सर्द मौसम की आड़ में बैठा एक लम्हा अतीत का
सर्द मौसम की आड़ में बैठा एक लम्हा अतीत का
वो सर्द हवाओं की नर्मी और
धुंधली सुबह पे सजता संगीत
कहीं दूर से आता कोई गीत
मानो दोहरा रहा हो अतीत
जिस गुजरे कल में छूटे हाथ ने
बसंत को पतझड़ में बदल
मौसम और रास्ते दोनों बदल लिए
वो फिर बदल कर
लौट आया है
सूखे दरख़्त पर फूल खिलाने
मुझसे फिर से हाथ मिलाने
अचानक आज की सुबह
वैसी ही सजने लगी थी
बेरंग पड़ चुकी हर दुआ
किसी रंग में बदलने लगी
मानो वक्त किसी घुमाते पहिये में
फंसकर लौट आया हो
और लौट आया हो वो शख्स भी
अपनी नयी कहानी से निकल कर
हमारी पुरानी कहानी का नया किरदार बनकर
पर अब उसे कौन समझाए
कि नई उलझनों में उलझकर
अब सुलझना नहीं है
शाख से बिखरे फूलों को
फिर से खिलना नहीं है
मगर कहीं ना कहीं आज भी
मेरे किरदार की महक
उसकी कहानी के
हर पन्ने पर उतरना चाहती है
मेरी इक छोटी सी चाहत
आज भी पूरी होना चाहती है
उस लम्हे में फिर इक बार संवरना है बस
उजड़ने से पहले इक आखिरी बार बिखरना है बस
इस बार हथेली से मिटा देनी है
बिछड़ने की सभी लकीर
इस बार खुद ही लिखनी है अपनी तक़दीर
फिर अचानक,
ख़यालों को वास्तविकता की ठोकर लगी
ये सर्द मौसम के कोहरे में
कोई धुंधला वहम था मेरा
जो अब मिटने लगा था
रौशनी की चपेट में आकर

