श्रीरामचरितमानस-उत्तरकाण्ड
श्रीरामचरितमानस-उत्तरकाण्ड
केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं ।
शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम्।।
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं।
नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम्।।
उत्तरकाण्ड रामचरितमानस का अंतिम कांड है, इसमें 131 दोहे हैं। इसमें भरत की विरह वेदना, भरत- हनुमान- संवाद, राम के आगमन की सूचना से अयोध्या में उल्लासपूर्ण वातावरण, राम और भरत का मिलाप, राम का राज्याभिषेक, रामराज्य का विस्तृत वर्णन, राम का प्रजा को उपदेश, श्री राम-वशिष्ठ-संवाद, नारद का आगमन, कागभुसुंडि द्वारा राम भक्ति की महिमा का गुणगान, शिव जी द्वारा दिए गए शाप की कथा, गुरु की कागभुसुंडि पर कृपा, ज्ञान-भक्ति-निरूपण, भक्ति महिमा का गान, कागभुसुंडि-गरुण-संवाद ,भजन महिमा, फल श्रुति और रामायण महात्म्य जैसे प्रसंगों का समावेश है।अंत में रामायण जी की आरती प्रस्तुत की गई है।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु विषम भव भीर।।