रज पर्व
रज पर्व


भारत के उड़ीसा प्रांत में रज पर्व 3 दिन मनाया जाता है। यह पर्व रज पर्व या मिथुन संक्रांति भी कहलाता है।
ऐसी मान्यता है कि मां धरा अथवा विष्णु की धर्मपत्नी इन तीन दिनों रजस्वला होती हैं। चौथा दिन वसुमति अथवा भूदेवी स्नान कहलाता है। रजस्वला से रज शब्द की उत्पत्ति हुई। इसे कृषि त्योहार के रूप में भी मनाया जाता है। उस दिन भूदेवी की पूजा होती है जो भगवान जगन्नाथ की पत्नी हैं। रजत निर्मित भूदेवी की प्रतिमा आज भी भगवान जगन्नाथ के साथ पुरी के मंदिर में स्थापित है।
यह जून के लगभग दूसरे सप्ताह में मनाया जाने वाला पर्व है। प्रथम दिन पहली रज, दूसरा दिन मिथुन सक्रांति और तीसरा दिन भू अथवा बासी रज और चौथा और आखिरी दिन वसुमति स्नान कहलाता है।
इस पर्व में वही स्त्रियां भाग ले सकती हैं, जो मासिक धर्म से गुजर रही होती हैं। वसुमति स्नान के दिन महिलाएं चक्की के पत्थर को हल्दी से स्नान कराकर सिंदूर और फूलों से सजाती हैं। सभी तरह के मौसमी फल धरती मां को अर्पित किए जाते हैं। प्रथम दिवस से पहले का दिन सज बज कहलाता है। इस दिन घर, रसोई और चक्की के पत्थर को साफ किया जाता है मसाले पीसे जाते हैं। पूरे 3 दिन महिलाएं और लड़कियाँ नए कपड़े पहनती हैं, पैरों में आलता लगाती हैं और आभूषण धारण करती हैं। तीनों दिन कुंवारी लड़कियाँ बिना पका भोजन नहीं खातीं ,नंगे पांव नहीं चलतीं, नमक नहीं खातीं, स्नान नहीं करतीं और प्रतिज्ञा करती हैं कि वे भविष्य में तंदुरुस्त बच्चों की मां बनेंगीं। बरगद के पेड़ों पर झूले डाल दिए जाते हैं, जिन पर वे झूलती हैं और लोक गीत गाती हैं। वैसे तो यह पर्व संपूर्ण प्रदेश में मनाया जाता है किंतु कटक ,पुरी और बालासोर इसे विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है।
इन 3 दिनों कृषि संबंधित कोई कार्य नहीं किया जाता। जिस प्रकार रजस्वला होने के दौरान हिंदू घरों में स्त्रियों को किसी वस्तु को छूने नहीं दिया जाता और उन्हें पूरी तरह आराम करने दिया जाता है, ठीक उसी तरह धरती मां को भी पूरे 3 दिन आराम करने दिया जाता है। यह पर्व कुंवारी कन्याओं के लिए बहुत महत्व का है। वे रजस्वला स्त्री पर लागू होने वाले सभी प्रतिबंधों का कड़ाई से पालन करती हैं।
जमीन पर एक तरह की रंगोली बनाई जाती है जिसे झोट्टी कहते हैं। चावल के आटे को पानी में भिगो देते हैं, फिर उस सफ़ेद पानी से ज़मीन पझोट्टी बनाते हैं। महिलाएं पहले दिन भोर में उठकर अपने बाल बनाती हैं , शरीर पर हल्दी और तेल लगाती हैं और नदी में स्नान करती हैं। अगले 2 दिन नहाने पर प्रतिबंध होता है। वे नंगे पांव नहीं चलतीं , धरती को नुकसान नहीं पहुंचातीं, मसाला नहीं पिसतीं, किसी चीज़ को बीच से दो फाड़ नहीं करतीं और खाना नहीं पकातीं, अपने सबसे अच्छे कपड़ों और आभूषणों में रहती हैं, मित्रों और संबंधियों के घरों में मिष्ठान खाती हैं, अच्छा समय बिताती हैं, झूला झूलती हैं और गीत गाती हैं। मिष्ठान में पीठा, (चावल के आटे से बनी हर मीठी, नमकीन डिश को पीठा कहते हैं)पोड पीठा, चकुली पीठा, मंडा पीठा, आसिरा पीठा बनता है।
झूले भी कई तरह के होते हैं जैसे राम डोली, चरकी डोली, पाटाडोली और डांडी डोली। उन लोकगीतों के रचयिता कौन हैं यह तो पता नहीं, किंतु लोकगीत प्रेम ,आदर्श, सामाजिक व्यवहार , अनुराग, स्नेह के बारे में होते हैं। इन दिनों में नवयुवक भी अच्छे भोजन, खेल और तमाशों का आनंद लेते हैं क्योंकि बारिश आने के बाद तो उन्हें 4 महीनों तक कीचड़- मिट्टी में फसल की चिंता करनी होगी।