सपना जो सच हो गया
सपना जो सच हो गया
एक छोटे से गाँव सुन्दरपुर में राधेश्याम जी का परिवार रहता था, चाय समोसा का छोटा सा होटल चला के वह अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे थे,सत्तर के दशक की बात है उस समय बड़े परिवार का चलन था, छोटे परिवार की सोच तबतक विकसित नहीं हुई थी, तो राधेश्याम जी के भी कुल सात बच्चे थे, पाँच बेटियां और दो लड़के, सो किसी भी तरह से जिन्दगी की गाड़ी चल रही थी, गाँव के मिशनरी स्कूल में बच्चे पढ़ रहे थे, लेकिन स्त्री शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था सो बेटियां ज्यादा पढ़लिख नहीं पायीं और दो एक जमातें पढ़ कर ही पढ़ाई से छुटकारा पा गयीं और माँ से घर गृहस्थी का काम सीखकर कम उम्र में ही ब्याह दी गयीं, क्योंकि गाँव -घर में पढ़ने का माहौल नहीं था सो बड़के का भी पढ़ने में ज्यादा मन ना लगा तो उसने होटल खुद से चलाने का फैसला किया, कुछ समय बाद उसकी भी शादी हो गई।
राधेश्याम जी का छोटा बेटा सारे बच्चों में सबसे छोटा था।बड़ी बेटी से बीस वर्ष छोटा, तो उसके भांजे भांजियाँ भी उससे बड़े थे ।लड़के का नाम माँ ने मोहन रखा था और सबसे छोटा होने के कारण माँ का लाड़ला भी था।
बचपन से ही मोहन का एक ही सपना था कि वह पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ा हो, और घर की गरीबी दूर कर दे ।पढ़ने में भी बहुत होशियार था,जो भी पढ़ता तत्काल ही स्मरण हो जाता था।स्कूल में भी शिक्षकों का चहेता विद्यार्थी था। गणित और विज्ञान उसके मनपसंद विषय थे।गणित के सवाल चुटकियों में ही हल कर देता था।
बड़े भाई के विवाहोपरांत परिस्थितियों में काफी बदलाव आ गया। घर में हमेशा आर्थिक तंगी रहने लगी,भाभी खर्चीली व झगड़ालू स्वभाव की थी हमेशा क्लेश मचाती रहती और अंततः परिवार का बंटवारा हो गया , होटल और घर में उनका राज हो गया और माता पिता तथा ब्याहता बहनों की सारी जिम्मेदारी मोहन के कमजोर कंधों पर आ पड़ी। तब वह चौथी कक्षा में पढ़ता था, लेकिन उसने हार नहीं मानी और स्कूल के बाद एक परचून (किराने) की दुकान में पार्ट टाइम नौकरी कर ली। पढ़ाई में तेज होने के कारण फीस माफ़ कर दी गई थी और वजीफा भी मिलन
े लगा जिससे पढ़ाई का खर्च नहीं था और दुकान की नौकरी से घर चल रहा था,साथ ही साप्ताहिक हाट में भी छोटी मोटी कुछ कमाई हो जाती, सातवीं कक्षा में वह दूसरे बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ाने लगा और इसी तरह से कठिन परिश्रम से उसने घर की जिम्मेदारी निभाने के बाद अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। दिन में स्कूल की पढ़ाई, फिर दुकान में नौकरी,वहाँ से आकर दूसरों को ट्यूशन उसके बाद रात में अपनी पढ़ाई, इतने कठिनाइयों से वह अपने सपने को पूरा करने की लड़ाई लड़ रहा था ,अब तो अपनी कक्षा के मित्रों को भी पढ़ा लेता था। बड़े ही अच्छे अंकों से दसवीं की परीक्षा पास की।पूरे जिले में अव्वल आया।
पर अभी मंजिल दूर थी अंकों के आधार पर काॅलेज में दाखिला तो मिल गया था पर रहने खाने के पैसे कहाँ से आते सो,बुआ के घर रह कर पढ़ने का फैसला किया। यहाँ पर भी बहुत सारे काम होते घर में गौएँ थी उनका दाना पानी,गोबर इत्यादि तथा फूफाजी के कपड़े के दुकान में काम साथ में पढ़ाई भी जारी थी। कड़े श्रम से समय पंख लगाकर उड़ गया।मोहन ने काॅलेज भी पास कर लिया, तभी सरकारी नौकरी के फार्म भरे जा रहे थे ,मोहन ने भी भर दिया परीक्षा देकर गाँव आ गया।
माँ बाबा से मिलकर मोहन बहुत खुश था। परीक्षा दिए काफी समय हो गया था गाँव में अखबार भी नहीं आता था सो परिणाम का पता ही नहीं चल रहा था, उसे अपना सपना टूटता हुआ प्रतीत हो रहा था ।देखते देखते दो महीने होने को आए खाली बैठे रहने से अच्छा मोहन ने दुकान की नौकरी फिर से शुरू कर दी थी,वह अंदर से बहुत दुखी था। तभी एक दिन डाकिया नियुक्ति पत्र लेकर आए। डाक विभाग की गलती से उसका नियुक्ति पत्र एक महीने बाद उसे मिला। उसे सरकारी नौकरी मिल गई थी। मोहन की खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। उसके बरसों की तपस्या रंग लाई। आज उसका सपना सच हो गया था। गाँव भर में मोहन के काबिलियत की चर्चा हो रही थी।माँ की आँखों में खुशी के आँसू थे और पिताजी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया था। बेटे की मेहनत से अब उनके दुख के दिन बीत गए थे और हर आने वाला दिन में नयी खुशियों का सवेरा होगा।
कठिनाइयों को पार करके ही सपने पूरे होते हैं। ।