सृजन
सृजन
ये कहानी है विजया की। दूध सी गोरी विजया के कमर तक लहराते बाल उसे खास बनाते हैं। हम कोई कॉलेज फ्रेंड्स नहीं थे। पर वक़्त ने एक -दूसरे के करीब ला खड़े कर दिया। विजया और मैं, दिल्ली के एक कॉल सेंटर में इंटरव्यू देने के लिए पहुंचे थे। हम अपने बारी की प्रतीक्षा में बाहर बैठे थे। उसने ही बातचीत की पहल की। वह जम्मू से आयी थी, मेरे पति की नौकरी उन दिनों वहीँ थी। उसकी खूबसूरती व स्मार्टनेस से मैं प्रभावित हो रही थी। सौभाग्यवश हम दोनों का चयन हो गया, दोस्ती तो पहले ही हो गयी थी।
उसने ऑफ़िस के पास ही एक पेंट हाउस किराये पर लिया था। मेरे अलावा उसके अन्य मित्र भी बन गए थे। अभी नौकरी करते हुए दो माह ही बीते थे कि उसने मुझसे किराये का नया घर ढूंढने को कहा। कारण पूछने पर बताने लगी कि ऑफ़िस के कुछ लोग जोड़े बनाकर आते हैं और उसके कमरे को इस्तेमाल कर निकल जाते हैं और उसे यह सब ठीक नहीं लगता पर वो मना नहीं कर पाती। उसकी उम्र कम थी और इस उम्र में इतनी अरुचि मुझे कुछ हज़म नहीं हो रही थी। फिर मैंने उससे पूछा कि "तूने इस उम्र में क्यों बैराग ले रखा है। सिंगल है मिंगल कर,ये उम्र फिर लौट के नहीं आने वाली !"
पर उसकी तरफ से आती ख़ामोशी कुछ और बयां कर रही थी, मैंने अपने हाथों में उसका हाथ लेकर बस इतना कहा--"अभी जवान हो, रिश्ते आएंगे। बाद में देर न हो जाये। "बड़ी -बड़ी आँखों से लुढ़कते मोती, मेरे हृदय को पिघलाने लगे। बस वह इतना ही कह पायी "शादी ,जोड़े, परिवार नाम मुझे दर्द देते हैं। " उसकी बड़ी -बड़ी आँखों से गिरते मोतियों ने जैसे मेरे अंदर तूफ़ान मचा दी हो। उस रात एक दर्द सा उठा था सीने में , विजया की तकलीफ़ को महसूस किया और उसे अपने घर के पास ही एक कमरा दिला दिया।
मेरे दो साल के बेटे के साथ घंटों वक़्त बिताती। मैंने फिर टोका उसे, अपना घर बसा लो विजया, बच्चे के बिना जीना उद्देश्यविहीन लगता है। आखिर क्या था ,जो उसे उजालों से दूर करता था ? क्यों वो जोड़ों को बर्दाश्त नहीं कर पाती थी। उस संध्या उसने अपनी जीवन के उन अंधेरों से रूबरू कराया जिसे सुनकर मेरी रूह काँप गयी थी !
विजया के पिताजी नैनीताल के सुप्रसिद्ध बैंक में बड़े पद पर कार्यरत थे। ग्रेजुएशन के बाद उसे भी बैंक में एक अच्छी सी नौकरी मिल गयी थी। वहां का मौसम ,आबो हवा और लोग सब जैसे मन को गुदगुदा जाते हों।
बैंक आते -जाते एक हैंडसम लड़का, हमेशा खड़ा मिलता। वह अंदर प्रवेश कर जाती फिर चला जाता। फिर निकलते समय भी वहीं खड़े देख, अचरज में पड़ जाती। यूं ही चार महीने निकल गए। दिसंबर की एक सुबह, कड़ाके की ठंड में उसे खड़े देख, हँसी आ गयी। वह भी मुस्कुराने लगा।
"किसी का इंतज़ार करते हो? "विजया का सवाल था। "जी आपका !" "क्यों?" "आपके साथ चाय पीनी है। " "बस इतनी सी बात ,चलो पी लेती हूँ। "
अब दोनों साथ खड़े थे। बड़ी गहरी आँखें थीं मानो समंदर हो। विजया ने अनिकेत के साथ चाय क्या पी, वो तो उसी की होकर रह गयी। अब दोनों रोज मिलने लगे। उसकी आँखों से, नज़रें नहीं हटती। उसका सम्मोहन था या होनी, ये तो पता नहीं। पर वह उसके प्यार में पड़ गयी थी। ऐसे लुट कर देखता जैसे विजया ही उसकी जिंदगी बन गई हो, फिर तो उसने विवाह की ऐसी जिद्द की, कि पिता के 'ना ' को' हाँ ' में बदलना पड़ा और धूमधाम से विवाह संपन्न हो गया।
शादी के बाद पिताजी का तबादला जम्मू हो गया था। और इसे जल्दी ही पता लग गया कि विवाह के पीछे प्यार नहीं बल्कि उसकी शारीरिक जरूरतें थीं। घर में बस माँ व बेटा था। माँ रातों में जाग कर जाने कौन -कौन से जाप करती और दिन में आराम से सोती रहती। अनिकेत, का भी वही हाल था। आराम से दुकान खोलता, देर शाम घर लौटता। हर रात विजया को परेशान करता। विजया घर व बैंक के सारे काम के बाद, इस तरह के मांगों को पूरी करने के लिए तैयार ना होती। आये दिन की ज़ोर -ज़बरदस्ती से ऊब चली थी। पिता के पास जम्मू चले जाने का मन करता पर किस मुंह से जाती ? उनके लाख मना करने के बावजूद, अनिकेत से विवाह किया था। अब वह अपने निर्णय पर पछता रही थी।
छह माह के अंदर ही वह गर्भवती हो गयी। जैसे -तैसे उसने ९ माह निकाले। ईश्वर ने उसकी गोद में पूरी दुनिया ही दे दी थी। बेटे को पाकर बहुत खुश थी। अभी तीन दिन ही बीते थे कि पालने से 'जय' गायब था। बेतहाशा बाहर की तरफ भागी तो देखा, अनिकेत उसे लेकर पहाड़ी के तरफ चला जा रहा था। विजया ने बहुत हाथ -पाँव जोड़े तब जाकर उसने जय को वापस किया वो भी इस शर्त पर कि, वो उसे खुश करेगी। नहीं तो बच्चे को पहाड़ी से नीचे फेंक देगा। उसके वहशीपन को देख कलेजा मुंह को आ गया था। दहशत की वो रात कठिनतम रात थी।
ये ज़ुल्म आखिरी होगा। उसने मन ही मन एक निर्णय ले लिया था। उसने उसकी शर्त मान ली। आखिरी बार उसकी शय्या पर आयी और उसके नींद में आते ही बच्चे के साथ,घर छोड़ आयी। पुलिस स्टेशन पहुँच कर शिकायत दर्ज़ कराया। अनिकेत गिरफ्तार कर लिया गया और विजया एवं जय, सुरक्षित जम्मू भेज भेज दिए गए। अब उसका बेटा नानी के संग पल रहा था। परम सखी की दुखों का भान होते ही हृदय करुणा के साथ, गर्व से भर गया ! उसने जिस बहादुरी से कठिन समय का सामना किया और साथ ही अपनी जिंदगी को उड़ान दिया वह मेरी नजर में एक मिसाल है।
विजया की कहानी में दर्द इतना है कि शब्द कम पड़ रहे हैं, पर कहानी तो बाकी है। २००७ की मंदी ने बहुत सी कंपनियों में ताले लगवा दिए, खास तौर पर जिनके बिज़नेस अमेरिका से जुड़े थे। हमारा कॉल सेंटर भी बंद हो गया। फिर विजया जम्मू चली गयी और मैं दक्षिण भारत पहुँच गयी। जगह बदलने पर पुराने लोग भी छूट गए। पर सच कहूं तो वो याद आती रही। किसी पुराने मित्र ने बताया की विजया ने पुणे में जॉब ज्वाइन किया है।
पर जिन्हे हम दिल से चाहते हैं उन्हें मिलाने में पूरी क़ायनात लग जाती है ! जी हाँ, आपने सही समझा। ये फिल्मी डायलॉग ऐसे सच होगा ये ना सोचा था। तिरुअनंतपुरम के मंदिर की प्रदक्षिणा करती हुयी, मैं सखी के आगमन से अनजान थी। वो तो यूँ आकर मुझसे चिपकी जैसे अब ना अलग होगी। आज वो अकेली ना थी, उसके साथ उसका कुशाग्र पुत्र था जिसे मैथ्स ओलिंपियाड की परीक्षा दिलाने लायी थी।
विजी से ध्यान हटाकर उसके पुत्र को देखने लगी। गज़ब की आकर्षक आँखें थीं उसकी मानो नज़रें ना हटती हों। विजया ने टोका "क्यों हो गयी न फ़िदा ! अपने पिता का प्रतिरूप है। सोच मैं कैसे संभलीं होउंगी। 'फिर हम दोनो हँस पड़े।
मैं माँ -बेटे को घर ले आयी। दो दिन हमने साथ बिताया। और उसी दौरान उसकी शादी का बायोडाटा,अपने एक मित्र की वेबसाइट पर डलवा दिया। एक सप्ताह में रिस्पांस भी आ गया। पर फिर से विजया का शादी के नाम से घबडाना शुरू हो चुका था। वह पुणे में थी और मैं बैंगलोर में, पर सुबह -शाम उसे समझाने में लग गयी थी। कभी जय की फ़िक्र करती तो कभी पुरुष के सम्पर्क से नफरत की बात उसके ज़हन में आती। मुझसे कुछ ना छुपाती थी वो। संदीप तलाक़शुदा था ! संदीप को विजया पसंद आ गयी थी और उसने उसे, जय के साथ स्वीकार किया ! इस बात पर कुछ सकारात्मक लगी वो पर फिर से वही पुराना राग, छिड़ चुका था। मुझसे नहीं हो सकेगा यही दोहराती।
अब मैंने उसके पास जाने का निर्णय लिया और ये समझाया कि जय और संदीप को दोस्ती हो जाने दो। अभी बस सात साल का है, वो एडजस्ट कर लेगा। और वही हुआ । शादी हो गयी और जय भी खुश था। थोड़े दिनों तक विजया ने दूरियाँ बनायी पर सब एक से नहीं होते। संदीप में गज़ब का धैर्य था उसने विजया को पूरा वक़्त दिया जबतक कि वह स्वयं उसकी दुल्हन बनने के लिए तन -मन से तैयार ना हुयी।
आज मैं बहुत खुश हूँ कि मेरी वह परमप्रिय सखी अपनी घर -गृहस्थी में बहुत खुश है। वह पुनः गर्भवती हुयी और उस पुत्र का नाम उसने विजय रखा। उसने खुद की नकारात्मकता पर विजय हासिल की थी और वापस अपने अंदर स्नेह व विश्वास की अलख जलायी थी !!
रात चाहे कितनी भी काली क्यो न हो पर उसकी भी सुबह तो होती ही है। एक जुनूनी इंसान के चंगुल से आज़ाद हो कर जिस तरह से विजया ने खुद को व अपने बच्चे को संभाला, वह निःसंदेह प्रशंसनीय है। उसे देखकर विश्वास हो गया कि स्त्री उड़ान भर सकती है। गलत कहते हैं कि स्त्री कमज़ोर है। उसे कदम-कदम पर साथ की आवश्यकता है। स्त्री के अंदर सृजनात्मकता है। जब वह अपने बच्चे का निर्माण कर सकती है तो स्वयं का सॄजन क्यों नहीं कर सकती??