कहानीकार खुद रंगमंच पर
कहानीकार खुद रंगमंच पर
कभी सोचा है ये दुनिया कितनी बड़ी होगी?और इस दुनिया से बड़ी जगह कहाँ होगी?सबसे बड़ी जगह पर क्या कभी हम पहुचेगे, अगर पहुंच भी गए तो कितना छोटा हिस्सा ही नाप पाएंगे हम उस बड़ी सी जगह का,ये ऊलजुलूल बातें अक्सर ही मै कुछ लोगों के सामने परोसता रहता हूं जिसका स्वाद कुछ को ही आ पाता है।
और कुछ उनमे खामिया बताते हुए अंगड़ाइयां लेकर चलते बनते है,और जाते-जाते कहते की कल्पनाएं तो अच्छी है पर कभी इस काल्पनिक दुनिया में सर मत देना, मै अक्सर इन खामियां गिनवाने वाले लोगों से दूर हो जाता हूँ, की कही मुझे भी अपनी सोच और कल्पनाओं के पर न काटने पड़ जाएं।
इसलिए अब मैं अपनी कहानियां सिर्फ वही बेचना चाहता था जहाँ लोग इसे ख़रीदे, वैसे मै ख़्याल और कल्पनाओं का बिकना गलत मानता हूँ।
मगर कहानियों का सड़कों पे बिखरे दम तोडना गुनाह,और गुनाह से बचने के लिए हमें अक्सर ही कुछ गलतियां करते रहना चाहिए, वैसे भी इस बिकाऊ शहर का रिवाज ही यही है, यहाँ हर वो चीज़ ही खूबसूरत है जिसकी कीमतें हम अदा करते है।
इसी पिटारे के साथ मै निकल पड़ा बड़े शहर, छोटे शहर हमारे सपनों की नींव रखते है बड़े शहर उन सपनो को देते है ऊँची छत, और जिन सपनो का कोई घर न हो वो इक खंडहर बन पड़े रहते है कहीं हमारे भीतर, जिससे आती है कई भयानक आवाजें उम्र के हर पड़ाव मे, और कहते है न वो सपना भी क्या खाक सपना हुआ, जिसका दीदार पूरी दुनिया ने न किया।
बड़े शहर में पहला कदम रखते ही लगा यहाँ तो सड़के भी भगति है ट्रेडमिल जैसे, हमारे न चाहते हुए भी हमे इस दौड़ में शामिल होना ही पड़ता है।मगर इस भीड़ में कुछ लोग थे जो रुके थे पता नहीं शायद उनके कदम ज़िद्दी थे या वो थक चुके थे या शायद दोनों ही, थके हुए कदम अक्सर ज़िद्दी हो जाते है। मैंने भी सोचा क्यों न ये ज़िद्द थकने से पहले की जाये, क्या पता मै बच जाऊं वैसा होने से जो मुझे कभी होना ही नहीं। इस सोच का हाथ पकड़ मैंने इक किनारा पकड़ लिया। किनारे अक्सर ही हमे बचा लेते है डूबने से, कई बार लहरें ऊँची हो तो हम सिर्फ भीगते है डूबते नहीं।
कुछ दूर बढ़ इक नुक्कड़ पर बैठ मैं शहर को देखने लगा, फीकी चाय ने शहर को भी फीका बना दिया था। मै मानता हूँ कि हर शहर मे चाय की नुक्कड़ का बेहतरीन होना उतना ही जरुरी है जितना किसी फिल्म में संगीत का होना। कुछ आस-पास एक बच्चों का झुण्ड अपनी कला का प्रदर्शन कर लोगों की भीड़ जमाने में लगा था, मुझे कलाकार हमेशा से ही अलग से लगते है, जब एक कलाकार का किसी और कलाकार से सामना होता है तब उस वक़्त हम कोई मुख्य किरदार नहीं चुनते, दोनों ही एक दूसरे के दर्शक हो जाना चाहते है। कुछ क्षण बाद ही ये खेल भी तालियों के शोर पर आकर खत्म हुआ तो जाने कब मै इक दर्शक से उनकी कहानी का वो हारा हुआ किरदार हो गया, जो सुना रहा था अपनी डायरी में लिखी तमाम कहानियां लोगों को चीख चीख कर, पता नहीं मै उसकी लिखीं कहानियो का किरदार था या उन सभी किरदार को लिखने वाला किरदार। मै सोचता हूँ किरदार गढ़ने वाला कहानीकार कैसे?वो खुद भी किरदार ही तो है, हाँ बस उसकी कहानी किसी मंच या किसी किताब के पन्नो पर नहीं उतरती।
पर क्या कहानियों का प्रदर्शन न कर पाना कहानियों का मर जाना है, खैर मेरी कहानी अभी मरी नहीं थी अभी इसमें कुछ और नए किरदार गढ़ने थे, अभी कोरे कागजो का ढेर था मेरे पास, इनके भरने तक मै लौट नहीं सकता। सो मै अपनी मंज़िल की और बढ़ चला, क्योंकि इन ज़िद्दी कदमो की किसी बड़े पत्थर के ठोकर से कोई हड्डी नहीं टूटी थी अब-तक।
