Nitu Mathur

Others

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Nitu Mathur

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Vigour voyage

Vigour voyage

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आपकी ज़िंदगी के बीच रास्ते में एक ऐसा मुकाम आता है, जब आप सिर्फ खुद के बारे में सोचना शुरू करते हैं। उम्र के लगभग साढे़ चार दशक पूरे करने के बाद सब कुछ होते हुए भी जब खालीपन का अहसास होने लगे, तो समझ लें कि ये आपके दिल की एक दस्तक है, जो आपको ये जता रही है कि चलिए, अब कुछ उम्र अपने लिए जी लीजिये ... सिर्फ अपने लिए... मैं भी समय रहते समझ गई , सोचा क्यूं ना एक क्रूज़ ट्रीप प्लान की जाए। टिकट आ गए और जाने की तारीख भी पता चल गई। इससे पहले घर में पति विवेक और दोनों बच्चों ( अयान, आहान) से भी पूछ लिया कि यदि वो भी साथ चलना चाहेंगे , लेकिन अपने प्रायर शेड्यूल का हवाला देते हुए सबने मना कर दिया। " नहीं प्रिया, तुम जाओ, हम सब संभाल लेंगे, एंजॉय योरसेल्फ मम्मा।"

पति और बच्चों के इन शब्दों से मुझे हंसते हुए ऐसे विदा किया मानो इतने दिनों तक मैं उनके लिए महज़ एक ज़रूरत से ज्यादा और कुछ मायने नहीं रखती थी। मैंने सोचा ठीक है, बच्चे बड़े हो गए हैं, वो भी ख़ुद से अपना हॉलिडे एंजॉय करते हैं, पति अपने फ्रेंड्स और कॉलेज के यारों के साथ मस्त रहते हैं, तो मैं भी क्यूं ना ख़ुद अपना सफ़र तय करूंगी, अपनी रंगी तन्हाइयों के साथ रहकर शायद अपने लिए कुछ मायना ढूंढ ही लूंगी। हर सफ़र में आपके साथ कोई हमसफर हो, ये ज़रूरी नहीं है, कुछ सफ़र अगर तन्हा तय किए जाएं तो सफ़र तन्हा ही सही, मगर अच्छा लगने लगता है। खुद को ही अपना यार मान कर बांधी पेटी और चल पड़ी। 


अब सिर्फ यहां से जाना है मुझे, कहां ? ये मालूम नहीं चाह है बस बदस्तूर चलने की, मंज़िल का पता निशां नहीं।


वो समंदर की मस्ती, वो चिमनी से उठते गेरुआ छल्ले 

वो पास बुलाती बड़े जहाज़ की सीटी.... बस ..

देखो मैं तो चली , लक्कड़ की पगडंडी

थोड़ी संभली कुछ डगमगाई लेकिन चढ़ी

चौड़ी काली आंखें खोली मदमस्त यूं ली अंगड़ाई


मैंने अपना एक सिंगल वीआईपी केबिन बूक करवाया था, अपना सामान जिसमें बस एक सूटकेस और हैंडबैग ही था।

अपना सामान सेट करके थोड़ा फ्रेश हुई, फिर डाइनिंग में चाय पीने चली गई। जहाज़ भी धीरे धीरे अपनी गति पकड़ रहा था, और मेरा सफ़र भी हौले हौले बढ़ रहा था। आस पास हर उम्र के काफ़ी लोग थे, कुछ कपल्स , कुछ उम्रदराज और कुछ नौजवान। मेरे साथ वाली टेबल पर एक शख्स थे, लगभग बीच की ही उम्र के, एक नॉवेल पढ़ते हुए वो भी चाय की चुस्कियां ले रहे थे। एक दो बार देखने के बाद दूर से हेलो हुआ। थोड़ा स्नैक्स ले कर मैं जहाज़ के डेक पर आ गई..


वो धुला गगन वो सूरज भी मंद

वो मिलों फैला नीर जाल नीला 

वो मदमाती हवा लहरों को छूकर

बालों को करती सूखा गीला

मैं इतराई, सकुचाई , धुन में रमती

ले रही मगन जहाज़ का झूला 


" हेलो.. क्या आप अकेले ही आई हैं?" अचानक हवा में बहते ये लफ्ज़ जैसे कानों में सुनाई दिए, मैंने पीछे मुड़ के देखा तो वही शख्स थे जो कैफेटेरिया में थे, "जी हां , मैं अकेली ही आई हूं " मैंने अपने उमंग भरे भावों को छुपाते हुए कहा। " वेल.. मैं भी अकेला ही आया हूं , थोड़ा रिलेक्स होने के लिए।" मैंने एक मंद मुस्कान से सिर हिलाया , और थोड़ा आगे बढ़ गई। मन नहीं था, थोड़ा कशमकश में थीं फिर भी पीछे मुड़ के देखा, वो वहीं खड़े थे, शायद कुछ लंबी बात करने के इरादे में थे। जब काफ़ी बार आमना सामना हुआ तो धीरे धीरे थोड़ी बातें शुरू हुईं , थोड़ी साझा हुई। पता चला कि उनका नाम अभय है, उनकी पत्नी को गुज़रे हुए 15 साल हो गए, एक बेटी है जो लंदन में आर्किटेक्चर में पीजी कर रही है। दोबारा शादी नहीं की, और अब खालीपन का एहसास हो रहा है, कोई ऐसा दोस्त भी नहीं है, जिससे कभी मन की बात साझा करे। बेटी के ही कहने पे ये क्रूज़ प्लान किया था उन्होंने। बातों का सिलसिला कभी कम कभी ज्यादा बस चलता रहा। 


अभय की कहानी भी मुझे कहीं न कहीं अपनी जैसी ही लगी। एक मोड़ पे आकर ज़िंदगी ख़ुद हमसे ये पूछती हैं, क्या कभी तुमने मुझे अपने लिए जीया है? ये प्रश्न को मैंने अब जाना और जवाब में वो पल गिनाए जो मैंने ख़ुद से बिताए। मुंबई से कोलकाता का सफ़र छोटा ही सही मेरे लिए बेहद ख़ास बन गया, मुझे तरोताजा कर गया। मैं मुस्कुराती अपने आशियाने में लौट आईं। 


हर पल को महसूस कीजिए

थोड़ा ही सही..

ख़ुद के लिए जीना सीख लीजिए.



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