संवेदना
संवेदना
"अहा कितनी खूबसूरत दुनिया है। कोई चीज की कमी नहीं मेरे पास। बंगला गाड़ी पैसा सब कुछ है। मैं कितना खुशकिस्मत हूँ। "
यही सोचते सोचते सेठ लक्ष्मीलाल अपनी दुनिया में मगन था।
शहर के मेन मार्केट में सोने चाँदी के गहनों की दुकान थी उनकी जो ख़ूब चलती थी। उसने अपने जीवन में कभी कोई तकलीफ नहीं देखी थी, उन्हें विरासत में भी बहुत धन संपत्ति मिली थी।
जब तक इंसान किसी दुख दर्द से न गुजरे तब तक उसे दूसरे के दुख का एहसास नहीं होता। सेठ लक्ष्मीलाल के मन में कभी किसी के लिए मदद की भावना नहीं जागी थी।
न तो वह किसी की गरीबी को समझ पाता था, न किसी के दुख को महसूस कर पाता था। उनकी दुनिया तो सुख सुविधाओं से लबरेज़ थी। एक दिन वह रास्ते से गुजर रहे थे, अचानक उसकी गाड़ी खराब हो गई। उन्हें वहीं रुकना पड़ा, थोड़ी देर बाद उसकी नजर एक छोटे से बच्चे पर गई जो कचरे के ढेर में बैठकर कुछ तलाश रहा था। उसने देखा कि वह झूठे प्लेट को उठाकर उठाकर चाट रहा था। उसकी स्थिति बहुत दयनीय थी, शरीर हड्डियों का ढाँचा लग रहा था, नाम मात्र के चिथड़े पहन रखा था वह। शरीर देखकर लग रहा था कि कई दिनों से नहाया नहीं है।
सेठ लक्ष्मीलाल बहुत देर तक उसको देखते रहे फिर गाड़ी से उतरकर उसके पास चले गए। "तुम इतनी गंदी चीजें क्यों कहा रहे हो, जाओ अपने घर का खाना खाना। " सेठ जी ने कहा।
"मेरा घर नहीं है साहब ,खाना कौन देगा। ऐसे ही रोज अपना पेट भरता हूँ। "
उस बच्चे का जवाब सुनकर सेठ लक्ष्मीलाल आश्चर्यचकित हो गए। वे अपनी जेब से कुछ पैसे और कार से खाने का सामान लाकर उस बच्चे को देकर चले गए। दिन भर उसका ध्यान उस बच्चे के तरफ ही जा रहा था, आज दुकान में ज़रा भी मन नहीं लगा उसका। उसके भीतर की संवेदना जाग गई, उसने एक बाल आश्रम खोलने का निर्णय लिया। बच्चे को देखकर उसके भीतर उपजी संवेदना के प्रेरित होकर उसने बाल आश्रम बनाया और ऐसे अनाथ बच्चों को आश्रय और अन्य मदद करके उनका जीवन सँवारा।