शीतल, वापिस नहीं आई ..

शीतल, वापिस नहीं आई ..

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सुबह जिनालय दर्शन को गया फिर घर वापिस आया था। मैंने पहले पापा, मम्मी फिर मोबाइल पर बहन को अपना निश्चय बताते हुए, साथ, शीतल के घर चलने कहा था।

महीने भर से हमारे बीच रहे अलगाव के कारण, मेरे से ज्यादा ग्लानि और शर्मिन्दगीं उनको थी। इससे वे साथ चलने को कतरा रहे थे।

उनकी हिचक देख मैं अकेला शीतल के घर के लिए बाइक पर निकला हूँ।

मैं रास्ते भर एब्सेंट माइंड बाइक चलाते आया हूँ। मेरे दिमाग में यह आशंका चलती रही है कि ससुराल वाले और शीतल मेरे साथ जैसा उचित है, कहीं वैसा दुर्व्यवहार न करें।

शीतल के घर की कॉल बेल पर अँगुली रखते हुए मेरे हृदय की धड़कन तीव्र हो गईं हैं। 

दरवाजा शीतल के पापा ने खोला है, मुझे देख वे चकित हुए हैं। उन्होंने, अंदर आने की जगह करते हुए मुझे कहा है- आओ, दामाद जी!

उनके चेहरे पर मेरे आशा के विपरीत शांत भाव दर्शित हैं। मै, झुककर उनके चरण स्पर्श करता हूँ, औपचरिकता में कहता हूँ, पापा, (यही संबोधन पहले से करता आया हूँ) कैसे हैं आप?

उन्होंने क्या उत्तर दिया अनसुना करता हूँ, अंदर आते ही मेरी दृष्टि, चटाई पर शीतल बैठी शीतल पर पड़ती है, मुझे घर आया देख उसके मुख पर अचरज के भाव आते हैं, वह सिर हिला कर अभिवादन करती है, फिर मेरी तरफ से उदासीन अपने काम में लगती है।

वह हाथ मशीन से कपड़े पीको कर रही है, साथ ही दीप को फीड़िंग भी कराती जा रही है।

मुझे शीतल और दीप पर प्यार हो आया है। अगर, पापा नहीं होते तो दोनों को सीने से लगा लेता। अपने को रोकता हूँ। उसका अभिवादन करना, मुझे अच्छा लगता है मगर मुझसे उदासीन भँगिमा, अखरती है।  

आज मैं क्षमा याचक भाव लिए यहाँ आया हूँ। पापा एवं शीतल का रवैया, मेरे किये की तुलना में अत्यंत विनम्र कहा जायेगा।

मैं, छोटे कमरे में रखे सोफे की एक कुर्सी पर बैठता हूँ। बाजू में पापा बैठते हैं। यहाँ की आहट मिलने पर अंदर से मम्मी आती हैं। मुझे देख कुछ झल्लाई मुखमुद्रा दिखती है। वे सामने बैठती हैं। मैं उठकर उनके चरण छूता हूँ। वे, आदत अनुसार - खुश रहो कहती हैं। मैं

वापिस बैठता हूँ। 

अब तक का सिलसिला आशा से अच्छा रहा है। मुझे लग रहा है, ऐसे में मैं सहज अपनी क्षमा याचना उनके समक्ष रख सकूँगा। 

मैं हाथ जोड़ कहता हूँ, वैसे मेरा किया क्षम्य नहीं है, लेकिन कृपया मुझे क्षमा कीजिये। मैं शीतल से मिला संबंध-विच्छेद का नोटिस, साइन नहीं करूँगा। (फिर, मै पॉज लेकर उनकी प्रतिक्रिया देखता हूँ)

मम्मी एवं पापा के चेहरे पर तो राहत के भाव दिखते हैं। मगर शीतल अपने काम में लगी हुई उदासीन ही दिखती है। वह अपनी गोदी में दीप का मुहँ दूसरी तरफ करती दिखाई पड़ती है।

पापा कहते हैं - बेटा, अपनी हैसियत से बढ़कर विवाह पर खर्च, उसके यूँ टूटने के लिए नहीं किया था। मगर तुमने समझदारी नहीं दिखाई है, मेरी शीतल को मर्माहत एवं हमें निराश किया है।

मैं हाथ जोड़ कहता हूँ - अपनी अक्षम्य भूल मैं मानता हूँ, मेरा विश्वास कीजिये शीतल को मैं एवं मेरा परिवार आगे प्रेम से रखेंगे। 

तब मम्मी पहली बार शिकायती स्वर में बोलती हैं - बेटा, तुमने सोचा होता जिसने तुम्हारे घर को अपनी दुनिया मानी थी, उससे निकाले जाने पर वह किधर जायेगी! क्या होगा, उसकी गोद में आई नवजात बच्ची का! 

मैं पूरी विनम्रता से कहता हूँ - शीतल मेरे अपराध का जैसा चाहे बदला ले ले, मुझ पर हाथ उठा ले, मुझे अपशब्द कह डाले, मगर संबंध तोड़ने को न कहे। मेरे इन शब्द से शीतल की आँखों में अश्रु झिलमिलाये दिखते हैं। जिन्हें वह छिपाने की कोशिश करती है। शायद उसे उस रात की बातें याद आईं हैं। मगर प्रकट में वह चुप ही है।  

पापा कहते हैं-

"बेटा, अपशब्द या मारपीट हमारे संस्कार नहीं हैं। पति तो कई अपनी पत्नी को घर से निकालते रहे हैं मगर पिता कोई अपनी बेटी को घर से निकालता नहीं है। तुमने, पत्नी को तो निकाला ही है, अपनी दुधमुँहीं बेटी दीप को भी निकाला है, तुमने, यह निकृष्ट परंपरा, समाज को देने का अभूतपूर्व पाप किया है।"

हम इतना ही कहेंगे आगे का निर्णय शीतल की जो ख़ुशी हो, उस अनुसार शीतल ही करेगी।

तुम और शीतल ही बात कर लो। कहते हुए वे और मम्मी भीतर चले जाते हैं।

पापा के शब्द शर्मसार करने वाले पाप का बोध मुझे कराते हैं। तब मैं, मिमियाता सा शीतल के तरफ मुखातिब हो कहता हूँ- शीतल, मुझे क्षमा कर क्या एक अवसर, भूल सुधार का दे सकोगी?  

शीतल कहती है, आपकी क्षमा याचना मैंने सुन ली। क्षमा भी मैं करती हूँ। आज जब हम बात कर रहे हैं यह घर मेरा है।" तुम्हारे घर को, मैंने अपना मान कर तीन वर्ष पूर्व उसमें जीवन आशाओं के साथ प्रवेश किया था। तुमने अपने व्यवहार से झुठला दिया कि वह घर मेरा है।"

आज अपने घर में, सिर्फ मैं कहूँगी उसे सिर्फ सुनिए, कुछ तर्क अब नहीं कीजिये।

मैं उसके सख्त शब्दों से असुविधा अनुभव कर रहा था। मगर सुनना मेरी लाचारी थी, न्यायसंगत भी यही था। शीतल ने फिर आगे कहना आरंभ किया। 

मेरा नोटिस तुम्हें स्वतंत्र कर देने के लिए है। तुम परस्पर सहमति से बंधन-मुक्त होकर, जिसके साथ चाहो अपनी नई दुनिया फिर बसा सको इसलिए। जहाँ तक मेरा सवाल है, तुमने जिस कटु यथार्थ के दर्शन मुझे कराये हैं, उसे देख मैं कोई और विवाह करने की अब नहीं सोचती हूँ।

"तुमने मेरे स्वाभिमान को ललकारा है। अब मैं इस योग्य बनने के लिए दृढ संकल्पित हूँ कि आर्थिक रूप से मैं किसी पर बोझ न रहूँ। मैं दीप का ऐसा वह लालन पालन करुँगी कि वह नारी को मिलती चुनौतियों के समक्ष कभी टूट न जाए"  

तुम अपने ग्लानिबोध में अगर मुझे ले जाने को उत्सुक हो तो आज तुम निराश होगे। मैं, वापिस नहीं चलूँगी मगर -तुम सहमति से विच्छेद नहीं चाहते और फिर हमें साथ रखना चाहते हो, तो इसका मैं स्वागत करती हूँ। "मैं, तुम्हें एक वर्ष का समय देती हूँ। मुझसे बिना मिले, बिना बात किये भी अगर तब भी आप अपने इस निर्णय पर बने रहते हो तो मैं वापिस आऊँगी। इसके पूर्व आर्थिक और मानसिक रूप से स्वयं को इतना योग्य बनाऊँगी कि तुम मुझ पर गृह हिंसा की आगे साहस न कर सको।  "

उसके ठंडे लहजे ने मुझे कुछ कह सकने का कोई मौका नहीं दिया था।

मम्मी के लाये जलपान ग्रहण कर मैं अकेला मायूस लौटा था। शायद नैसर्गिक न्याय भी यही था, मुझे, इसे आशावान रहकर स्वीकार्य करना ही विकल्प था।


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