रंगों के पैकेट

रंगों के पैकेट

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मार्च का महीना शुरु हो चुका है, चारों ओर होली की तैयारियां हो रही हैं,

पेड़ पौधों में आई नन्ही कोपले अब हल्के हरे पत्तों में बदल गई हैं, घर के बाहर लगे पौधों में पानी डालते डालते आशीष न जाने कहां खो गया, अंदर से तभी मां की आवाज आई बेटा कब से बैठा है.. तू जा बाजार से सामान ले आ।

आशीष झोला लेकर बाहर चला जाता है। कल होली है लेकिन आशीष को हमेशा की तरह न जाने क्यों होली अच्छी नहीं लगती है। बाजार से वापस आकर आशीष अपने कमरे में जाकर बैठ गया, उसके दिल में मायूसी मानो बेहिचक बिना बुलाए मेहमान की तरह आकर बस गई हो और जाने का नाम ही नहीं ले रही हो, शाम अब रात में बदल गई, सब सो गए। आशीष कमरे में बैठा ना जाने क्या ढूंढता और फिर छटपटा कर बैठ जाता।

सुबह होते ही छोटा भाई कमरे मे आया और बोला, "भईया चलो अपनी टोली बुला रही है, और वो रंगो के पैकेट भी निकाल लो" l आशीष ने सिर हिलाते हुए जाने से मना कर दिया और सोफे के पास बिछी कालीन पर बैठ गया।"

खिड़की के बाहर से लोगों के होली खेलने की आवाज घर में साफ सुनाई पड़ रही थी। छोटा भाई कमरे से चला गया l आशीष ने एक ठंडी सांस ली और बैठ कर खिड़की से बाहर देखने लगा, सबके चेहरे रंगे हुए थे, तभी मां ने आकर कहा, क्यों बैठे हो रंग के पैकेट लेकर तुम जाओ बाहर खेलो जाकर, मां की यह बात सुनकर आशीष उठा उसकी आंखें डबडबाई आई। वो यहां वहां सब सामान वह फेंकने लगा कि तभी उस सामान में एक डब्बा खुला और रंगों के कुछ पैकेट फर्श पर बिखर गए।

मानो महीनों से जमी बर्फ जैसे कुछ हल्की सी धूप लगने से ही पिघल गई हो। अभी पिछली होली की ही तो बात है जब सुबह से उसका 6 साल का बेटा निहार सुबह से रंगो की जिद कर रहा था, बेटे के साथ मिलकर मिताली भी आशीष को सुबह से ही रंग लगा लगा के परेशान करते और आशीष उनसे बचने के लिए भागा भगा फिरता, रसोई मे गुझिया बना रही माँ के ऊपर भी निहार ने कितना रंग डाल दिया था जिससे कई गुझिया खराब हो गई थी l

माँ ने उसे कितना डांटा था जि्‍सके लिए माँ आज भी पछताती है, मौका पाते ही आशीष ने रंग के बचे पैकेट छुपा कर रख दिए थे, जिन्हे ढूढते ढूंढते निहार रो रो कर सो गया था, पर इस होली ऐसा कुछ नहीं हुया 2 महीने पहले ही आशीष का तलाक हो गया था, मिताली को अपनी माँ के साथ रहना था और आशीष को अपनी, अजीब था कि साथ रहने के ज़िद मे साथ छूट गया l निहार और मिताली हमेशा के लिए घर छोड़कर जा चुके थे l

पिछली होली की यादें हवा के झोंको के साथ बार बार दरवाजे पे दस्तक दे जाती की मानो अभी चिल्लाता हुआ निहार फिर पापा पापा करता हुआ आजाएगा । आंखों से बहती हुई यादें आशीष के चेहरे पर लगे उदासी के रंग में मिलकर ना जाने कितनी गहरी हुई जा रही थी, बाहर लोगों का जमावड़ा लग चुका था और सब होली के हुल्लड़ में मस्त थे और रंगों के पैकेट यूं ही फर्श पर पड़े थे।


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