बोझ

बोझ

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श्याम बाबू सुबह की सैर को निकले तो उनकी सहचरी पार्वती उनसे दो कदम आगे निकल गईं।

श्याम बाबू आवाज़ लगाते हुए बोले, "सुनो, तुम भाग क्यों रही हो ? मेरे साथ- साथ चलो...."

"भाग कहाँ रही हूँ ? तुम्हारे साथ ही हूँ...... सारी उम्र तो तुम्हारे साथ ही चली हूँ........ और फिर इतना फासला तो जरूरी है। वरना तुम फिर लाठी के साथ मेरा सहारा भी......।"

"अरी भागवान, क्या हो गया जो एक हाथ तुम्हारे कंधे पर रख लूँगा तो....?"

"नहीं, बिल्कुल नहीं....... याद नहीं रवि के विदेश जा कर बस जाने के बाद हम दोनों ने मिलकर क्या निर्णय लिया था...?"

"सब याद है मुझे...... यही ना कि वह हमें भूल गया है तो हम भी उससे किसी तरह की कोई मदद नहीं लेंगे। अपना बोझ खुद उठाएंगे.....।"

कुछ रुककर श्याम बाबू फिर बोले, "हाँ, तो कहाँ ली हमने उससे मदद..? मेरे पैर के ऑपरेशन के वक़्त भी हमारी मेडिक्लेम पॉलिसी काम आई। पर मैं कोई बोझ थोड़ी ना हूँ..."

"हाँ जानती हूँ, इसीलिए कह रही हूँ कि जैसे मैं चल रही हूँ आप भी बिना मेरे सहारे के चलना सीखो। फिर 15 दिन में लाठी के बिना चलने लगोगे।"

"सही कहा रही हो, प्यार अपनी जगह और ठीक होने के लिए डॉक्टर की सलाह अपनी जगह..."


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