समय का फेर

समय का फेर

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दिल्ली रेलवे स्टेशन पर बैठी मैं अपनी ट्रेन के आने की प्रतीक्षा कर रही थी। तभी पीछे से मुझे एक कंपकपांती सी धीमी आवाज़ सुनाई दी,

 “कुछ पैसे दे दो बिटिया....कल से कुछ नहीं खाया....बड़ी भूख लगी है “

मैंने पीछे मुड़ कर देखा तो एक बूढ़ी भिखारिन हाथ फैलाये खड़ी थी। लगभग अस्सी साल की उम्र, गहरा साँवला रंग, झुर्रियों से भरा शरीर, झुकी कमर और फटे पैबंद लगे मैले कुचैले कपड़े।

साधारणतया मैं किसी भिखारी को पैसे देने में विश्वास नहीं रखती, अपितु उन्हें भरपेट भोजन कराने में अधिक विश्वास रखती हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि किसी भूखे को भोजन कराना ज़्यादा श्रेयकर है। अपनी इसी सोच के कारण मैंने उससे हँस कर पूछा...

“ क्या खाओगी अम्मा? तुम्हें जो भी खाने का मन है बताओ....मैं अभी तुम्हें वही ख़रीद कर खिलाती हूँ “

मेरी बात सुनकर उसकी बूढ़ी निस्तेज आँखों में चमक आ गई, वह बोली

“जो कहूँगी वही खिलाओगी बिटिया ?”

“हाँ खाने की जो चीज़ें यहाँ मिल रहीं हैं उनमें से कुछ भी...अब ऐसी चीज़ जो यहाँ नहीं मिल रही वो कहाँ से लाऊँगी “ कह कर मैं हँस पड़ी। साथ ही उसके बोलने के लहज़े से लगा कि शायद वह थोड़ी पढ़ी लिखी है ।

थोड़ा सोच कर वह बूढ़ी भिखारिन, सामने फूड प्लाज़ा की ओर इशारा कर मुझसे बोली 

“मुझे चीज़ पिज़्ज़ा खाना है “

“क्या ?” कह कर मैं चौक पड़ी।

“हाँ बिटिया मुझे पिज़्ज़ा बहुत पसन्द है, पिछले कई सालों से पिज़्ज़ा नहीं खाया “

“ठीक है.....चलो “ 

कह कर मैंने अपना सामान साथ लिया और उस भिखारिन के साथ सामने फूड प्लाज़ा में चली गई । मैंने उसके लिये चीज़ पिज़्ज़ा मँगाया और वहीं कुर्सी पर बैठ गई। वह बुढ़िया भी वहीं ज़मीन पर बैठ गई। मैंने उसकी ओर देखा, उसका चेहरा ख़ुशी से चमक रहा था और पिज़्ज़ा खाने की बेचैनी उसकी आँखों में साफ़ देखी जा सकती थी। मैंने उससे पूछा,

“कहाँ की रहने वाली हो अम्मा ? कितने समय से भीख माँग कर अपना गुजारा कर रही हो ?”

मेरा प्रश्न सुनते ही उसकी आँखों की चमक ग़ायब हो गई और वहाँ दो मोटे मोटे आँसू तैरने लगे। 

“मत पूछो बिटिया कि कब से भीख माँग रही हूँ....जब से मेरा सूरज मुझे यहाँ छोड़ गया है....बड़ी लम्बी कहानी है बिटिया”

“मुझे अपनी कहानी नहीं सुनाओगी अम्मा“ मैंने उत्सुकता से पूछा।

फिर उस बूढ़ी भिखारिन ने अपनी जो कहानी सुनाई उसे सुन कर मेरा मन दुखी हो गया। उस बूढ़ी भिखारिन ने बताया,

“मेरा नाम सावित्री है, मैं गाँव में अपने पति और इकलौते बेटे सूरज के साथ रहती थी...मेरे पति फ़ौजी थे और गाँव में हमारे पास कई बीघे खेत थे...मैं ज़्यादा तो नहीं पर इन्टर तक पढ़ी हूँ....सास ससुर भी साथ ही रहते थे....मेरे पति फ़ौज से रिटायर होने के बाद गाँव आकर खेती बाड़ी करने लगे थे...हमारे पास किसी तरह की कोई कमी नहीं थी....घर में गाय भैंस व खेती के लिये ट्रैक्टर इत्यादि सब था...हमारा बेटा सूरज पढ़ाई के बाद नौकरी के लिये मुम्बई चला गया....वह बीच बीच में घर आया करता था...सब कुछ अच्छा चल रहा था....मेरे पति को घूमने का बहुत शौक़ था और अक्सर हम पति पत्नी कहीं कहीं घूमने चले जाया करते....जब हम घूमने जाते तो मेरे पति मुझे पिज़्ज़ा ज़रूर खिलाते....अगले कुछ सालों में सास ससुर की मृत्यु हो गई थी, फिर भी मैं अपने पति के साथ खेती बाड़ी सब सभांल लेती थी...पर एक दिन मेरे पति ने भी इस दुनिया से विदा ले ली थी....अब गाँव में मैं अकेली रह गई थी...मैंने सूरज से कई बार गाँव आने को कहा था, पर उसे मुम्बई की तेज़ भागती दौड़ती जिन्दगी ही रास आने लगी थी....धीरे धीरे सूरज का गाँव आना बहुत कम हो गया था....उसने मुम्बई में ही अपनी पसन्द की लड़की से विवाह कर लिया और मुझे बताने की ज़रूरत भी नहीं समझी थी...मैं अकेली खेती बाड़ी कितना संभालती ? इसमें भी मुझे घाटा लगने लगा था...मैं उस दिन बहुत रोई थी जब मुझे अपनी गाय और भैंस को बेचना पड़ा....फिर क़रीब दो साल पहले एक दिन सूरज का ख़त आया कि वह मुझे मुम्बई ले जाने के लिये आने वाला है....मेरा मन ख़ुशी से झूम उठा था कि अब मैं कुछ दिन बेटे-बहू और नन्हें से पोते के देख पाऊँगी.....मैं सूरज की बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगी....कुछ दिनों बाद सूरज आया...मेरी आँखें अपने लाल को देख कर भर आईं...थोड़ी देर बाद सूरज ने कहा कि वह गाँव के सारे खेत बेचना चाहता है क्योंकि उसे मुम्बई में एक फ़्लैट ख़रीदना है, यह सुन कर मैं सोच में पड़ गई मैं सूरज के विचार से सहमत नहीं थी क्योंकि मैं अपने पुरखों की ज़मीन बेचना नहीं चाहती थी, परन्तु सूरज ने मुझे आश्वस्त किया कि मैं मुम्बई में सूरज के परिवार के साथ सुख से रहूँगी....और सूरज अब मेरे बुढ़ापे में मेरी सेवा करना चाहता है....मैंने न चाहते हुए भी अपने सारे खेत इसलिये बेच दिये कि सूरज मुम्बई में अपने सपनों का घर ख़रीद सके.....फिर मैं अपना सारा सामान समेट कर सूरज के साथ मुम्बई जाने के लिये निकल पड़ी....यहीं इसी दिल्ली स्टेशन से हमें मुम्बई की ट्रेन पकड़नी थी....सूरज मुझे प्लेटफ़ार्म पर बैठा कर पानी लेने गया तो फिर आज तक नहीं लौटा....मैंने उसे ढूँढने की बहुत कोशिश की परन्तु उसका कुछ पता नहीं चला...वह मेरे खेतों को बेच कर मिले सारे पैसे लेकर और मुझे छोड़ कर मुम्बई वापस चला गया...” 

कहते कहते सावित्री का गला रुँध गया और दोनों आँखों से अश्रुधारा बह निकली। 

मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा....

“चलो मैं तुम्हें किसी वृद्धाश्रम में जगह दिला देती हूँ, कम से कम तुम्हें दो वक़्त का खाना तो मिलेगा “

“नहीं बिटिया....मैं यह स्टेशन छोड़ कर कहीं नहीं जाऊँगी....अगर कभी सूरज का हृदय परिवर्तन हो गया या उसे अपनी माँ की कभी ज़रूरत पड़े तो फिर वह मुझे कहाँ ढूँढेगा....यह तो समय का फेर है बिटिया....समय के पहले और क़िस्मत से ज़्यादा किसी को नहीं मिलता....इस दुनिया में समय ही सबसे बलवान है....समय अच्छा तो सबकुछ अच्छा और यदि समय ख़राब तो क़िस्मत मेरी जैसी...” कह कर सावित्री ने अपने आँसू पोंछ लिये।

अब तक सावित्री के लिये पिज़्ज़ा बन कर आ गया और वह जल्दी जल्दी पिज़्ज़ा अपने मुँह में ठूँसने लगी।

“अरे अम्मा आराम से स्वाद ले कर खाओ....और ये लो कुछ पैसे, फिर जब पिज़्ज़ा खाने का मन करे तो खा लेना“ कहते हुए कुछ रुपये सावित्री के हाथों पर रख दिये।

“जुग जुग जियो बिटिया“ सावित्री के मुँह से आशीर्वाद सुन कर मेरी भी आँखें भर आयीं। कभी भी भिखारियों को पैसे न देने वाली मैं न जाने क्यों आज अपने उसूल तोड़ कर ख़ुश थी । पिज़्ज़ा खाने के बाद सावित्री के चेहरे पर सुकून देख कर मुझे कितनी आत्मसंतुष्टि मिली मैं शब्दों में व्यक्त नहीं करती। परन्तु सूरज जैसे ख़ुदगर्ज़ बेटे का विचार मेरे मन को बोझिल कर गया। इस बोझिल मन के साथ मैं अपनी ट्रेन पकड़ने प्लेटफ़ॉर्म की ओर चल पड़ी।



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