सलेटी पन्ने
सलेटी पन्ने
"मेरी कहानियों में ना यूं उलझो
के शून्य तक सा समझ पाओगे
जान कर एक एक दास्तां मेरी
तुम खुद को कहीं गुम पाओगे..
हर पहलू का हकीकत से हुआ सामना है
सूरत ही बयां करती हर पल का आइना है।
खामोश से मन में जब बार बार चिंता के ज्वार आते हैं, तो मन कभी स्थिर नहीं रहता , हर अच्छी बुरी सोच दिलो दिमाग़ को बरबस घेरे रहती है, जो काबू से बाहर होती है।
मैं.. एक होम मेकर, बेटी, बहन, पत्नी, बहू और मां .. ये एक विस्तृत परिचय है, ऐसा लगता है कि कोई बड़ी डिग्री है, सर्वोच्च सम्मान है, या मेरी एक परिभाषा है? खैर.. जो भी है लेकिन आज एक लेखिका की ज़िम्मेदारी उठाते हुए कुछ अनछुए पहलुओं से खुद को और आप सभी को रूबरू करा रहीं हूं, ये कहानी नहीं , हकीकत के पन्ने हैं जो मुझसे अब तक जुड़े हैं। कहते हैं कि अपने बीते हुए बुरे कल को भूल जाना ही बेहतर होता है, क्यूंकि उसे याद रखने से हम कभी भी मजबूती से ज़िंदगी में कभी आगे नहीं बढ़ पाते।
बात एकदम खरी है , लेकीन मेरे संदर्भ में सोचूं तो बीती हर पीड़ा, हर दर्द, हर बेबसी ने मेरे आत्म _ विश्वास को इतना तोड़ा है कि मैं भूल गई थी, कि नई खुद क्या हूं, क्या मेरा अपना भी कोई वजूद है, कोई कबलियत है। मेरे खोए हुए आत्म_ विश्वास का सफर, मेरी नई पहचान का सफर बहुत ही मुश्किल दौर से होकर यहां तक पहुंचा है।
बात बिल्कुल मेरी शादी के बाद की है.. जून १९९८...
"जेठ की तपती हवा जैसे बरफ की गलन बन गई हो
ओट में छुपी काली बदली आसमा से यूं बरस गई हो ,
मेवाड़ में बसी झीलों की सुंदर नगरी में हुआ परिणय
कन्या से वधू में परिवर्तित मेरा परिधान श्रंगार आलय,
आंगन बदला रिश्ते बदले मिला नया संसार सत्कार
बाबुल की नगरी से विदा रोते हंसते पहूंची पी के द्वार"
मेरे पति एक IT professional हैं और शुरू से ही कॉरपोरेट सेक्टर में सेल्स एंड ऑपरेशन डोमेन देखते आए हैं। उन दिनों वो चंडीगढ़ में पोस्टेड थे , शादी के लगभग एक साल से भी ज्यादा समय तक मैं अपने ससुराल राजस्थान में ही रही, सास _ ससुर ने भरपूर प्यार दिया। लेकिन छुट्टियां खत्म होने के बाद मनोज ( मेरे पति) वापस चंडीगढ़ जाने की तैयारी करने लगे, वो मुझे भी साथ के जाना चाहते थे, लेकीन ससुराल वालों ने कहा इतनी जल्दी क्या है, कुछ दिन बहू को हमारे साथ ही रहना चाहिए, सारी ज़िंदगी तो फिर मनोज के साथ बाहर ही रहना है, मेरा मन बिल्कुल उदास हो गया , लेकिन बस शर्म और लिहाज़ से शांत रहकर मन की उमंग तरंग छुपा ली ।
फिर वही हुआ... मनोज अकेले ही चंडीगढ़ चले गए, मैं यहां घर में उनके जाते ही आने का इंतजार करने लगी।
पहली करवा चौथ, दीवाली... अकेले.. बिना इनके...
क्या चल रहा था मन में ये सिर्फ़ मैं जानती थी, फूलों से नमी, सिगड़ी से ताप छीन गया हो जैसे.. क्या कहूं, किसे कहूं...
"बस ये सोच सोच कर काट रही दिन रैन
भूख प्यास सब मिट मोरी
कहीं ना आया चैन,
तन मन मुरझाया तबीयत भी हुई नासाज
जाने क्या क्या रोग लगा मुझ पे गिरी गाज़"
सिवयर एसिडिटी, टायफाइड, ट्यूबर कुलोसिस... जाने क्या क्या बीमारी धीरे धीरे शरीर को जकड़ने लगी। आंखो से आंसू, सांसे भी दम भरने लगी, हंसते खेलते शरीर को जैसे कड़ी काली नज़र लग गईं हो। ऐसे में मन था, बस अपने पति का ढेर सारा प्यार और साथ निभाने का विश्वास , जो उस समय नहीं मिल पाया। और फ़िर अपने मां बाप के सिवा किसी का भी सहारा नहीं मिला।
कहते हैं ना कि जन्म से जो रिश्ता जुड़ता है मां बाप से, वो दुनिया की हर दौलत से बड़ा होता है, आप भले ही दूर चले जाएं उनसे... मां बाप का साया सदा साथ निभाता है।
और मेरी ज़िन्दगी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
दिन बीते, महीने गुजरे, गुजरने लगा एक साल , धीरे धीरे इलाज और इंतजार असर में आया , तो फिर सुसराल से भी बुलावा आया। पति से फोन बात होती थी, उन्होंने बताया कि इस बार आयेंगे, तब मुझे अपने साथ ज़रूर लेकर जाएंगे। मुझे कई बार, बार बार ऐसा लगता था जब मैं सोचने लगती थी कि काश अभी मुझ में थोड़ी हिम्मत आ जाए, और मैं ससुरजी से बोल दूं कि डैडी प्लीज़ मुझे चंडीगढ़ मनोज के पास जाना है, आप मुझे छोड़ आइए. .. ये दबी ख्वाहिश , बेबसी, ये उबलते ज्वार .. ये एक नववधू के नवभाव, उसके कुछ सहमे, कुछ नरम , विनम्र आग्रह, उसकी मजबूरी ये सभी भाव तन मन में दिमाग में दिन रात घूम रहे थे।
आखिरकार पहली दिवाली पर उनसे मिलना हुआ, और जाने कैसे हिम्मत से मनोज ने सबसे कहा कि "अब मैंने अपना खु़द का फ्लेट ले लिया है, और मैं नीतू को अपने साथ चंडीगढ़ ले जा रहा हूं"। ससुर जी ने सुनते ही हामी भर दी, और मैं तो मारे खुशी के उछलने लगी। पंख पसारे उड़ी पी के संग, मिल कर रखे नए सफ़र में कदम। घूमना फिरना, मौज मस्ती और थी बारी एक दूसरे को समझने की, नई जिम्मेदारियां आपस में मिल बांटने की।
२००० फरवरी में हुआ पहली संतान का आगमन नन्हा, कोमल, श्वेत वर्ण सा प्यारा पुत्र, "सार्थक" जिसने मुझे मां बनाया । पूरे परिवार में हर्षोल्लास छाया था, सार्थक इस बड़े परिवार में चौथी पीढ़ी का पहला मेहमान बन कर आया था। बड़ा उत्सव , नाच गान ,चल पड़ा खुशियों का रेला, सबका मन बहलाने आया था एक नन्हा खिलौना।
दिन बीते अब काम भी बढ़ गया था, दिन से रात कैसे बदल जाती थी, ये ना पता चलाता था। मनोज को कंपनी में प्रमोशन मिला था, जैसे सार्थक नई तकदीर लाया था।
लेकिन सुख दुख का साथ बरसों पुराना है, सबको मालूम है ये इससे ना कोई अंजना है।
४ साल बाद ससुर जी का बीमारी से निधन हो गया था, मनोज मानो एकदम असहाय, अकेला सा हो गया था। पिता का साथ छूट जाय तो कैसा महसूस होता है, ये वही समझ सकता है , जिसने खोया होता है।
धीरे धीरे समय बीत गया , हम और मज़बूत बन गए।
और मेरी गोद में मेरा दूसरा बच्चा आने वाला था, इस बार
मैने ख़ुद को और मज़बूत रखा, मेरे मम्मी पापा ने मुझे इतना प्यार और देखभाल की कि जिसका ऋण में किसी भी जन्म में नहीं चुका सकती। मैं भी उत्साहित थी।
अक्टूबर २००५ में मेरा दूसरा पुत्र, "सक्षम" मेरी गोदी में आया, एक दम प्यारा, गोल मटोल , बड़ी बड़ी आंखे और बिल्कुल गुड्डे जैसा। वो तब से आज भी घर का सबसे प्यारा बच्चा है, अपने पिता और बड़े भाई के आंखो का तारा।
और मुझसे हमेशा गोंद की तरह चिपका रहता।
ईश्वर का धनयवाद और असीम कृपा से मेरी गृहस्थी बहुत अच्छी चल रही थी। दोनों बच्चे तीव्र एवम तीक्ष्ण बुद्धि वाले, स्कूल में अव्वल आते थे, और व्यव्हार में एकदम शांत और गंभीर। थोड़े बड़े होने के बाद मैंने अपनी ख़ुद की राइटिंग शुरु की, कविताएं, किस्से, लघु कथाएं आदि में अपना समय बिताने लगी, और उनमें फिनिशिंग लाने लगी।
अचानक २०१९ में कॉरोना माहामारी ने जैसे पूरी दुनियां बदल दी। सेहत, नौकरी, घर, ऑफिस सब अस्त व्यस्त हो गया था। इसका परिणाम बहुत भयंकर नजर आने लगा था
लेकीन हमारे साथ कुछ ऐसा होगा, मैं सोच भी नहीं सकती थी, ३१ अगस्त २०२० में इस महा मारी ने हमसे हमारे पिता छीन लिए। सिर्फ़ ३ दिन के खेल ने हमारी दुनियां बदल दी।
लॉकडाउन के चलते तीन दिन में उनकी क्रिया संस्कार करके हम वापस लौट आए। मैं टूट चुकी थी। मेरे लिए मेरे पिता क्या थे, ये बस मैं जानती हूं। मेरी मां ने इतनी हिम्मत से इस कठिन घड़ी को गुजारा , ये सोच के मैं नतमस्तक हो जाती हूं। एक औरत के लिए ये सब सहना और उसे अपनी हिम्मत में बदलना एक बहुत बड़ी बात है ,ये सम्माननीय है।
आज ११/२ वर्ष बाद भी मैं खुद को संभलने में इतनी सक्षम नही हूं। लेकिन जिन्दगी है, तो चलते जाना है।
आज मैं अपना ज्यादातर समय अपनी राइटिंग में बिताती हूं। ये मेरे पिता का ही आशीर्वाद है कि आज में इस मुकाम पर हूं और कुछ अच्छा काम कर पा रही हूं।
इस लम्बे महामारी के काल में कुछ बातें जो सीखने को मिली हैं, वो ये हैं कि...
जिन्दगी में कभी किसी दूसरे की कमियां नहीं , खूबियां ढूंढो
जीतना कर सकते हो, लोगों की मदद करो।
प्यार बांट कर प्यार ही पाओ, अच्छा सोचो, अच्छा बोलो और अच्छा सुनो। आप नही जानते , आपकी एक एक सांस कितनी कीमती है, इसे खुल कर जीयो, हंसो, मुकुराओ, खिलखिलाओ, और जीवन को भरपूर जी लो।
ना उजले हैं ना गहरे हैं
चलते हर दम...
ये पल कभी न ठहरे हैं
लाल गुलाबी चमक कभी
कभी ये सलेटी पन्ने हैं।