शिव का वास्तविक अर्थ
शिव का वास्तविक अर्थ
प्राचीन से लेकर आज तक मानव इसलिए भटकता है क्योंकि उसने धर्मगुरु को माना है, कभी धर्म को जाना ही नहीं, और ना ही कोशिश करी, क्योंकि जन्म से ही सुनने को मिलता है कि धर्म और विश्वास समानांतर हैं, जब तक विश्वास है तभी तक धर्म साँस ले रहा। और इतिहास गवाह है कि धर्मगुरुओं ने अपने फ़ायदे अनुसार हमेशा ही मानव के विश्वास को ईश्वर के नाम का अंधविश्वास बनाकर खुद के ही बनाये धर्म का प्रचार करते रहे, और धर्म के मूल मायनों को ही मिटा दिया, उन्होंने हमारे मन में धार्मिक कट्टरपंथी का बीज बोकर, हमारे हँसते खेलते एकजुट समाज को टुकड़ों में बांट दिया। आये दिन हम उन पाखंडियों के बनाए धर्म के लिए लड़ते रहे और उनका धर्म मजबूत होता गया। हद्द तो तब हो गयी जब अंधविश्वास के अंधकार में उन्होंने खुद को ही भगवान तक कह दिया और हम महज़ उनका पुतला बनकर उनका पुजा करते रह गए।
और कब तक यूं पुतला बनकर भटकते रहोगे?
ध्यान करो, और इतना करो कि खुद के अंदर के शिव को तुम पहचान पाओ।
जिनके पीछे भूत अर्थात तुम्हारा भूत काल, और जिनके मस्तिष्क से निकलकर आगे बहती पवित्र गंगा, अर्थात तुम्हारे अंतरात्मा की पवित्र ऊर्जा, जिसे गंगा की भांति अग्रसर अपने भविष्य का मार्गदर्शन करने दो। तुम ही शिव हो, अर्थात तुम ही आज हो। अपने भूत और भविष्य को पहचानो और वर्तमान को तुम्हारे कर्म की जितनी जरूरत है, उसे शिव की तरह बिना पक्षपात किये पूरी शिद्दत से पूर्ण करो।
और अगर कर्म के रास्ते कोई भी धार्मिक, सामाजिक या क्षेत्रीय कर्मकांड आये तो उसके विनाशक भी तुम खुद बनो, क्यूंकि तुम कर्मयोगी हो, तुम्हारा राह सही के लिए है, इसलिए तुम सत्य हो, और सत्य ही तो शिव है।
शिव इसलिए नहीं कि मैं एक हिंदु हूँ, या हिन्दुत्व को मानता हूँ, क्योंकि हिन्दुत्व भी तो उन्हीं धर्मगुरुओं की देन है।
मैं सनातन को मानता हूँ, अर्थात जिसका अंत न हो यानी शिव। जिनका ज़िक्र इतिहास में तब से है जब से मानव का वज़ूद है, मतलब शिव और कुछ नहीं बल्कि सदा से चलती आ रही एक सोच है, जो सत्य है, इसलिए हर सच्चे कर्मयोगी में शिव है।
ॐ नमः शिवाय । ।