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Rashmi Sinha

Inspirational

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Rashmi Sinha

Inspirational

शुरुआत एक नए वर्ष की

शुरुआत एक नए वर्ष की

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मिसेज भार्गव, अपने और पति के लिए गुनगनाते हुए, चाय का प्याला चढ़ा चुकी थी, जब सुरभि ने घर मे प्रवेश किया।भार्गव दंपति को अभी इस मकान में शिफ्ट किये हुए कुछ ही महीने गुजरे थे। शुरू में जब सुरभि उनके यहां काम पर लगी तो वो उसका साफ़ सुथरा रहने का रंग ढंग देख प्रभावित हो उठी, काम भी अच्छा ही था। पर धीरे धीरे पता नही क्यों वो उससे चिढ़ने लगी। 

हर समय उसे हंसते देख टोक भी देती, "क्या है? क्यों बिना मतलब दांत चियारती रहती है? कौन सी हंसने की बात नज़र आ रही है तुझे?"

"आंटी, बस मेरी आदत है हंसते रहने की----"

"मेरे सामने बेवजह खीसें न निपोरा कर, कह देती हूँआग लग जाती है मेरे तन बदन में----"

कभी भार्गव साहब टोकते भी ,क्यों बेचारी को हर समय डांटती रहती हो, हर काम तो फुर्ती से करती है।

"बस आप चुप भी रहिये, देखा नही सुबह सुबह कितना बन संवर कर काम करने आती है, लिपस्टिक, काजल , बिंदी, मानो बर्तन धोने नही सौंदर्य प्रतियोगिता में भाग लेने आ रही हो।नालायक----"

"उफ तुम औरतों को कौन समझे? अभी कोई गंदे ढंग से रहने वाली मिल जाती तो उस मे भी ऑब्जेक्शन होता----"

भार्गव साहब बड़बड़ाते हुए आगे से हट जाते। अब मिसेज भार्गव अपने मन की एक निर्मूल सी व्यथा को किसी से बांट भी तो नही सकती थी।खैर बात चल रही थी मिसेज भार्गव के चाय बनाने को लेकर। 

आज सुरभि जब काम के लिए अंदर आई तो उसका मुंह उतरा हुआ था, मानो वर्षों की बीमार हो

उनका मन हुआ पूछे क्या हुआ? पर प्रश्न को दरकिनार रख पूछा चाय पियोगी? उसने सहमति में सर हिला दिया, उसे चाय और परांठा पकड़ा अपना कप ले ड्राइंग रूम में आ गई।बर्तन धोते समय भी सुरभि का जोर जोर से खाँसना जारी था। 

और मिसेज भार्गव , चिढ़ में सोचती जा रही थी नौटंकी----, अभी कल तक तो ठीक थी, अब अचानक से इतनी जबरदस्त खांसी?? जरूर छुट्टी चाहिए, और नाटक शुरू---

काम खत्म कर वो उनके पास कुछ पल ठिठकी,"आंटी बुखार लग रहा है, कल शायद न आ सकूं।"

"मैं पहले ही जानती थी, आज साल का अंतिम दिन है, और कल साल का पहला मैने कुछ लोगों को लंच पर बुला रखा है और तेरी ये बहानेबाजी---"

उनका बड़बड़ाना आवेग पर था।

वो चुपचाप सर झुकाए सुन रही थी। "कोशिश करूंगी आंटी, कहकर वो धीमे कदमों से घर के बाहर----"

मिसेज भार्गव उसको दरवाजे की ओट से चुपचाप जाता हुआ देखती रही, अब खुलेगा नाटक, जब सीधा चलना शुरू करेगी, पर ऐसा कुछ न हुआ, वो उसी दर्द भरी चाल से लिफ्ट तक पहुंची खांसते हुए---

आज नए साल की पहली तारीख है, 7 बजे ही घंटी बजी, इतने सुबह कौन हो सकता है?दरवाजा खोला तो सुरभि थी, अरे! इतनी सुबहपर वो खुश थीं चलो बर्तन मांजने से बची।वो चुपचाप अपना काम करती रही। जरूर पैसे चाहिए होंगे।फिर अचानक ही मिसेज़ भार्गव को खुद पर ग्लानि हुई, कैसी होती जा रही हैं वो?

इतनी पत्थर दिल वो कब से हो गई? और छोटी सोच? क्या सुरभि को सजने संवारने का शौक नही होता होगा? क्या कुछ अनुभव कड़वे हो जाने से सबको एक ही तराजू में तौल देना उचित है।सुरभि उनसे जाने की इजाज़त लेने खड़ी थी।

"ठहर जरा, ये रहे तेरी तनखाह के पैसे और ये 500 रुपये भी रख , दवा ले लेना, और बच्चों के लिए मिठाई---"

अचानक जाने क्या हुआ सुरभि को क़ि उसने मिसेज़ भार्गव के दोनो हाथ पकड़ लिए और "आंटी" कहते हुए एक पालतू की तरह उनकी गोद मे सर देकर बैठ गई। 

उसका रोना बदस्तूर जारी था, और बेटी की तरह उसका सर सहलाती मिसेज भार्गव कब अपने आंसुओं को रोक पा रही थी, जो टप-टप बहते हुए सुरभि के केशों में विलीन होते जा रहे थे।

सचमुच एक नया वर्ष था ये----


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