रहस्यमयी दुल्हन-5
रहस्यमयी दुल्हन-5


पिछले भाग में अब तक आपने पढ़ा- "चंद्रिका त्रिपाला को दीवार के बारे में बताते हुए उस ओर देखती हैं लेकिन वहाँ कोई चित्र नही होता। यह देखकर चंद्रिका की उलझन बढ़ जाती हैं। त्रिपाला के दीवार के बारे मे पूछने पर चंद्रिका उसकी बात टाल कर रसोई में जाने के लिये कहती हैं। दोनों के चले जाने के बाद दीवार पर चित्र बन जाता है और एक परछाई चंद्रिका का स्वागत करती हैं। दीवार के चित्र को लेकर सोच में डूबी हुई चंद्रिका को अपने नाम की पुकार सुनाई देती हैं जिसे सुनकर चंद्रिका सम्मोहित हो आगे बढ़ती है। एक औरत चंद्रिका को ज्वालामुखी गिरने से बचाती है। चंद्रिका उससे मदद मांगते हुए उसकी पहचान पूछती हैं। कोई जवाब न मिलने पर चंद्रिका उसका घूंघट हटाना चाहती लेकिन त्रिपाला के आने से वह रुक जाती हैं। जब वह त्रिपाला को उस औरत से मिलवाना चाहती हैं लेकिन उसे एहसास होता है कि वह अभी भी अपने कमरे के बाहर ही खड़ी थी। त्रिपाला से इस बारे मे बात करने के बाद जब चंद्रिका रसोई में जाने वाली थी तभी वह बेहोश हो जाती हैं और दर्शना देवी वहाँ आकर त्रिपाला से किसी जरूरी काम के बारे मे चर्चा करती हैं। अब आगे-
चंद्रिका अभी भी बेहोश थी। उसे कल रात से लेकर अब तक की घटनाओं के सपने आ रहे थे कि कैसे उसने इस घर मे अपना पहला कदम रखा था। कैसे उसे आठ दिन तक अपने कमरे में अकेले रहने के लिए कहा गया। कैसे उसने एक घूंघट वाली दुल्हन का पीछा किया था। कैसे उसे हवेली में होने का भ्रम हुआ और दर्शना देवी ने कैसे उसे त्रिपाला के साथ रहने के लिए कहा था। कैसे सुबह तैयार होते हुए एक परछाई दिखाई दी। कैसे अपने कमरे में उसने त्रिपाला को देखा। उन दोनों की बातचीत और फिर कमरे से निकल कर दीवार का वो चित्र दिखाई देना। फिर एक आवाज के साथ उसका चलते चले जाना और फिर ज्वालामुखी में गिरने से बचाने के लिए एक औरत का उसका हाथ पकड़ लेना और फिर उसका पीछे पलट कर देखना लेकिन यह क्या..... इस बार उसके चेहरे पर घूंघट नही था। चंद्रिका ने वो चेहरा देखा तो उसकी चीख निकल गई। वो चेहरा किसी और का नहीं बल्कि उसी का था।
वो चीख कर उठ बैठी। पसीने में तरबतर शरीर, बेकाबू हो चुकी धड़कने, तेज चलती हुई सांसे उसकी हालत बयां करने के लिए काफी थे। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उसने उस घूंघट के पीछे अपना ही चेहरा देखा था।
कुछ देर बाद जब उसकी हालत ठीक हुई तो उसने महसूस किया कि उसके सिर में भयंकर दर्द हो रहा था और आंखे भारी हो रही थी। उसने अपने आस पास देखा तो उसके पलंग के पास दर्शना देवी, त्रिपाला और शेखर खड़े हुए उसकी ओर ही देख रहे थे। चंद्रिका ने सब को देखते ही सिर पर पल्लू ढकने की कोशिश की लेकिन अचानक ही उसकी आंखे बंद होने लगती हैं और वो पीछे की ओर गिरने लगती हैं कि तभी शेखर आकर उसे सहारा देता है।
दर्शना देवी चेहरे पर चिंता का भाव लिए चंद्रिका के पास आती हैं और उसके सिरहाने बैठते हुए उसके सिर पर हाथ फेरते हुए प्यार से पूछती है- "अब कैसा लग रहा है बहुरानी?"
"जी पहले से बेहतर लग रहा है।" चंद्रिका अपने सिर दर्द को छुपा गई थी। उसे वैसे ही शेखर को कमरे मे देखकर खुशी के साथ साथ कुछ अजीब भी लग रहा था।
"ठीक है, तुम आराम करो।" दर्शना देवी खड़े होते हुए बोली। फिर उन्होंने शेखर की ओर देखते हुए कहा-"बहू का ध्यान रखना शेखर और अगर किसी चीज की जरूरत हो तो कहलवा देना।"
"ठीक है माँ।" शेखर नजर नीची कर कहता है। इतना सुनते ही त्रिपाला और दर्शना देवी बाहर की ओर चल देती हैं। शेखर चंद्रिका की ओर मुड़ता ही है कि तभी त्रिपाला और दर्शना देवी शेखर की ओर देखती हैं और दर्शना देवी के चेहरे पर एक रहस्यमयी मुस्कान आ जाती हैं।
उन दोनों के वहां से चले जाने के बाद कमरे में सिर्फ चंद्रिका और शेखर ही रह गए थे। दोनों एक दूसरे की तरफ देख रहे थे। दोनों के बीच एक अजीब सी खामोशी पसरी हुई थी। दोनों ही एक दूसरे से कुछ कहना चाहते थे लेकिन एक हिचकिचाहट उन्हें ऐसा करने से रोक रही थीं। जब काफी देर तक कमरे मे खामोशी छाई रही तो शेखर ने ही चंद्रिका से बातचीत करनी शुरू की-
"अब कैसी तबीयत हैं? शेखर ने पलंग के पास रखे हुए छोटे स्टूल से पानी का जग उठाते हुए पूछा।
"थोड़ा ठीक लग रहा है। पता नहीं मुझे क्या हो गया था, अचानक से चक्कर आया और.......।" चंद्रिका ने बात अधूरी छोड़ दी।
"हाँ, हो जाता हैं कभी कभी घबराहट में। बस अपना ध्यान रखो।" शेखर ने गिलास में पानी भरना शुरू किया।
"हाँ। अच्छा क्या माँजी मुझसे नाराज हैं?" चंद्रिका ने धीमी आवाज में पूछा तो शेखर के चेहरे पर मुस्कान आ गई। उसने कहा- "नाराज़गी में कोई किसी के सिर पर प्यार से हाथ नहीं फेरता। पिछले आठ दिनों में जब से तुम बेहोशी की हालत में बिस्तर पर थी तो माँ ने ही.......।" शेखर ने जैसे जानबूझकर कहा।
"क्या?मैं आठ दिन से ऐसे.... लेकिन मैं थोड़ी देर पहले ही तो कमरे के बाहर खड़ी थी। फिर मुझे चक्कर आया और बस.....।" चंद्रिका ने शेखर की बात बीच में ही काट दी। उसकी बेचैनी बढ़ गई थी। उसे शेखर की बात पर यकीन नही था। उसने अपने ऊपर ढकी हुई चादर उतार कर फेंक दी। फिर उसने जो देखा, उस पर यकीन करने के अलावा चंद्रिका के पास कोई और चारा नहीं था।
उसने देखा कि उसके कपड़े बदले हुए थे। उसने हरी साड़ी नही बल्कि पीले रंग की साड़ी पहन रखी थी। अब उसका ध्यान कमरे की ओर गया। वह अपने कमरे मे नहीं बल्कि किसी दूसरे कमरे में थी। चंद्रिका पलंग पर से उठ खड़ी हुई। उसने कमरे की दीवारों पर दस्तक देनी शुरू कर दी। यह देखकर शेखर घबरा गया। उसने गिलास स्टूल पर रखा और चंद्रिका को पकड़ कर पीछे खींचने लगा।
"ये क्या कर रही हो चंद्रिका? कुछ नही है वहाँ। मेरी बात सुनो, कुछ नहीं है वहाँ।" शेखर ने चंद्रिका को जबर्दस्ती पीछे खींचते हुए कहा
चंद्रिका को गुस्सा आ गया। वह चिल्ला कर बोली- "मुझे छोड़ो, मुझे तुम्हारी कोई बात नहीं सुननी। आज मै सच्चाई जान कर रहूंगी और तुम मुझे रोक नहीं सकते।"
इतना कहकर चंद्रिका फिर से आगे दीवार की ओर बढ़ती है तो शेखर उसे वापस खींचकर पलंग पर बिठा देता है और चिल्ला कर कहता हैं- "मैने कहा ना कि कुछ नही है वहाँ पर। तुम समझती क्यो नही।
चंद्रिका की आंखों में आंसू आ गए। यह देखकर शेखर शांत हो गया। वो चंद्रिका के पास वहीं फर्श पर बैठ गया। उसने चंद्रिका के हाथों को अपने हाथों लिया। अब चंद्रिका रोने लगी थी। शेखर ने उसके आंसू पोछे। उसने उसकी आंखों में देखते हुए कहा-" शांत हो जाओ चंद्रिका। कुछ नहीं है वहाँ पर, कुछ गलत नही है।" फिर चंद्रिका के पास खिसककर कहता है- तुम्हें पता है कि मैंने तुम्हारे ठीक होने का कितना इंतजार किया है। मुझे तो लगा था कि होश में आते ही सबसे पहले तुम मुझसे पूछोगी कि मैं कैसा हूँ तुम्हारे बिना लेकिन तुम तो इन दीवारों से दिल लगा बैठी। देखो मैं नहीं चाहता कि माँ फिर से आठ दिन की परीक्षा के चक्कर में मुझे तुमसे दूर रहने की सजा सुना दे।" इतना कहकर शेखर मुस्कुरा दिया।
चंद्रिका का मन अब थोड़ा सा शांत हो चुका था। उसने शेखर की ओर देखा और पूछा- "क्या मैं सच में आठ दिनों से बेहोश थीं?"
शेखर जमीन पर से उठ खड़ा हुआ और पानी का गिलास लेने के लिए स्टूल की ओर बढ़ते हुए बोला- "और नहीं तो क्या, आज आठ दिन बाद तो तुम्हें देखने के माँ ने इजाजत दी है।" नहीं तो मैं कमरे मे तो क्या, इस कमरे के आसपास चल भी नहीं सकता था।" शेखर गिलास लेकर चंद्रिका के पास आ चुका था।
"लेकिन क्या कोई लगातार आठ दिनों तक बेहोश रह सकता है?" चंद्रिका के मन में अभी भी उलझन बनी हुई थी।
उसके इस सवाल पर शेखर सकपका गया। फिर उसने अपने आप को संभालते हुए कहा- "तो मैंने कब कहा कि तुम आठ दिन लगातार बेहोश ही रही हो। बीच बीच में होश आता था तुम्हें और कुछ देर बाद ही तुम फिर बेहोश हो जाती थी। अच्छा चलो जल्दी से पानी पी लो। प्यास लगी होगी तुम्हें।"
और इससे पहले कि चंद्रिका शेखर से और कुछ पूछ पाती वो जल्दी से उसे पानी पिला देता हैं। पानी पीते ही चंद्रिका को चक्कर आता है और वह फिर एक बार बेहोश हो जाती हैं।
उसके बेहोश होते ही शेखर उसे संभालता हैं और गोद में उठाकर पलंग पर लिटा देता हैं। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए उसे चादर ओढ़ा देता हैं। "मुझे माफ़ कर दो चंद्रिका। मैं चाहकर भी तुम्हारी मदद नहीं कर सकता। तुम्हें खुद ही अपनी मदद करनी होगी।" इतना कहते हुए शेखर की आंखों में आंसू आ जाते हैं और वो तुरंत ही वहां से चला जाता हैं। उसके वहां से जाते ही एक औरत की परछाई उभरती है। जिसकी आंखों में आंसू थे।
उधर एक कमरे में दर्शना देवी परेशान सी चक्कर लगा रही थी। त्रिपाला वही दूसरी ओर कुर्सी पर बैठी दर्शना को देख रही थी। कुछ देर तक ऐसा ही चलता रहा लेकिन जब त्रिपाला से रुका नही गया तो उसने दर्शना से पूछ ही लिया-" क्या कर रही हो दर्शना?क्या तुम्हारे ऐसे चक्कर लगाने से समस्या समाप्त हो जाएगी। इतना परेशान होने की जरूरत नहीं। इस बार हमारी योजना जरूर सफल होगी।"
दर्शना देवी एक जगह रुक गई। उनके चेहरे पर परेशानी साफ झलक रही थी। उन्होंने त्रिपाला की ओर देखते हुए बोलना शुरू किया- "तुम तो जानती हो त्रिपाला, हमने कितना इंतजार किया है इस समय को लाने के लिये। हर बार कोई न कोई विपदा आ ही जाती हैं और हमें फिर इंतजार करना पड़ता हैं। इस बार ऐसा नहीं होना चाहिये।"
"चिंता मत करो, इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन मुझे उसका भरोसा नहीं है। अगर उसने फिर से मुश्किलें खड़ी की तो......" त्रिपाला ने शंका जताई।
दर्शना देवी कुछ कहने जा रही थी कि तभी उसने देखा कि शेखर वही दरवाजे पर खड़ा था। उसको देखते ही दर्शना देवी चुप हो जाती हैं और इशारे से उसे अंदर बुलाती है।
शेखर अंदर आ जाता हैं। त्रिपाला कुर्सी से उठ कर शेखर के पास आती हैं और उससे सख्त आवाज में पूछती है- "उसे कोई शक तो नहीं हुआ?
शेखर धीमी आवाज में कहता है- "थोड़ा शक तो हुआ था लेकिन मैंने उसे समझा दिया है और उसे फिर से सुला दिया है।"
ठीक है, अब तुम जाओ और उसपर नजर रखों।" त्रिपाला ने शेखर से कहा और वापस कुर्सी पर जाकर बैठ गई। शेखर ने भी दर्शना के पैर छुए और बाहर चला गया।
"चलो अब हमें यहां से चलना चाहिए। वो हमारा इंतजार कर रहा होगा। उसे भी यहां के बारे मे सब कुछ बताना होगा।" शेखर के जाने के बाद त्रिपाला ने दर्शना से कहा। हाँ में सिर हिलाते हुए दर्शना त्रिपाला के साथ कमरे से बाहर निकल जाती हैं। दोनों के बाहर निकलते ही उसी औरत की परछाई जो चंद्रिका के पास थी, फिर उभरती है और गुस्से में कहती हैं-"इस बार भी तुम्हें हार ही मिलेगी सिर्फ हार। इस बार विधि का यह विधान पूरा होकर रहेगा.... (जारी)