सफर

सफर

2 mins
408


"बचपन खेल मे खोया, जवानी नींद भर सोया, बुढ़ापा देख कर रोया।"

ईज़ी चेयर पर बैठे हुए अजीत जी ये गाना सुन कर मुस्करा दिये। सोचने लगे क्या आदमी बुढ़ापे मे दुखी हो जाता है। बचपन तो आश्रित होता है बड़ों पर। बेताज बादशाही वाला। नो चिंता नो फ़िकर पर होता बेईमान है। कब गुजर जाता है कन्धों पर जिन्दगी का बोझ डालकर। असली सफर तो तभी शुरु होता है।

मैंने और नीना ने मिलकर एक घर बसाया। तब माँ और बाबूजी भी थे पर वे गाँव मे रहते थे। जबरजस्त प्रेम था दोनों का गाँव की मिट्टी से। अन्तिम सांसें भी वहीं ली, दोनों ने। हमें अनाथ कर गए।

अंकुर सात साल का रहा होगा कि नीना ने भी साथ छोड़ दिया, माँ पिता दोनो बनकर पाला अंकुर को।

आरती उसी समय मेरे जीवन मे आई। मेरी स्टेनो थी वह। बिल्कुल घरेलू थी वह। उस समय मन का अंतर्द्वंद आज भी याद है। सोचता था अंकुर को नीना सा प्यार दे पायेगी क्या ?

आरती का अपनत्व, उसके परिवार की सहमति, कुछ अंकुर का और मेरा आरती के प्रति लगाव, हम दोनों एक सूत्र मे बंधने वाले थे कि-

आरती का एक्सिडेंट,शायद विधाता ने अंकुर की किस्मत मे माँ का सुख, लिखा नहीं था। मैंने उसी समय तय कर लिया कि मैं ही अंकुर को माँ पिता दोनो का प्यार दूँगा।

हम बाप बेटे अच्छे दोस्त, सहायक, हमदर्द बन गए। अंकुर कुशाग्र बुद्धि का, आई .आई.टी.कर कंपनी में यू.एस.मे जॉब मे लग गया। वहीं की लड़की से विवाह कर लिया। इस बीच दो बार मै सिएटल गया उसके पास।

बच्चे अच्छे से सेटल है, प्यारी सी मुनिया है। अंकुर कई बार कह चुका है "पापा यहीं आ जाइये, हमारे पास रहिये।"

मुस्करा पड़े अजीत, नहीं जानता अंकुर, देश का प्यार, देश की मिट्टी और उस मिट्टी मे बना घर और उस घर से जुड़ा प्यार क्या होता है। मैं तो माँ बाबू की तरह अपनी मिट्टी में ही मिलकर अपने जीवन के सफर पूरा करना चाहता हूँ।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama