समझदारी
समझदारी
रघु घर आया तो बहुत चुप चुप से था, मल्टी बे पूछा भी मगर कुछ जवाब नहीं दिया।
रात को खाना खाते समय भी वही हालत, खाना भी ढंग से नहीं खा रहा था। मालती ने फिर कुरेदा पर रघु ने कुछ नहीं कहा। गुमसुम से रहा।
सोते समय मालती ने फिर पूछा तो रघु से रहा नहीं गया उसने बताया कि मिल में छटनी चल रही है और आज रघु की नौकरी भी चली गयी। अब घर कैसे चलेगा रघु को यही चिन्ता थी। मालती भी घबरा गयी अब क्या होगा।
रघु कहता है हमारी कुछ बचत भी नहीं है कि कोई और काम करता , या कोई ठेला ही कोई खोल लेता। मगर पैसा कहां से लाऊं।
कोई उधार भी नहीं देंगे।
मालती ने पूछा कितना पैसा लगेगा तो रघु ने कहा कम से कम 1 लाख तो चाहिये ही।
तो मालती ने कहा मेरे पास है
अरे तुम्हारे पास इतने पैसे कहा से आये।
तो मालती रहस्यमयी हँसी हँसते हुए बोली।
मैं चार साल से हर रोज तुम्हारे बटुवे से पैसा निकालती थी कभी सौ रुपये कभी पचास रुपये और इस तरह इतनी बड़ी रकम हो गयी।
इसे मैंने धरोहर की तरह सम्भाल कर रखा है।
यह सुनकर रघु बहुत खुश हो जाता है और मालती को गले लगाते हुए कल के लिये योजना बनाने लगता है।