तुम्हारा स्पर्श...
तुम्हारा स्पर्श...
पता है?
बहुत दूर आ चुका था मैं, घनघोर कोहरे में शायद पता ही नहीं चला, सामने टंगे बोर्ड पे नजर पड़ी तो रुक गया, वही जहां हम उस सर्दी की रात में काफी देर तक साथ चलते रहे थे, तुम्हारे हाथों की गर्मी से सर्दी का एहसास मुझे छू भी नहीं पा रहा था। तुम्हें तकलीफ़ हो रही थी मगर हम उस रास्ते के बाद आने वाली मंज़िल की ओर चलते चले जा रहे थे, बिना ये जाने कि इन रास्तों पे कई मोड़ भी हैं।
उस दिन गाड़ी खराब नहीं हुई थी मैंने जान बूझकर खराब की थी, वक़्त से कुछ लम्हे तुम्हारे साथ चुराकर गुजारने के लिये, मुझे माफ़ कर देना।
आज वही पे रुक कर कुछ देर खड़ा कोहरे के उस पार झांकने की कोशिश करता रहा, ये जानते हुये भी कि उस पार तुम नहीं हो, ये उम्मीद भी कोहरे की तरह ही होती है जब तक रहती है तब तक उस पार की सच्चाई पता ही नहीं चलती, मेरी खाली और सख़्त हथेलियाँ तुम्हारे स्पर्श को टटोल रही थीं। मगर दिल में खामोशी चीख चीख के कह रही थी कि मेरे हथेलियों में उस रात चुराये वक़्त के सिवा कुछ भी नहीं है..... कुछ भी नहीं ।