कृष्ण गीतावली
कृष्ण गीतावली
इस कृति में श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया गया है। यह कृति संगीत की विभिन्न राग-रागिनियों के आधार पर लिखा गया मुक्तक गीतों का संग्रह है। इसका प्रतिपाद्य कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का वर्णन और सगुणोपासना की स्थापना है।
इस कृति में 61 पद हैं। सभी पद अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र हैं। इस कृति में गोस्वामी जी के सूक्ष्म संगीत ज्ञान को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता हैं। रामकथा पर आधारित प्रभूत रचनाओं के बीच कृष्णोपासना को प्रतिपादित करने वाली यह कृति विशिष्ट, प्रौढ़ और कलात्मक दृष्टि से समृद्ध रचना है।
कृष्ण की माखन चोरी, गोपिकाओं के उलाहने, माता यशोदा का क्रोध, कृष्ण द्वारा अपनी निर्दोषता की सफाई प्रस्तुत करना जैसे प्रसंगों को संक्षिप्त रूप में किंतु, विलक्षण पूर्णता के साथ प्रस्तुत किया गया है। गोचारण, बांसुरी वादन, गोवर्धन धारण जैसे प्रसंगों को भी संक्षिप्त किंतु चित्ताकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
गोपी के उलाहने पर बालक कृष्ण अपनी सफाई देते हुए कहते हैं-
अबहिं उरहनो दै गई,बहुरो फिरि आई।
सुनु मैया तेरी सौं करौं,याकी टेक लरन की,सकुच बेचि सी खाई।
या ब्रज में लरिका धने हौं ही अन्यायी।
मुंह लाए मूडहिं चढ़ी अंतहु अहिरिनि तू सूधी करि पाई।।
भ्रमरगीत प्रसंग का उद्धव-गोपी-संवाद कृष्ण-भक्तों को बहुत प्रिय रहा है। सगुणोपासना की प्रतिष्ठा के लिए भी उद्धव-गोपी संवाद का महत्वपूर्ण स्थान है। गोस्वामी जी सगुणोपासना के समर्थक थे उन्होंने भी कृष्ण गीतावली में इस प्रसंग को उठाया है। गोपियों की विराहनुभूति, प्रेम की प्रगाढ़ता और भक्ति की अनन्यता की प्रभावपूर्ण अभिव्यंजना इन गीतों में हुई है।
निम्नलिखित पंक्तियों में गोपियों की निष्ठा दर्शनीय है-
सगुन छीर निधि तीर बसत ब्रज तिहुंपुर विदित बड़ाई।
आक दुहन तुम कहयो सो परिहरि हम यह मति नहिं पाई।।
जानत हैं जदुनाथ सबन की बुद्धि विवेक जड़ताई।
तुलसिदास जनि बकहिं परम सठ! हट निसिदिन अंबराई।।
तुलसीदास ने कृष्ण की रूप माधुरी की चित्ताकर्षक झांकी प्रस्तुत की है। संस्कृतनिष्ठ कोमल कांत पदावली में कृष्ण की रूप छटा की विलक्षण व्यंजना की गयी है-
घनस्याम काम अनेक छवि,लोकाभिरात मनोहरम्।
किंजल्क वसन,किसोर मूरति,भूरि गुण करूनाकरम्।।
सिर केकि पच्छ बिलोल कुंडल अरुन बनरूह लोचनम्।
गुंजावतंस विचित्र,सब अंग धातु,भवभय मोचनम्।।
कृष्ण गीतावली की समाप्ति पर कृष्ण के लोक हितकारी और भक्तवत्सल कृष्ण की संकटमोचन प्रवृत्ति की कीर्ति का बखान किया गया है। द्रोपदी के चीरहरण के समय कृष्ण स्वयं वस्त्र बन गए थे और द्रौपदी की लज्जा की रक्षा की थी। इसी प्रसिद्ध प्रसंग के माध्यम से कृष्ण के अशरण शरण रुप की प्रतिष्ठा करके कृति की समाप्ति की गयी है।