श्रीरामचरित- किष्किंधा काण्ड
श्रीरामचरित- किष्किंधा काण्ड
कुन्देन्दीवरसुन्दरावतिबली विज्ञानधामावुभौ।
शोभाढ्यौ वरधन्विनौ श्रुतिनुतौ गोविप्रवृन्दप्रियौ।।
मायामानुषरूपिणौ रघुवरौ सद्धर्मवर्मौ हितौ।
सीतान्वेषणतत्परौ पथिगतौ भक्तिप्रदौ तौ हि न:।।
मुक्ति जन्म महि जानि,ग्यान खानि अघ हानि कर।
जह बस संभु भवानि,सो कासी सेइअ कस न।।
जरत सकल सुर बृंद,विषम गरल जेहिं पान किय।
तेहि न भजसि मन मंद,को कृपाल संकर सरिस।।
श्रीरामचरितमानस के चतुर्थ सोपान किष्किंधा कांड में कुल 30 दोहे हैं। मंगलाचरण के पश्चात प्रभु राम और श्री हनुमान जी महाराज का मिलन, राम सुग्रीव मैत्री, बालि वध, सुग्रीव का राज्याभिषेक, विभिन्न ऋतुओं का वर्णन, बंदरों का सीता जी की खोज में चारों दिशाओं में प्रस्थान, स्वयंप्रभा मिलन, संपाती प्रसंग, समुद्र लॉघने की योजना, जामवंत की प्रेरणा से श्री हनुमान जी महाराज का उत्साहित होना आदि प्रसंग समाविष्ट किये गये हैं। अंत में प्रभु श्री राम के गुणों का आख्यान किया गया है।
कपि सेन संग संधारि निसिचर,रामु सीतहि आनि हैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि,नारदादि बरगनि हैं।।
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई।।
भव भेषज रघुनाथ जसु, सुनहिं जे नर अरू नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ, सिद्ध करहिं त्रिसिरारि।।
नीलोत्पल तन स्याम,काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम,जासु नाम अघ खग बधिक।।