सपनों का बक्सा
सपनों का बक्सा
"उफ़! अब इस भारी बक्से में क्या है।" ससुर जी ने तौलती नज़रों से बड़े से बक्से को देखा। दहेज़ के सामान से बस खचाखच भर चुकी थी पहले ही। सोच रहे थे अब इसे किस तरह और कहाँ रखें।
"जी बिटिया के सारे सर्टिफिकेट, मेडल्स, और किताबें हैं। मैं बस के ऊपर चढ़वा देता हूँ अभी।" बेटी के पिता ने कहा।
"अरे नहीं-नहीं, जगह नहीं है। गृहस्थी का सामान होता तब भी एक बारगी सोचते। इस फ़ालतू सामान के लिए कोई जगह नहीं है। जरूरत भी नहीं है। इसे आप अपने पास ही रखिये।" कहते हुए ससुर बस में चढ़ गए और बस आगे बढ़ गयी।
बहते आँसुओं के बीच धुंधलाई नज़रों से नई-नवेली बहु सड़क पर पड़े उस बक्से को देख रही थी। उसे लग रहा था उसका स्वतंत्र अस्तित्व, उसकी विद्या, सपना, उसका आत्मसम्मान, विश्वास सबकुछ उस बक्से में ही बन्द होकर सड़क पर छूट गया है और वो एक अँधेरे भविष्य की ओर बढ़ रही है।