सिस्टम
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"बाबू जी, पटवारी कहाँ बैठता है?"
पसीने से तर कुर्ता पहने दो लोग ज़िला कार्यालय में एक मुझे दफ्तरी बाबू समझकर पूछने लगे।
क्योंकि मैं दफ्तरी बाबू नहीं था और उन्हीं की तरह जिला कार्यालय की विशाल इमारत में सिमटे कई कार्यालयों में से किसी एक मे काम से आया था तो उन्हें गौर से देखा।
सर पर ढीला सा साफा बांधे और हैरान परेशान चेहरे लिए वे दोनों लगभग हर भारतीय किसान की तस्वीर लग रहे थे।
आज भी कार्यालय दफ्तर के बाहर एक खुले आंगन में सैकड़ों खेत मजदूर और किसान अलग अलग गांवों से आकर इकट्ठे हुए थे। लाल और पीले-हरे झंडों को लेकर जमीन पर बैठे किसान। धरना चल रहा था। अलग अलग किसान मजदूर नेता उन्हें सम्बोधन कर रहे थे। अब तो ये सब यहां आम हो गया है, धरना प्रदर्शन एक महीने में दो तीन हो ही जाते हैं। हो सकता है कि ये दोनों भी इनके साथ आये हो। सोचा होगा कि लगे हाथ पटवारी का काम भी कर लिया जाए।
"हां, आप लोग यहाँ से सीधा तीन कमरे छोड़ कर चले जाइये, वहां अलग अलग तालुकों और गांवों के पटवारी बैठते हैं। कहाँ से आये हैं?" मैंने न जाने क्यों और किस जिज्ञासा से उन्हें पूछ लिया।
"आये तो यहीं पास से हैं, बस अब पटवारी मिल जाये, चार महीने हो गए चक्कर लगाते बड़ी सड़क के मुआवजे के लिए। कभी पटवारी बदल जाता है तो कभी कह देता है कि मामला देख रहे हैं, फलाने दिन आ जाना। पिछली बार तो हजार रुपया और दिया तो कागज पर जमीन के नम्बर चढ़ाए।" किसान ने कह कर मेरे बताए रास्ते की ओर मुंह फेर लिया और चल दिया। थे तो वे परेशान ही।
सरकार का टोल फ्री नम्बर सामने एक बोर्ड पर तरस का पात्र बना मायूस टँगा हुआ था।
मुझे याद आया की नेशनल हाइवे बनाने के लिये कुछ जमीन अधिग्रहित की गई थी पिछले साल तो कितने धरना प्रदर्शन जमीन की कीमत को लेकर हुए। फिर पता चला कि परिवार के एक सदस्य को नौकरी और मुआवजा देकर धरने में घायल लोगों के लिए की घोषणा की गई और आखिर कार मामला निपटा दिया गया। बाद में पता चला कि जमीन के बंटवारे, इंतकाल और सही निशानदेही के चक्कर में उलझे लोगों से खूब पैसे ऐंठे गए। बहुतों का मामला अभी भी लंबित है पैसे नहीं मिले। पांच सौ आदमी में अगर तीन सौ को जमीन की सही कीमत मिल गई तो दो सौ कागज के चक्कर में उलझ गया।
वैसे भी दफ्तरी बाबू के पास जाओ तो अपनी मेज पर सर झुकाए और कागजों में सर गड़ाए ही बात करते हैं जैसे कह रहे हों, आगे जाओ, यहाँ भीख नहीं मिलेगी।
"यहां भीख सिर्फ ली जाती है और वो भी पूरी अकड़ से।"
"कहाँ खोए हो जनाब, आते हो और बताते भी नहीं, अजीब याराना है।" जिला कार्यालय में कालेज के दिनों का एक परिचित दोस्त पीठ पर धौल जमाते बोला। हाँ सलिल ही तो था। बस एक बार किसी विवाह में मिला था तो पता चला कि कार्यालय में हेड क्लर्क है आयुक्त के ऑफिस में।
"अरे नहीं यार, बस तुम्हारे दफ्तर के कामकाज और उसके बीच फंसे बेहाल होते लोगों के बारे में सोच रहा था, कुछ बदलेगा कि यही सब होता रहेगा।"
वो मुझे कैंटीन की तरफ ले चला और बोला, "भाई मेरे जब आप सिस्टम से बाहर होते हैं तो क्रांति ही सूझती है। एक बार सिस्टम में आ गए तो पता चलता है कि कहानी कुछ और है। हम दफ्तरी लोग है क्या इस सारे सिस्टम में, हमें तो ड्यूटी बजानी पड़ती है, पता है कि गलत हो रहा है पर जिन्हें लोकतंत्र राज सौंपता है, उन्हीं का आदेश मानना पड़ता है मेरे दोस्त। फैज ने कहा तो है कि
इक फ़ुरसत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखे हैं हमने हौसले परवरदिगार के।"
एक जोर का ठहाका उसने शेर पढ़ के लगाया और मैं न चाहते हुए भी मुस्कुराते हुए शून्य में ताकने लग गया।