससे मिल के मै उसका शुक्रिया अदा करना चाहता हूं।" डॉक्टर साहब ने खुशी जाहिर करते हुए कहा" जी बिलकुल मिल लीजिए। उसका नाम आमना आबिद है, बहुत काबिल लड़की है। अभी बुलाता हूं।" कहते हुए डॉक्टर बंसल ने इंटरकॉम से आमना को बुलवाया।

"में आई कमिंग सर! " वही मीठी आवाज अनवर के कान में पड़ी तो फौरन उसकी तरफ पलट के देखा। एक प्यारी सी बड़ी आंखों वाली छोटे कद काठी की सांवली लड़की सामने आके खड़ी हुई। " जी सर, अपने बुलाया?" "आमना अनवर साहब तुमसे मिलना चाहते हैं।" कहते हुए डॉक्टर राउंड पर चले गए। आमना....! तुम आबिद की बेटी हो जो मुबारकपुर में रहते हैं?" आमना ने सिर हां में हिला के जवाब दिया। अनवर की आंखें भर आईं आमना के सिर पे हाथ फेरते हुए कहा "बेटी मैं अनवर चचा हूं तुम्हारा, पहचाना मुझे?" उसने फिर हां में सिर हिला दिया और बोली "मैं आपको उसी दिन पहचान गई थी जिस दिन आप यहां लाए गए ।आप मेरे अब्बा के छोटे भाई है जिसे वो बहोत चाहते थे। अब वो तो इस दुनिया में रहे नहीं लेकिन उनकी यादें उनकी जिंदगी से जंग की कहानी, उनकी दी हुई सीख यहीं रह गई मेरे पास ! उस रोज आपको देखा तो सोचने लगी की ये वही आप हैं जो कभी बड़े गुरूर में कहा करते थे की दुनिया मेरी मोहताज बनेगी, मेरे कदमों में गिरेगी, और अपना खुदा मैं खुद बनूंगा।" सच पूछिए तो आपको इस हाल में देख अच्छा तो नहीं लगा था लेकिन इस बात का यकीन पुख्ता हो गया की "खुदाई को किसी की मोहताजगी नहीं होती , लेकिन बशारत को जरूर होती है , वो चाहे खुदाई का कितना भी दावा करले रहेगा उस खुदा का मोहताज ही!" आमना ने मानो अनवर को आईना दिखा दिया हो। 

अनवर ने शर्मिंदगी से सिर झुकाए हुए आमना से माफी मांगी और खिदमत करने का शुक्रिया कर उसे तोहफे में अपने हिस्से की जायदाद देने को कहा। इस पर आमना ने कहा" चचा, मेरे पास अब्बा की दुआएं हैं, आप अगर इसे मेरी तरह किसी यतीम को तकसीम करदे तो मुझे और अब्बा की रूह को तस्कीन होगी।

अनवर आंखों में पछतावे के आंसू भरे आमना को दुआएं देता अपने घर मुबारकपुर के लिए रवाना हो गया।


शाम हो चुकी थी वो कब्रिस्तान पहुंच चुका था। भाई और मोहसिन की कब्र पे फतेहा पढ़ के अपनी आंखों में आंसू भरे माफी मांगते हुए कहा " भैय्या! मुझे माफ कर दो!! आज ये बे पर का परिंदा अपने घोंसले में वापस आ गया है....!



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