Preeti Agrawal

Inspirational

4  

Preeti Agrawal

Inspirational

रिश्तों की मिठास

रिश्तों की मिठास

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"ऐ छोरी कहां घुसी चली आ रही है? चल भाग यहां से"- बिखरे बाल और मिट्टी में सने हुए हाथ, मुंह और कपड़ों संग 6 साल की रीना और 4 साल की उसकी छोटी बहन ने जैसे ही गिरधारीलाल जी के हवेलीनुमा घर की सीढ़ी पर कदम रखा, उनकी तेज कड़क आवाज ने जैसे उनके पैरों में जंजीर बांध दी। छोटी बहन ने सहमकर रीना का हाथ और जोर से पकड़ लिया। बड़ी लड़की यानी रीना ने फिर अपना आत्मविश्वास इकट्ठा करते हुए आगे कदम बढ़ाया।

"सुनाई नहीं दे रहा क्या? चल भाग यहां से"- गिरधारी लालजी फिर गरजे।

"हम क्यों जाएं? ये हमारा घर है"- रीना ने बहुत आत्मविश्वास से कहा।

"तेरा घर?"- गिरधारीलाल जी ने बहुत ही आश्चर्य और तिरस्कार से कहा।

उसने गिरधारीलाल जी की बात को अनसुना कर दिया और फिर आगे कदम बढ़ाए।

"बहुत ढीठ लड़की है तू तो। लगता है ऐसे नहीं मानेगी"- गिरधारीलाल जी अपनी आराम कुर्सी से उठ खड़े हुए।

"मेरे दादाजी ने आपको ऐसे देख लिया न तो आपको डांटेंगे। उनका घर है ये"- रीना ने बहुत हिम्मत से कहा।

"तेरे दादाजी का? अरे पगला गई है क्या? ये घर तो मेरा है"- गिरधारीलाल जी ऊंची आवाज में गरजे। छोटी बहन और अधिक सहमकर रीना से चिपक गई। गिरधारीलाल जी की तेज आवाज सुनकर उनकी पत्नी बाहर दौड़ी चली आईं।

"अरे किसपर इतना नाराज हो रहे हो"- उनकी पत्नी ने पूछा।

"ये देखो इस छोरी को। है तो बित्ते भर की पर कैसी कैंची की तरह जबान चला रही है" - गिरधारीलाल जी बहुत गुस्से से बोले। आज तक उनसे इस लहजे में बात करने की किसी कि हिम्मत नहीं हुई थी और ये छोटी सी लड़की उनसे बहस किए जा रही थी।

"कौन हो तुम छोरियों क्या चाहिए"- उनकी पत्नी ने प्रेम से पूछा।

"दादी हमको अपने घर जाना है और देखो न ये हमको जाने ही नहीं दे रहे हैं"- रीना ने उल्टे गिरधारीलाल जी की शिकायत कर दी।

"दादी!"- उनकी पत्नी ने चौंककर देखा और हंसने लगी।

"अरे तो ये तुम दोनों हो। जाओ जाओ ऊपर जाओ"

"अच्छा दादी और आप इनको जरूर डांटना"- कहते हुए रीना अपनी बहन को लेकर ऊपर भाग गई।

"अरे रे रुको ! कहां भागी जा रही हो"- गिरधारीलाल जी आवाज लगाते रह गए। उन्होंने गुस्से से अपनी पत्नी की तरफ देखा।

"कौन हैं ये ? अपने घर में कैसे घुसे"

"आपने पहचाना नहीं ये अपने नए किरायेदार के बच्चे हैं"

"किरायेदार के बच्चे ? इतने धूल में सने हुए गंदे ?"

"कितनी छोटी और प्यारी बच्चियां हैं। मैने ही घर में शोर मचाने को मना किया था और कहीं खेलने को जगह नहीं है तो सामने सड़क पर ही खेल रही होंगी"

"मैने इसीलिए पहले ही मना किया था कि मुझे कोई किरायेदार नहीं रखना। पर तुम मानी ही नहीं। अब सहन करो रोज की ये मुसीबत"

रीना के पापा सतीश जी का ट्रान्सफर इस छोटे से कस्बे में हुआ था। अभी सरकारी मकान मिलने में देर थी और उन्हें तुरंत ऑफिस ज्वॉइन करना था। अब छोटे कस्बे में किराए से घर मिलना तो बहुत मुश्किल था ही। किसी ने उन्हें गिरधारीलाल जी का पता बताया। साथ में पहले से उनके कड़क स्वभाव के बारे में आगाह भी कर दिया था।

गिरधारी लाल जी लगभग 6 फीट की ऊंचाई वाले गौर वर्णी व्यक्ति थे। गांव नुमा कस्बे में उनकी हवेली थी और वो नगर सेठ थे। उनके रौबदार व्यक्तित्व से सब बहुत प्रभावित थे पर बहुत डरते भी थे। वो किसी से भी ज्यादा बात नहीं करते थे और दिनभर अपने हवेलीनुमा घर के बरामदे में आरामकुर्सी डालकर बैठे रहते थे। उनका व्यवसाय अब उनका इकलौता लड़का देखता था। 

उन्हें शोरगुल बिल्कुल भी पसंद नहीं था और रीना के घर में 5 बच्चों, मम्मी पापा और दादी को मिलाकर कुल आठ सदस्य थे। 

केवल डेढ़ महीने रहने की अनुमति और घर के किसी भी सदस्य से उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी ऐसा वचन औेर कई नियम कानून बताने के बाद बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने घर का ऊपरी हिस्सा उन्हें रहने के लिए दिया था और  केवल दो ही दिनों में आज धूल मिट्टी से सनी हुई रीना से उनकी अच्छी खासी बहस हो गई।

उनके माथे पर बल पड़ गए कि अब कैसे कटेंगे ये डेढ़ महीने? तभी रीना की मम्मी सरला जी उसको पकड़कर उनके सामने ले अाई और पहले उनके पैर छुए।

"सेठजी बच्ची है। माफ़ कर दीजिए। आइंदा ऐसी गलती नहीं करेगी" 

रीना ने भी अपने नन्हे हाथों से दोनों कान पकड़कर माफी मांग ली।

" दादाजी आपने पहले क्यों नहीं बताया कि आप ही दादाजी हो। भूल हो गई माफ़ कर दो"

गिरधारीलाल जी का कठोर हृदय भी पिघल गया और वो भी मुस्कुरा दिए। दिन बीतते गए और बच्चों और गिरधारीलाल जी के बीच दोस्ती पक्की होती गई। अब वो बच्चों के दादाजी और "सेठजी" से सरलाजी और सतीशजी के चाचाजी हो गए थे। अगर सरलाजी बच्चों को डांटती तो वो नीचे से खुद ही उनको आवाज लगाकर कहते कि बच्चे है मस्ती तो करेंगे। कभी मम्मी ने खाने में क्या बनाया मुझे भी खिलाओ से लेकर कहानी सुनाने तक दिनभर बच्चों के साथ वो भी बच्चे बन जाते। 

सरला जी भी जब भी कोई पकवान बनाती उन तीनों के लिए भी नीचे से आती। उनका चूल्हा कब एक हो गया पता ही नहीं चला।

"चाचाजी अब मुझे  सरकारी मकान मिल गया है। एक दो दिन में हम चले जाएंगे। आपने अपने घर में इतने महीनों तक हमें रहने दिया, आपका ये अहसान हम जिंदगी भर नहीं भूल पाएंगे"- सतीश जी के मुंह से ये बात सुनकर गिरधारीलाल जी उदास हो गए।

"कहीं नहीं जाओगे अपना घर छोड़कर"- गिरधारीलाल जी बोले।

"पर चाचाजी आपने हमें बस डेढ़ महीने के लिए घर दिया था और वैसे भी छह महीने हो गए। बच्चे भी दिनभर बहुत शोर मचाकर आपको परेशान करते रहते हैं"

"अपने पोते पोतियों से कोई परेशान होता है क्या? तुझे जाना है तो जा पर बहू और बच्चे यहीं रहेंगे"- गिरधारीलाल जी ने अपना फैसला सुना दिया। बहुत सालों बाद उनके सूखे कठोर मन में बच्चों के प्यार ने प्रेम के बीज बो दिए थे और अब वो इस प्यारी सी बगिया को अपने से दूर नहीं करना चाहते थे। 

"चाचाजी भले ही मना कर रहे हैं पर हम कब तक इस तरह उनके घर में बिना किराया दिए रहेंगे और बच्चों से उनको परेशानी तो होती ही होगी"- सतीश जी ने अपनी उलझन सरला जी से बताई।

"आप सही कह रहे हैं। मैं कल चाचीजी से बात करती हूं"

अगले दिन सरलाजी ने जैसे ही दादीजी से अपनी बात कहनी शुरू की कि अचानक दादाजी बीच में बोल पड़े - "ये क्या कह रही हो बहुरानी! लगता है अभी तक तुम पहले दिन की बात दिल से लगाई हुई हो"

"नहीं नहीं चाचाजी पर आप किराया भी नहीं ले रहे हैं और सतीश जी का ट्रांसफर हो जाने पर हमें कभी तो जाना ही पड़ेगा न"

"हां तब का तब देखा जाएगा। पर जब तक यहां हो अब इस घर से जाने का नाम भी मत लेना। रही बात किराए की तो तू वो रसमलाई, दाल बाटी और तरह तरह के पकवान बनाकर खिला दिया कर। तेरी चाची तो मुझे रूखा सूखा देती है खाने को"

"वो तो आप जब बोलो तब चाचाजी"- सरला जी ने हंसते हुए कहा"

"वो तो तुम्हारे कारण। मुझे भी ऐसा ही खाना पड़ता है"- दादाजी ने झूठी नाराजगी दिखाई।

" फिर तुझे अपनी देवरानी भी तो लानी है। तू लड़की देखने चलना बहू। तेरे जैसी ही गुणवान बहू ढूंढ़ कर लाएंगे प्रवीण के लिए भी" - दादीजी ने बहुत प्रेम से कहा।

इस तरह सतीश जी का परिवार गिरधारीलाल जी के घर में ही रुक गया। समय के साथ उनके आपसी रिश्ते और मजबूत होते चले गए। बरसों से लगभग सुनसान सी पड़ी उनकी हवेली में अब बच्चों की खिलखिलाहट और शरारतें गूंजने लगी थी। दादाजी जी अब दिनभर बच्चों के साथ खेलते। उनका स्वभाव बिल्कुल बदल गया था और अब सड़क पर आने जाने वाले लोगों से उनके हाल चाल भी पूछते। सब उनमें आए इस बदलाव से बहुत खुश थे।  स्कूल जाने पर बरामदे में उसी आरामकुरसी पर बैठकर उनके आने का बेसब्री से इंतजार करते। वहीं बरामदे में पानी से भरी बाल्टी रखते और खुद ही बच्चों के अच्छे से हाथ पैर धुलवाते। कभी कभी बच्चे जानबूझकर अपने गंदे पैरो से ही उनकी गोदी में चढ़ जाते फिर भी वो हंसते रहते। तेज तर्रार रीना को वो प्यार से हरी मिर्ची कहकर बुलाते थे। दादीजी भी मठरी, लड्डू, चूड़ा जैसी खाने पीने की तरह तरह की चीजें अब बच्चों के लिए बनाने लगीं थी। दादाजी खुद खाने पीने के बहुत शौकीन थे पर डॉक्टर की सलाह के कारण दादीजी उन्हें बहुत सादा और उबला हुए खाना देती और मीठा तो एकदम वर्जित था उनके लिए। पर बच्चे अपने गंदे संदे हाथों से ही ऊपर से उनके लिए मिठाई छुपाकर ले आते और वो बड़े चाव से खाते। दादीजी ये सब देखती पर दादा जी के चेहरे का आनंद देखकर वो भी कुछ नहीं कहती थी। बच्चों के आने से इतने बरसों का गिरधारीलाल जी के रौब और गंभीरता का आवरण हट गया था। बरसों पहले सूख चुका उनके प्रेम का पौधा फिर नव पल्लवित हो चला था। बच्चों के साथ खेलते हुए मानों वो अपना बचपन पुनः जीने लगे थे। वो सतीश जी को अपना बड़ा बेटा मानने लगे थे। समय - समय पर अपने जीवन भर की पूंजी समान अनुभव वो सतीश जी के साथ बांटते और उन्हें सही सलाह दिया करते थे।

गर्मी और दीवाली की छुट्टियों में जब सतीश जी अपने पैतृक गांव चले जाते तब दादा जी से समय काटे नहीं कटता था। उनका बस चलता तो वो उन्हें कभी जाने ही नहीं देते। अब फिर दीवाली की छुट्टियां आ गईं।

"अच्छा चाचाजी - चाचीजी अपना ध्यान रखिएगा। हम एक हफ्ते में आ जाएंगे"- कहते  हुए सतीश जी ने दीवाली की छुट्टियों में अपने पैतृक गांव जाने के लिए उनसे विदा लेनी चाही।

"मत जाओ बेटा। इस बार बच्चों के साथ दीवाली मनाने की बहुत इच्छा है और फिर प्रवीण के लिए लड़की देखने भी तो चलना है न"- दादाजी ने उन्हें रोकने की कोशिश की।

"बस एक हफ्ते की तो बात है दादाजी। एक, दो, तीन, चार, पांच, छह बस इत्ते ही दिन दादाजी"- रीना ने अपनी उंगलियों पर उन्हें दिन गिनाने शुरू कर दिए।

"बड़ी तेज है हरी मिर्ची तू तो। हां गिनती आती है मेरे को भी। चार दिन तो आने जाने में ही लग जाते हैं। अच्छा जल्दी आना" - हंसते हुए गिरधारीलाल जी बोले।

"हां और हमारे लिए ढेर सारे पटाखे लेकर रखना"

"हां भई और मिठाइयां भी। ठीक है"

दादाजी की बात सुनकर बच्चे तो बहुत खुश हो गए। 

"बहू बहुत लंबा सफर है तुम्हारा।  30-32 घंटे लग ही जाएंगे घर पहुंचते हुए। ये ले मैंने बच्चों के रास्ते में खाने के लिए मठरी, लड्डू, चूड़ा बनाया है, रख ले"- दादीजी ने एक थैली सरला को पकड़ा दी।

"और दादी वो संतरे की खट्टी मीठी गोलियां, उबले हुए बेर और आम पापड़ भी रखा है न" - रीना झट से बोल उठी।

" हां मेरी चटोरी वो सब भी रखा है। पर सबको बराबर देना अकेले मत खा जाना" - दादीजी हंसते हुए बोली।

"बहू तूने खाना तो अच्छे से रख ही लिया है न वैसे इसमें तेरी चाची ने बच्चों की मनपसंद नमकीन पूरी भी रख दी है। रास्ते का कुछ खिलाना मत" - दादाजी ने प्यार भरी हिदायतें दी।

सरला जी ने मुस्कुराकर हामी भरी।

"बहू ये रीना और छोटू ( रीना से एक साल बड़ा भाई) बहुत शरारती हैं। इनका ध्यान रखना। रेलगाड़ी से कहीं बीच में उतरने मत देना" 

जाते-जाते भी दादाजी और दादीजी की हिदायतें चलती ही रहीं। जब तक वो आंखों से ओझल नहीं हो गए दोनों हाथ हिलाते रहे।

जवाब में उनको हाथ हिलाते और विदा लेते हुए सतीश जी सोच रहे थे कि जरूर उन्होंने पिछले जन्म में बहुत पुण्य किए होंगे जो इतने प्यार करने वाले चाचाजी चाचीजी मिले। 

दो दिन बाद वो अपने घर पहुंचे पर पीछे पीछे दादाजी  का भेजा हुआ तार ( उस जमाने में पोस्ट ऑफिस से तार मतलब टेलीग्राम किए जाते थे) भी आ गया। उसमें उन्होंने लिखा था कि सतीश जी का ट्रांसफर हो गया है और उन्हें तुरंत ही दूसरे शहर ज्वॉइन करना पड़ेगा। सब बहुत दुखी हो गए। सबसे ज्यादा बच्चे क्योंकि अब उन्हें दादाजी दादीजी से दूर जाना पड़ेगा। ढाई साल उनके साथ कैसे बीत गए थे पता ही नहीं चला। 

सतीश जी ने तार मिलते ही दादाजी को ट्रूंककॉल लगाया ( तब एसटीडी भी नहीं हुआ करता था)। फोन पर ही दादाजी बच्चों की तरह फूट फूटकर रो पड़े। सतीश जी भी बहुत भावुक हो गए। पर अब एक महीने तक न आ पाने कि अपनी असमर्थता भी उन्हें बता दी।

दादाजी हर एक दो दिन में बच्चों को फोन लगा लेते थे। उन्होंने सतीश जी से वादा  ले लिया था कि जब सामान लेने आएंगे तो कम से कम रीना और छोटू को अपने साथ लाएंगे ताकि वो उन्हें जी भर के प्यार कर सकें और साथ में यह भी कह दिया था कि उनकी पूरी पैकिंग करके रखेंगे।

एक महीने बाद जैसे ही सतीश जी को छुट्टी मिली वो सरला जी और दोनों बच्चों को लेकर दादाजी के शहर की ओर रवाना हो गए। सरला जी ने दादाजी के लिए कोसा सिल्क का धोती - कुर्ता और दादीजी के लिए  बनारसी सिल्क की साड़ी, सुंदर सा सोने का एक सेट, ढेर सारी मिठाइयां वगैरह लिए थे। अब उनसे न जाने कब मुलाकात हो पाएगी यही खयाल उन्हें सता रहा था। उनके प्यार के आगे ये उपहार कुछ भी नहीं थे। 

सतीश जी ने दादाजी को अपने आने की सूचना पहले ही भेज दी थी। दोनों तरफ मिलने का बहुत उत्साह था। दादाजी ने कहा था वो स्टेशन लेने पहुंच जाएंगे। जैसे तैसे ट्रेन में दो दिन बीते और बहुप्रतीक्षित स्टेशन आ ही गया। शाम ढलने लगी थी। बच्चे तेजी से उतरे और इधर उधर दादाजी को खोजने लगे।

स्टेशन बहुत ही सुनसान दिख रहा था। शायद किसी और गाड़ी के आने का समय नहीं हुआ था। 

अपना सामान लेकर सतीश जी बाहर निकले पर कहीं भी उन्हें दादाजी दिखाई नहीं दिए। तभी एक रिक्शेवाला उनको देखकर दौड़कर आया और पूछा आप सतीश जी हो न।

सतीश जी के हामी भरते ही उसने उनका सामान उठा लिया और बोला भैया चलो सेठजी के घर से ही आपको लेने मुझे भेजा है। बच्चे एकदम खुश हो गए। रास्ते भर उनकी चटर पटर चलती रही कि दादाजी किसको पहले गोद में उठाएंगे। उसपर झगड़ा भी हो गया। सतीश जी ने रास्ते में शाम के भीड़ भाड़ वाला समय होने पैर भी  सब दुकानें बंद देखीं तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। रिक्शे वाले को पूछा भी पर उसने कोई जवाब नहीं दिया।

दूर से दादाजी की हवेली दिखने लगी थी। बच्चों की उत्सुकता और उत्तेजना बढ़ती चली जा रही थी। जैसे जैसे पास पहुंचने लगे सतीश जी और सरला जी की तो जैसे सांसे ही थमने लगीं। दादाजी के घर के सामने पूरा शहर इकट्ठा था। उन्हें किसी अनहोनी की आशंका हुई।

रिक्शा रुकते ही बच्चे दादाजी को पुकारते हुए अंदर की ओर भागे पर बरामदे में ही उनके कदम थम गए।

उनके प्यारे दादाजी अपनी अंतिम यात्रा पर जाने के लिए तैयार थे। उन्हें समझ में तो कुछ नहीं आया पर बच्चे उनसे लिपट गए ।

"दादाजी आप सो क्यों रहे हो? उठो देखो हम आ गए। मैं आपसे कट्टी हूं आपने बोला था स्टेशन आओगे लेने" रीना उनको उठाने की कोशिश करते हुए शिकायत करने लगी।

सतीश जी ने बहुत मुश्किल से अपने आपको संभाला। दादाजी के बेटे प्रवीण उनसे लिपटकर बहुत रोए। बोले "भैया! आपको लेने जाने के लिए बाबूजी सुबह से ही बहुत उत्साहित थे और तैयार भी ही गए थे पर अचानक ही उन्हें दिल का दौरा पड़ गया और उन्हें बचा नहीं पाए। हम बस आपके आने के ही प्रतीक्षा कर रहे थे"

दादीजी का भी बहुत बुरा हाल था। पर उन्होंने इस बहुत मुश्किल घड़ी में भी अपने आपको संभाल कर पहले सबको खाना खिलवाया - "30-32 घंटे की लंबी यात्रा से थक गए होंगे पहले कुछ खा पी लो फिर अपने चाचाजी को…." आगे की बात उनके रुदन में समा गई।

सतीश जी के दुख का तो कोई पारावार न रहा। उन्हें लगा कि शायद वो ही इसके जिम्मेदार हैं पर दादीजी ने उन्हें समझाया। 

दादाजी सतीश जी को अपना बड़ा बेटा मानते थे और यह उनका प्यार ही था कि अपने अंतिम समय में उन्हीं के कंधों पर अपनी अंतिम यात्रा की ओर चल पड़े।

सतीश जी अपने परिवार सहित दादीजी के पास सब विधि होने तक रुके। बाद में भी हर वार त्योहार पर उनसे मिलने जरूर जाते। दादाजी की इच्छा के अनुसार उनके बेटे प्रवीण के लिए लड़की देखने भी वो और  सरला जी साथ में गए।

दादाजी स्थूल शरीर से तो वहां नहीं थे पर सूक्ष्म रूप में सदा अपनी उसी हवेली में मौजूद रहे। आज इस घटना को बहुत साल हो गए। पर रीना के परिवार और दादाजी के परिवार में आज भी वैसे ही संबंध हैं जैसे तब थे। आज दादीजी बहुत बुजुर्ग हो गई है पर उनकी बुढ़ी आंखे सतीश जी के परिवार को देखकर वैसे ही चमक उठती हैं जैसे पहले होती थीं।

दोस्तों ये रीना यानि मेरे जीवन के वो सुनहरे ढाई साल थे जो मैंने कहानी के रूप में आपके साथ फिर से जी लिए।

दादाजी का वो प्यार भरा चेहरा, वो मुस्कुराती आंखे और कड़क आवाज आज भी मेरे जेहन में वैसी ही ताजा हैं जैसे कल की ही बात हो।

सच में कुछ रिश्ते भले ही खून के रिश्ते न हों पर भगवान हमें वो उपहार के तौर देते हैं। वो रिश्ते अपनी एक नई परिभाषा लिख जाते हैं - वो हैं दिलों के रिश्ते।


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