Chitra Ka Pushpak

Tragedy Inspirational

3.8  

Chitra Ka Pushpak

Tragedy Inspirational

तेरहवीं - डेथ फीस्ट

तेरहवीं - डेथ फीस्ट

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अर्थी उठते ही नरेंदर की आँखें नम हो गयीं । उसे अभी भी यकीन नहीं हो रहा था की उसके पिता (रामजतन ) अब नहीं रहे, खैर ये आशंका तो उसे ३-४ दिन पहले से ही हो गयी थी, जब रामजतन अचानक से गिर पड़े थे । वैद्य का कहना था की हवा लग गयी है, रोज की तरह ही वो भोर में नहर के पास जा रहे थे, उस दिन उनकी तबियत भी थोड़ी नाजुक थी । यही कोई ७५ वां बरसात चल रहा होगा । ढलती उम्र और मौसम के प्रति संवेदनशीलता में बड़ा सम्बन्ध होता है । हालांकी वो एक किसान थे लेकिन शरीर की गर्मी, हवा की ठंडक को सहन नहीं कर पायी । वो अचानक से गिर पड़े । गाँव वालों ने उन्हें उठाकर उनके घर ले आये । तब से ही उनकी तबियत और भी बिगड़ती गयी ।

‘पिता’ शब्द शायद छाँव का ही पर्यायवाची होगा, क्योंकि इस शब्द को धारण करने वाला जब चौखट छोड़ देता है, तो ऐसा लगता है जैसे एक बहुत पुराना पेड़, जो धूप व बरसात में एक छाँव, एक आसरा था, सूख गया हो । शरीर चाहे जिन्दा हो या मुर्दा, जब तक ये चौखट के पास रहता है, एक आस बंधी होती है, एक आसरा लगा होता है लेकिन जैसे ही अर्थी उठती है, अचानक से उनके ख़ास चाहने वालों के शरीर में एक डर दौड़ जाता है । एक कपकपी सी होने लगती है, हाथ काँपने लगते हैं, भीड़ मृत इंसान को अकेला समझती है जबकि जीवित इंसान अपने-आप को उस भीड़ में अकेला पाता है । वो एक छोटे बच्चे की तरह चिल्लाने लगता है, शायद उसके रोने को सुन कर, जाने वाला वापस लौट आये लेकिन हमेशा शमशान से एक इंसान कम ही लौटता है ।

ये डर जो वर्तमान में पैदा हुआ है ये असल में अतीत से जुडी हुई उन तमाम खूबसूरत यादों का परिणाम है, जिनमे वो गुजरा हुआ इंसान हमारे साथ था, लेकिन भविष्य में अब उसकी कमी रहेगी । ये डर हर उस इंसान के साथ चलता है जो सुख व दुःख और मोह-माया की सीमा में बंधा हुआ है । नरेंदर भी उनमे से एक था ।

पिता के ढके हुए चेहरे की तरफ देखा । जब भी रामजतन सोते थे, चेहरा उनका खुला ही रहता था, उन्हें ढक कर सोने की आदत नहीं थी, फिर आज इतना सुकून से कैसे सो सकते हैं ? उधर कोई भी हरकत नहीं दिखी । मृत्यु की शैय्या पर लेटा हुआ इंसान कितना असहाय सा दिखता है, वो भले ही शत्रु क्यों न हो, उस पर दया आ ही जाती है, ये तो फिर भी ‘पिता’ है । वैसे तो प्राणी इस अनंत ब्रह्माण्ड के सामने नगण्य है, लेकिन हर उस एक प्राणी के जीवन के अनुभवों को देखा जाय तो उसमे भी असीमित क्षोभ-विक्षोभ दिखाई देंगे, यही क्षोभ-विक्षोभ इस ब्रह्माण्ड में मिलकर, इसका पुनः प्रसार करते हैं, अर्थात नगण्य प्राणी द्वारा किया हुआ कोई भी कर्म, ब्रह्माण्ड के भविष्य पर प्रभाव डालता है ।

रामजतन के अनुभव भी कहीं न कहीं आने वाले भविष्य पर प्रभाव डालेंगे । फिलहाल तो अभी समाज उन्हें कितना तौलेगा ,वो देखना है । उनके मृत शरीर को नहला कर, सफ़ेद वस्त्र में लपेटा गया व देह को दक्षिणोत्तर कर के दोनों पैर के अंगूठों को रस्सी से आपस में बाँध दिया गया था । ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है …’ की ध्वनि के साथ लोग शमशान की ओर बढ़ चले । शव की ज़िंदगी घर से घाट तक ही होती है । शमशान एक ऐसी मंजिल है जिसे हम न चाहते हुए भी पल-पल उसी की तरफ बढे चले जा रहे हैं । शमशान एक द्वार भी है जहाँ शरीर को पंच-तत्वों में विलीन कर आत्मा को स्वतंत्र चरने के लिए छोड़ दिया जाता है ।

नरेंदर ने स्नान किया, चिता की परिक्रमा कर, पिता के मुँह में तिल रखा । गाय के घी का छिड़काव कर उसने, तीन रेखाएं खींची । मिटटी के घड़े में जल भरकर फिर से चिता की परिक्रमा की और घड़े को पिता के सिर के पास गिरा कर फोड़ दिया, चिता को अग्नि दी । एक बांस की सहायता से शव के कपाल में छेद कर उसने इस अनुष्ठान का समापन किया । ऐसा करते हुए उसके हाथ कांप रहे थे । लोगों के लिए ये एक शव भले ही हो, लेकिन नरेंदर के लिए अभी भी उसके पिता ही थे, वो कैसे बांस से पिता के सिर में चोट कर सकता था, इसीलिए वो कांप रहा था, लेकिन पंडित व अन्य लोगों के बार-बार बल देने पर उसने ये अनुष्ठान भी किया ।

पिता का अंतिम संस्कार करने के बाद सारे कर्म-काण्ड से विमुक्त होकर नरेंदर घर की ओर लौट चला । गांव के बड़े -बुजुर्ग भी साथ में थे । भीड़ में रामजतन की ही बातें हो रही थीं, लोग उनके बारे में भला- भला बोल रहे थे, फिर तेरहवीं की बाते भी होने लगी । नरेंदर का मन पिता के यादों से अशांत था, उसे डर था की वो घर लौटेगा और पिता वहां नहीं होंगे क्योंकि अभी अपने ही हाथों से उन्हें जला आया है । घर के लोगों का सामना कैसे करेगा ? अंकुर तो अपने दादा के आगे हम सब को भूल जाता था । वो पूछेगा की दादा कहाँ गए तो क्या जवाब दूंगा ? बाबा अब लौट के नहीं आएंगे, ये सत्य तो अब मुझे भी मान लेना होगा । नरेंदर फिर घर लौट आया, आस-पड़ोस के लोग भी अपने-अपने घर को लौट गए । कुछ रिश्तेदार अभी भी घर पे रुके थे । पड़ोस के घर से खाना आ गया ।

रात हो चुकी है, आज घर में थोड़ी शान्ति लग रही है । लालटेन की जगह दीपक जल रहा है वो भी एक बाती वाला । लौ भी थकी हुई सी है, मेढक बोल रहे हैं, शायद बारिश आने वाली होगी । “बाबा धान की फसल में कल पानी भरना है”- ऐसा कहते हुए नरेंदर अचानक से उठकर बगल वाली खटिया की तरफ देखने लगा, लेकिन वहां बाबा नहीं थे, झुर्री मौसा लेटे हुए थे । अब उसे सच में एहसास हुआ की बाबा नहीं रहे । लोगों की भीड़ में सच्चाई का पता नहीं लगता, लेकिन जब इंसान एकांत में होता है, तो उसके सवाल ही उसको जवाब दे देते हैं । आज पहली बार उसने किसी का दाह-संस्कार किया । शमशान में तो उसने सारी विधि जल्दी-जल्दी निपटा दी लेकिन अब फिर से एक-एक करके उन सभी क्रियाओं के बारे में वो सोच रहा है, जैसे वो सारी क्रियाएं उसके सामने फिर से दोहराई जा रहीं हो ।

उसे याद है, जब वो बहुत बीमार पड़ा था, बाबा ने अपने हाथो से उसके मुँह में दवा रखा था, आज उसने बाबा के मुँह में तिल रख कर वो उधार चुकता कर दिया । वो कैसे भूल सकता है की, बचपन में वो बाबा के चारो ओर गोल-गोल घूमता था, आज आखिरी बार फिर से बाबा के चारो ओर परिक्रमा कर उसने वो सिलसिला भी ख़तम कर दिया । उसे याद है, बाबा उसको गिनती सिखाने के लिए मिटटी में रेखाएं खींचते थे, आज उसने तीन रेखाएं खींच कर बाबा को ये बता दिया की, उसने गिनती सीख ली है । उसे ये भी याद है, जब वो मट्ठे की मटकी उठा कर ला रहा था और मटकी हाथ से छूट कर फूट गयी थी, तब बाबा ने हॅसते हुए कहा था- “हो गया सब स्वाहा” , आज भी एक मटकी फूटी थी, एकदम उनके सिर के पास लेकिन बाबा ने कुछ नहीं कहा, बाबा क्यों नहीं उठे ? काश ! बाबा उठ कर फिर से बोलते- “हो गया सब स्वाहा “, ऐसा सोचते हुए नरेंदर की आँखों से आंसू टपक पड़े, उसने करवट बदल कर आंसुओं को मिटटी में गिर जाने का रास्ता दिया । ये आंसू बड़े ही शांत थे, लेकिन उतने ही गरम भी थे, शायद उनमे दिमाग की तमाम चल रही उथल-पुथल, मोह, लगाव, प्रेम, पितृभक्ति, जिम्मेदारी, आशीर्वाद, धूप-छावं आदि अदृश्य भावनाओं का समन्वय था ।

खैर, मिटटी सब कुछ सोख लेती है, एक पूरा का पूरा इंसान भी, तो ये आंसू क्या चीज हैं । एक इंसान के जीवन में रात या अंधकार का होना बहुत जरूरी है, यही एक ऐसी अवस्था है जब इंसान खुद को अपनी आत्मा के साथ अकेला पाता है, ये अंधकार ही तय करता है की आप कितने सक्षम हो, यही आपको आपकी जिम्मेदारियों, आपकी क्षमता व समाज की सामाजिकता का बोध कराता है । फिर उगता हुआ सूरज या उजाला आपको उन्ही गुणों को अपनी जिंदगी में लागू करने का मौका देती है । उसे नींद नहीं आयी, वो रात भर करवटें बदलता रहा और मिटटी, आंसू सोखती रही…।

नया दिन है, एक नई सुबह, बस एक पुराना आदमी साथ नहीं है किन्तु उसकी यादें अभी भी नयी ही है, अब इन यादों की छावं मात्र ही रहेगी । अगली सुबह सब-कुछ पहले जैसा ही लग रहा था, लोग फरसा, लाठी उठाये अपने खेतों की तरफ चल दिए, लेकिन हाँ एक बार अनायास ही नरेंदर या उसके घर की तरफ जरूर देखते ।

आज उसका मन खेत में जाने का नहीं कर रहा था । फिर सोचा चलो चल के घूम आये, मन भी थोड़ा हल्का हो जाएगा । घूमते -घूमते एक पंडित मिल गए । हाल-चाल लेते हुए उन्होंने रामजतन की तेरही की बात छेड़ दी । कम ही दिन बचे हैं, सारी व्यवस्था करने के लिए । नरेंदर के दिमाग में एक और चिंता घर कर गयी की सारा इंतज़ाम कैसे होगा ? अगर बीस-तीस लोगों को निमंत्रण दिया तो बाकि बुरा मान जाएंगे, व्यवहार तो सभी के यहाँ है, लेकिन अगर सभी घर से एक आदमी आएगा तो भी सत्तर-अस्सी आदमी, लेकिन ऐसा होता कहाँ हैं, तेरही खाने तो सभी आते हैं, इसका मतलब कुल मिला-जुला के ढाई-तीन सौ लोग । इतने लोगों को बुलाने का मतलब है, तीन-चार हजार का खर्चा । इतना पैसा एक साथ कहाँ से आएगा ?

घर में यही कोई सौ-पचास रूपए पड़े होंगे । सनेही से तीस रूपए, हेला से बीस, खूंटिया से चालीस, दो हफ्ते पहले मंगरु २५ रूपए बाबा से उधार ले गया था , झुर्री मौसा को दो सौ उधार दिया था, उनसे वापस मांग लूंगा । मामा की भी स्थति ठीक नहीं है, नहीं तो एकाक हजार का वहां से बंदोबस्त हो जाता । पिछले बार का गेहूँ रखा है, उसे बेच के तीन-चार सौ का इंतजाम कर लूंगा, चलो अगर गेहूं नहीं बेचा तो तेरही की पूड़ी बनाने में खप जाएगा । फिर भी तीन- साढ़े तीन हजार की कमी पड़ रही है । कुछ पडोसी हैं जो उधार भी दे सकते हैं, मगर कितना ? अधिक से अधिक सौ रूपए लेकिन उधार लेना नहीं है । बाकि का क्या ? मन हल्का होने के बजाय और भारी हो गया । दोपहर हो चला था, खेत को देखते हुए वह वापस घर लौट आया ।

पैसों के इंतजाम के लिए अगले ही दिन मौसी के यहाँ चला गया लेकिन वहां भी कुछ बात नहीं बन पाई, फिर मामा और फूफा के यहाँ । शाम तक वापस लौटते हुए उसे आश्वासन मिल गया था की एक हजार तक का इंतजाम हो जाएगा । 

नरेंदर के लिए सूरज जैसे जल्दी डूबने लगा था । लेकिन उसे अगली सुबह का इंतज़ार नहीं होता, क्योंकि सुबह होने का मतलब है, तेरही की घडी में एक दिन कम हो जाना । मन करता था की रात जल्दी न बीते । चिंताओं ने रात की नींद भी हड़प ली थी । एक बार तो ये भी सोचता था की तेरही अगर न करे तो ? कल पंडित जी से बात करेंगे, शायद वो ही कोई हल निकालें ?

अगले दिन नहर के पानी से खेतों की भराई करने के बाद, पंडित से मिलने गया । वहां पंडित जी ने जाने कौन-कौन से उपदेश दे डाले, कुछ मनुस्मृत, गरुणपुराण जैसी महान पुस्तकों का जिक्र भी किया, और अंत में नरेंदर को ये भी बताया की अगर वो तेरहवी नहीं करेगा तो रामजतन की आत्मा की मुक्ति नहीं हो पाएगी । तेरह ब्राह्मणो को भोजन कराना आवश्यक है । और कोई रास्ता नहीं है । फिर उसने निर्णय लिया की केवल तेरह ब्राह्मणो को खाना खिला कर, पिता की तेरहवीं करेगा, क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति केवल इतना ही खर्चा उठा सकती थी ।

अब नरेंदर को मृत्युपरांत होने वाले अनुष्ठान जैसे अस्थिविसर्जन, अस्थिसंचय, पिंडदान, पंचगव्य होम, एकोद्दिष्ट श्राद्ध, वसुगण श्राद्ध तथा रुद्रगण श्राद्ध, सपिंडीकरण श्राद्ध भी करने होंगे ।

लेकिन गावं के लोग तो तेरही का इंतज़ार कर रहे थे, वो जहाँ भी जाता, खेत हो या नहर, मंदिर का चबूतरा हो या स्कूल का मैदान, कुएं का पत्थर हो या पीपल की छावं, कोई न कोई मिल ही जाता । हाल-चाल लेने के बहाने, तेरहवीं की पूड़ी-कचौड़ी तक पहुँच ही जाते थे । नरेंदर भी क्या करता, हाँ में हाँ मिला कर रह जाता । 

समाज शब्द संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है, ‘सम’ व ‘अज’ । सम का अर्थ, ‘समूह’ से है व अज का मतलब है, ‘साथ रहना’ । अर्थात समाज का शाब्दिक अर्थ है, ‘समूह में साथ रहना’ । हमें अनिवार्य रूप से समाज की परिभाषा को समझना चाहिए । यह परिवर्तनशील होता है। इसकी यह गतिशीलता ही इसके विकास का मूल है, लेकिन इसका परिवर्तन व विकास जीवमात्र के भले के लिए होना चाहिए ।

।। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।


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