“उस एक मुस्कान की रोशनी”
“उस एक मुस्कान की रोशनी”
चाय की टपरी की उस शाम में, जहाँ भाप धीमे-धीमे उठती है,और सोचें कप की गर्माहट में पिघलती है
मेरी आँखें अचानक सपने बुनने लगीं।दिन के उजाले में सपने देखना हम जैसे लोगों का काम नहीं होता, हम तो थोड़ी-सी नींद बचा लेते हैं, ताकि उनमें सपने ठिकाना पा सकें।
पर उस दिन…सपने अचानक मेरी खुली आँखों में उतर आए,और मैं खुद को एक ऐसी जगह ठहरा हुआ पायाजहाँ शाम का समय भीकुछ कहने से पहले ठहरकर साँस लेता है।
उसी ठहराव मेंएक छोटी-सी बच्ची नज़र आई। बिखरे बाल,और बड़ी-बड़ी आँखें और आंखों के नीचे अपनी उम्र से कहीं ज़्यादा गहरे काले घेरे,जिनमें दुनिया के जितने सवाल थे, उनसे कम जवाब।
उसकी आँखें इतनी साफ़ थींकि अगर कोई एक पल को भीअपनी व्यस्त ज़िंदगी का काला चश्मा उतार दे,तो उसकी कहानी पढ़ ले।
पर इस शहर मेंकिसे फ़ुर्सत हैअपनी दौड़ती साँसों से बाहर झाँकने की? फिर भी,उसके चेहरे पर एक लम्बी,खिंचकर दूर तक पसरी मुस्कान थीमानो किसी घने कुहासे के बीचदूर कहीं एक दीपक अभी भी जल रहा हो।
इधर, पास वाली बेंच पर बैठे कुछ लोगअख़बार के हर शब्द परअपना ज्ञान बरसा रहे थे,और कुछ लोगदेश की तकदीर अपनी हथेलियों में लेकरबाँट रहे थे पान थूकते हुए वहीँ,जहाँ साफ़ सफ़ेद पट्टिका कहती थी,
“यहाँ थूकना मना है।”
इन आवाज़ों की भीड़ में,उस बच्ची की महीन आवाज किसी तक पहुँच नहीं पा रही थी।और जिन तक पहुँचती भी, वे या तो अनसुना होने का अभिनय करते या उसे दो–चार घिसे–पिटे उपदेश थमा देते, जैसे दया दिखाना एक सौदेबाज़ी हो।
पर अजीब बात यह थी किहर बार नज़रअंदाज़ होने के बाद भीउसकी मुस्कान और चौड़ी हो जाती। जैसे हर बार उसकी आँखों से गिरा हुआ एक छोटा-सा सपना उसकी हिम्मत को और थोड़ा बड़ा कर देता हो।
शायद वह जानती थी कि वक्त चाहे जितनी भी ठोकरें दे, सपने हमेशा किसी न किसी कोने में फिर से उग ही आते हैं।
उसकी मुस्कान मेंएक पूरा उजाला छिपा था।एक ऐसा उजाला, जिसने मुझे उस शामअपने सपनों को फिर से उठाकरसँभाल लेने का साहस दिया।
© अनु राजपूत
