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रफ्तार

रफ्तार

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वक़्त अपनी रफ्तार से चल रहा था, फिर भी लग रहा था कुछ भी नहीं बदल रहा। पिछले कुछ दिनों से सब कुछ वही। वैसा ही है, वही वार्ड, मरीज़, डॉक्टर, अहाते में बैठे लोग...

एक सप्ताह से वो अस्पताल के आई. सी. यू. वार्ड के बेड पर अचेत पड़ा था। आठ-दस दस घंटे से भी अधिक समय चले आपरेशन में, उसके सिर, आँख, कनपटी, कान, जीभ, दोनों हाथ और पैर पर कई टाँके लगाए गए थे। लगभग आधा बदन पट्टियों से ढका था। कुछ घावों से रह- रहकर खून रिसता था।

जहाँ एक ओर इंजेक्शन और ग्लूकोज की बोतलों द्वारा कई तरह की दवाइयाँ अंदर पहुँचाई जा रही थीं वहीं दूसरी ओर नली द्वारा खून चढ़ाया जा रहा था। मूत्र त्याग के लिए कैथेटर लगा था। दिल की धड़कनें, साँसे सब कुछ मानिटर किया जा रहा था। वेंटीलेटर पर चलती उधार की साँसों से कभी- कभी थोड़ा सा हाथ या सिर हिलने जैसा एहसास होता।

तीन बहनों का इकलौता भाई था। माता-पिता, बहनों, रिश्तेदारों के आँसू थमते ही ना थे। रो-रो कर आँखे सूज गई थीं। दुआओं में उठे हाथ और अधिक दुआएँ करने लगे थे,

'हे भगवान, किसी तरह इसे बचा लेे, बस ये ठीक हो जाए....!'

तरह- तरह की मन्नतें माँगी जा रही थीं। कोई तावीज ला कर सिरहाने रख जाता...

डॉक्टरों को उसके बचने की उम्मीद ना के बराबर थी। बच भी गया तो कौन जाने उम्र भर बिस्तर से ही लगा रहे। पर बिस्तर पर पड़े लोगों से पूछो, इस प्रकार कौन जीना चाहता है ? कितनों के माता-पिता ऐसी दशा में सेवा कर पाते हैं..?

बताते हैं, तेज़ गति से आ रहे ट्रक और मोटर साइकिल की टक्कर से हुए हादसे में युवक का सिर फट गया था, आँख, कान, जीभ, जबड़ा बहुत बुरी तरह से क्षतिग्रस्त होने से घटनास्थल पर ही काफी खून बह गया था।

यह कैसी रफ्तार थी जिसने जीवन की रफ्तार को ही थाम सा लिया था...


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