तिल का ताड़ नहीं तिल का लड्डू
तिल का ताड़ नहीं तिल का लड्डू
यूँ तो बात कुछ भी नहीं थी लेकिन बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ी कि वाकई तिल का ताड़ हो गई। दो सगे भाइयों में पहले जितना सगापन और प्यार था अब उतनी ही नफ़रत भरी पड़ी थी, दोनों भाइयों के परिवार में भी दूरी आ गई थी। कोई एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाता था। बूढ़े माँ-बाप को ये बात बराबर कचोटती थी कि दोनों भाई एक दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं।
मिश्रा जी ने अपने जीवन की सारी जमा पूंजी मिला कर अपना आशियाना बनाया था कि अब बाकी का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करेंगे और अब ये घर ही उनके लिए जी का जंजाल बन गया था। पहले जब मिश्रा जी किराए के मकान में रहते थे तो दोनों बेटे भी अलग अलग किराए के घर में अपनी अपनी गृहस्थी चला रहे थे,आपस में मेलजोल था और परस्पर स्नेह भी था। तीज त्यौहार एक संग मनाते थे।
जब से साथ रहना शुरू हुआ तब से ही ये झगड़े शुरू हो गए। छोटी छोटी बातों को लेकर शुरुआत हुई और अब बात इतनी बिगड़ गई कि बड़े छोटे का भी लिहाज नहीं रहा, जीना हराम हो गया।
मधु, मिश्रा जी बड़ी बहू एक दिन बैठी यूँ ही पुराने दिनों को याद कर रही थी जब वो नई नई शादी के बाद इस परिवार में आई थी तो कितने अच्छे दिन थे पूरा परिवार सुख से रहता था। रवि उसका देवर उसके आगे पीछे घूमता था, उसकी हर इच्छा पूरी करने में लगा रहता था। मधु को भी रवि के रूप में एक भाई एक साथी मिल गया था। रवि की फरमाइश पर मधु तरह तरह की खाने की चीजें बनाती और रवि भी पूरे शौक से भाभी की तारीफ कर कर के खाता था।
मधु ने सोचा वो भी क्या दिन थे ? और आज ये दिन देखने पड़ रहे हैं। तभी उसे याद आया कल सक्रांति है और रवि को उसके बनाये तिल के लड्डू कितने पसन्द हैं, कितना अच्छा हो अगर सारी बातें भूल कर वो एक बार फिर से तिल के लड्डू बनाये।
और नई उम्मीद के साथ, मधु एक बार फिर से तिल के लड्डू बनाने लग गई। इस बार तिल का ताड़ नहीं तिल के लड्डू शायद रिश्तों में भी मिठास भर दें।