Ragini Ajay Pathak

Tragedy

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Ragini Ajay Pathak

Tragedy

स्वार्थी पत्नी अंतिम भाग

स्वार्थी पत्नी अंतिम भाग

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ये क्या माँ? पापा से आप इतना नाराज हो गयी कि घर छोड़कर चली आयी । पता है आपको ढूंढने में कितनी मेहनत लगी मुझे, रमिया और उस पेपर पर छपे लेख से आपके बारे में पता चला ।


"अरे थोड़ा तो सोचा होता था आपने पापा के बारे में, पूरी जिंदगी उनके साथ बिताने के बाद आप ने ऐसा फैसला क्यों लिया? इससे अच्छा तो आप दोनों जवानी में ही एक दूसरे से अलग हो जाते। तब भी तो पापा आपको नशे में मारते और गालियां देते थे। तब आप ने अगर ये फैसला नही लिया तो अब क्यों?" रोशन ने अपनी मां सरलाजी से कहा

सोफे पर बेटे पति के ठीक सामने बैठी सरलाजी आंखों पर चश्मा खादी की साड़ी में बिना सिंदूर बिंदी लगाए आज पूरे आत्मविश्वास के साथ दोनों बाहों को मोड़े बैठी हुई थी।


सामने रखे सेंटर टेबल पर न्यूजपेपर में छपा उनके नाम के कालम का कोना जिसमें लिखा था "लाखों महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत सरलाजी के सफलता की कहानी"


जिसे देखकर राजेंद्र जी को ऐसा लग रहा था जैसे कोई उन्हें मुँह चिढ़ा कर बोल रहा हो"देख लो राजेंद्र जिसको तुमने कभी सम्मान नही दिया उसको आज पूरी दुनियां सम्मान दे रही है।"तभी उनके पति राजेन्द्र जी ने कहा,"बेटा ,तू किससे बात कर रहा है। और किसको समझाने की कोशिश कर रहा है। जरा ध्यान से तो देख अपनी मां को बिना सिंदूर बिंदी लगाए किस घमण्ड में बराबरी पर बैठी है। और इसे जरा भी शर्म लिहाज और समाज बिरादरी में हमारे इज्ज़त मान सम्मान की चिंता होती ।तो ये घर छोड़कर आती ही नहीं। इसके चाल चलन तो शुरू से ऐसे ही थे तभी तो इसने अपनी बेटी को भी बिगाड़ दिया। वो तो बस मेरे बेटे तुझपर इसका जोर नही चला वरना ये तुझे भी बिगाड़ ही देती।"



सामने खड़ी रचना आज नजरें झुकाएं किसी अपराधिन की भांति खड़ी थी कि तभी रोशन ने कहा,"नहीं ये सब इस रचना की वजह से हुआ वरना मां कभी ऐसा करने की हिम्मत करी नहीं सकती थी।"

सत्तर साल की उम्र में छड़ी के सहारे चलते राजेंद्र जी की हड्डियों में जोर भले ना बची रही हो लेकिन पुरूष रूपी पति का अहंकार आज भी जवान ही था। जो इस उम्र में भी पत्नी को दबा कर पैरों के नीचे रखने के लिए बेक़रार था। लेकिन सरलाजी अब बहुत आगे निकल चुकी थी। उनके चेहरे पर एक आत्मविश्वास की चमक थी। अब वो डरी सहमी कमजोर महिला नही थी जिसे जमाने समाज और परिवार बच्चों का डर दिखाकर कमजोर किया जा सकता था।

वो बेटे और पति की बातों को सुनकर मुस्कुरा रही थी।तभी बेटे ने कहा,"मां अब आप मुस्कुराना छोड़कर हमारी बातों का जवाब भी देंगी। आप इतना स्वार्थी कैसे हो सकती है? जो अपने बीमार और कमजोर पति को बुढ़ापे में बेसहारा छोड़ दे।आपका को पता भी है पापा को पैरालिसिस अटैक आया था वो तो अच्छा हुआ कि ज्यादा गहरा अटैक नही था बस चेहरे और बाएं पैर पर ज्यादा असर हुआ जिसे ठीक होने में छ:साल लग गए। अब बुढ़ापे में जब इनको आपकी सबसे ज्यादा जरूरत है तब आप उन्हें छोड़ रही है। ये कैसा घमण्ड मां? एक औरत का खासकर पत्नी इतना स्वार्थी इतना स्वार्थी होना ठीक नही। अब भी देर नहीं हुई आप चलिए हमारे साथ अब घर। और यहाँ रचना को रहने दीजिए ।

आज एक पल में सरलाजी की पुरानी सारी कड़वी यादे ताजा हो गयी। आंखों में आंसुओ को रोकते हुए उन्होंने आंखों से चश्मा उतारकर टेबल पर रख दिया। और सफेद रुमाल लेकर आँखों के गीले हुए कोरो को पोछकर खुद को खुद ही सम्भाल लिया।

और तब सरलाजी ने मुस्कुराते हुए बड़ी सौम्यता से कहा,"

हाँ ,बेटा !तुमने बिल्कुल सही कहा "मैं एक स्वार्थी पत्नी हूँ "तभी तो इनकी मार खा कर और भद्दी भद्दी गालियां सुनकर भी इनकी सेवा करती रही। इनके घर और रिश्तों को अपना समझ कर घर के एक एक कोने को करीने से सजाती रही। प्यार और समर्पण से रिश्तों की बगिया को सींचती रही।अपने बच्चों की छोटी छोटी ख्वाहिशें पूरी करती रही। उनकी परवरिश करती रही। ताकि उन्हें कोई तकलीफ ना हो ।लेकिन एक झटके में मेरे ही वजूद और परवरिश पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया गया। सारा दोष मेरे सिर्फ मढ़ दिया गया।


"क्या बच्चे की परवरिश सिर्फ मां की जिम्मेदारी होती है? "


क्या एक औरत सिर्फ और सिर्फ अपमानित करने के लिए होती है।बड़ी आसानी से कह दिया तुमने "की मैं लौट जाऊं"। लेकिन तुमने एक बार भी नहीं पूछा मां आप कैसी है? आपने मुझे ये क्यों नही बताया? मैं आपका साथ देता। या ऐसा कोई व्यवहार जो तुमने किया होता जो एक बेटा होने के नाते तुम्हारी किसी भी संवेदना को मेरे प्रति होती है। तुमने तो ये तक जानने की कोशिश नहीं की कि जिस वक्त तुम्हारे पापा ने हमें घर से निकाला था उस वक्त हम कहाँ गए? कैसे रहे किन मुश्किलों का सामना किया। कुछ भी नहीं। ये नाम ये शोहरत मुझे खैरात ने नहीं मिले इसके लिए मैंने कई राते जागकर भूखे रहकर ,कभी रो कर तो ,कभी हंसकर ,बिताई है। तब जाकर मैंने अपना घर बनाया और नाम, पैसा कमाया है।

आज मुंबई जैसे जगह में लोग मुझे मेरे नाम और काम से जानते है। ये फेमस प्ले स्कूल और बुकिट एक रात में नही बने। और मैं अपनी मेहनत छोड़कर कही नही जाउंगी। रही बात तुम्हारे पापा की तो इनको हमेशा से इस बात का घमंड था कि पैसा हो तो कोई भी सेवा करने के लिए तैयार रहता है। तो ये पैसा देकर जिससे चाहें अपनी सेवा करा सकते हैं। लेकिन मैं इनकी सेवा नही कर सकती। हाँ इनको पैसों की जरूरत हो तो जरूर दे सकती हूं।


और हाँ रोशन तुम्हें तो अपनी बहन का सुरक्षा कवच होना चाहिए था क्योंकि एक भाई सदैव अपनी बहन की रक्षा करने की रक्षाबन्धन पर कसमे खाता है। लेकिन कोई बात नही, मेरी बेटी की वजह से कभी कुछ नहीं हुआ। ये सब कुछ तुम्हारे पापा के बुरे व्यवहार ही वजह से हुआ। लेकिन मैं तो कहती हूं जो हुआ अच्छा ही हुआ। वरना मैं खुद को कभी पहचान ही नही पाती।

और एक आखिरी बात आज दो समझदार पुरुष मिलकर एक औरत को उसके कर्तव्य बता रहे है। तो क्या मैं इन पुरुषों से जान सकती हूं कि क्या आप दोनों को भी उतना ही अपने कर्तव्यों का बोध है। जितना आप दोनों मुझे बता रहे हो। एक बेटा होने के नाते क्या तुम्हारे कोई कर्तव्य नही बनते पिता की तरफ। क्यों जिस बेटे को जन्म देने के लिए लोग मन्नते पूजा पाठ व्रत रखते है। वो उनकी सेवा नही कर सकता। जब सारे कर्तव्य एक पत्नी माँ और औरत के ही हैं। तो पुरुष उसको शिक्षा देने वाला या अपमानित करने वाला कौन होता है?


"आप दोनों यहाँ से जा सकते हैं।" कहकर घर के बाहर का रास्ता दिखाते हुए सरलाजी ने उनलोगों से हाथ जोड़ लिए।



समाप्त




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