कहो कैसी रही...

कहो कैसी रही...

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पढ़ाई पूर्ण होने के बाद फरहा की दूसरे शहर में नौकरी लगी थी। दस दिन बाद ड्यूटी ज्वाइन करना थी। पैकिंग के दौरान अपने कमरे से फालतू सामान, किताबों कपड़ों की भी छंटनी कर रही थी। अचानक उसकी नजर पुरानी किताबों में दबे एक पुराने पर्स पर पड़ी जिसे खोलने पर उसमें से एक तह लगा हुआ कागज निकला। उसे देखकर उसे विद्यालय के दिन याद आ गए...

फरहा, तबस्सुम और राबिया तीनों पक्की सहेलियाँ एक ही मोहल्ले में रहती थीं और एक ही विद्यालय में पढ़ती थीं। तीनों की आयु में कोई एक डेढ़ माह का ही अंतर था। शरीर, कद काठी से एक जैसी ही दिखती थीं। तीनों का खेलना, विद्यालय, बाज़ार, मेले हर जगह जाना-आना साथ ही होता था। बस शक्ल सूरत से कुछ अलग थी वरना पीछे से देखकर कोई उन्हें पहचान नहीं सकता था। तीनों की एक आदत खराब थी कि वे आपस में तो बहुत मिल जुलकर रहतीं पर कक्षा के बाकी सभी विद्यार्थियों और आस-पास वाले दूसरे बच्चों से हमेशा झगड़ती रहतीं।

एक रोज़ तीनों विद्यालय में गोल दायरा सा बनाकर, साथ बैठी खाना खा रही थीं कि अचानक कहीं से एक कागज का मुड़ा-तुडा सा पुर्जा आकर बीचों बीच गिरा। तीनों को अपने आगे पीछे देखने से कुछ समझ ना आया कि ये किसने फेंका। शायद फेंकने वाला जा चुका था।

तीनों ने सोचा क्या पता ये किसका किसके लिए खत है। इसे कहीं एकांत में खोला जाए तो ही बेहतर...

राबिया के घर उसकी अम्मी और उसका भाई रहीम उस पर नज़र रखते और उसे टोकते रहते थे कि कहीं कोई ऊँच नीच ना हो जाए। तबस्सुम के अब्बू बहुत गुस्से वाले थे और उसके घर भी उन्हें एकांत मिलने की कोई गुंजाइश ना थी। पर फरहा का घर बड़ा था और उसका एक अलग कमरा भी था। यही सोच कर उन्होंने खत फरहा के पास रखवाना उचित समझा।

शाम को नियत समय पर तीनों फरहा के घर एकत्रित हुईं। उसके कमरे में, दरवाज़ा बंद करके उस खत को पढ़ने लगीं। लिखा था...

"तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। पर जब तुम गुस्सा करती हो तो उससे तुम्हारा चेहरा अच्छा नहीं लगता। बस तुम हमेशा ऐसे ही मुस्कुराती रहा करो।"

तुम्हारा अपना

तीन चार बार पढ़ने पर भी तीनों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये किसने किसके लिए लिखा था। राबिया को लग रहा था कि उसकी कक्षा में पढ़ने वाला सलीम कुछ दिन से उसे अजीब नज़रों से देखता है शायद उसने...

तबस्सुम को लग रहा था शायद 12वीं कक्षा के मोहसिन ने उसके लिए लिखा हो, क्योंकि वो आते- जाते उनकी कक्षा के सामने रुककर भीतर झाँकता है।

वहीं फरहा को लग रहा था, शायद ये शादाब ने उसके लिए लिखा होगा। शादाब राबिया के भाई रहीम का दोस्त है और दो तीन बार कक्षा में कापियाँ बाँटते वक़्त उसे बड़ी अजीब सी नज़रों से देख रहा था। एक बार उसका हाथ भी फरहा को छू गया था।

तीनों सहेलियों ने उस कागज के पुर्जे को तीन चार- बार पढ़ा, पर कुछ समझ ना पाईं। तीनों बिना किसी से कुछ कहे मन ही मन मुस्कुरा रही थी। खैर तीनों ने उसे फरहा के पास ही छुपाकर रखना ठीक समझा।

अगले दिन से तीनों बहुत खुशी- खुशी विद्यालय गई, सबसे मुस्कुरा कर मिलने लगी। सब लड़ाई- झगड़ा करना भूल गईं और सबसे मिलकर रहने लगीं। कुछ ही दिनों में तीनों का स्वभाव बहुत बदल गया था।

बहुत दिनों बाद राबिया के भाई रहीम ने एक रोज़ तीनों पर फब्ती कसी, "क्या बात है आजकल तुम तीनों बहुत मुस्कुराती हो ?"

"आपसे मतलब" तीनों ने एक साथ पूछा

यूँ ही दिन बीत रहे थे। कुछ समझ ना आने पर तीनों कुछ समय बाद उस खत को सब भूल गई थीं। राबिया और तबस्सुम का निकाह होने वाला था, पर फरहा अपने अम्मी अब्बू की इजाजत से आगे पढ़ना चाहती थी।

राबिया के निकाह के दिन फरहा और तबस्सुम उससे गले मिलकर रो रही थी। तभी अचानक किसी ने कहा "तुम मुझे बहुत अच्छी लगती हो। पर जब तुम रोती हो तो उससे तुम्हारा चेहरा अच्छा नहीं लगता। बस तुम हमेशा ऐसे ही मुस्कुराती रहा करो।"

तीनों ने एक साथ चौंक कर पीछे मुड़कर देखा, चौखट पर रहीम खड़ा मुस्कुरा रहा था। पूछने लगा, "कहो कैसी रही ?"


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