R Rajat Verma

Abstract

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R Rajat Verma

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रेल यात्रा भाग २

रेल यात्रा भाग २

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आज फिर से घर से कहीं दूर भाग जाने को मन कर रहा था, कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या करूं। जिन्दगी है तो जीना भी जरूरी है, क्यूंकि कल का क्या पता कौन है और कौन नहीं। जल्दी - जल्दी, क्रोध में मैंने अपना बैग लगाया और कंधों पर टांग के निकाल पड़ा सफर पे। कहां जाना था पता नहीं, पर कहीं तो जाना था जहां मुझे सुकून मिल सके। घर से निकलते ही, पड़ोसी ने टोका "और बेटा फिर चल दिए मा बाप का पैसा फूकने", मैंने भी तन्ना के कहा "चलो तुम्हे भी फूंक दूं"।

चुपचाप अंदर चला गया वो। आखिर लोगों को क्यूं घुसना है दूसरों की ज़िंदगी में। क्या चाहते हैं लोग ? उन्हें क्या पता मा-बाप से पैसे तो तबसे मांगने बंद कर दिए जब से कामना शुरू कर दिया था। खैर छोड़ो, मैंने निकली इयरफोन और अपना पसंदीदा गाना "तुम से ही" ' जब वी मेट ' का लगा लिया। अपनी मस्ती में मस्त होकर मै चलने लगा, हमारे मोहल्ले के लोग तो जैसे इंतजार में रहते थे कि मै निकली और वो मुझे घूरे। शायद जादा ही सुन्दर था। हसी आती है उन लोगों की ऐसी हरकतें याद करके। मै चलते चलते स्टेशन पहुंच गया। टिकटघर से टिकट लिया, पानी की बोतल खरीदी और जम्मू जाने वाली रेल में चड़ा।

लंबे सफ़र के लिए तो मुझे रेल ही अच्छी लगती है, क्यूंकि आराम से सफ़र करो। मेरे कंपार्टमेंट में चड़ते ही एक छोटी सी बच्ची ने मेरे आगे हाथ फैला दिया। मैंने उसके खाली हाथ पर मेरे हाथ में मौजूद बिस्किट का पैकेट रख दिया। बिस्किट देखते ही, उसने मुझसे कहा तुम ही खा लो और मुझे सुना के चली गई। लोग तो मुझे ऐसे देखने लगे जैसे न जाने मैंने क्या कर दिया था। मैंने एकाग्र होकर सीट ढूंढी, एक बूढ़े से चाचा के पास मुझे जगह दिखी। उन्होंने भी खिसक के मुझे बैठ जाने दिया। 

रेल को चलने में वक़्त था, इतने में ही उन्होंने एक बीड़ी जला ली, मैंने रुमाल से अपनी नाक ढकी। मुझे ऐसा करता देख एक लड़का बोला "लड़की है क्या?" मुझे बहुत तेज़ हंसी आई कि अगर कोई नाक ढक ले तो लड़की हो जाता है ऐसे देश में रहता हूं मैं। उसके बेतुके सवालों का जवाब देना मैंने उचित नहीं समझा, पर जब उसने मेरी तरफ देख के आंख मारी और इशारा किया, मैंने तुरंत उसके जोरदार झापड़ दिया। उसके चेहरे पर पड़ा थप्पड़ उसका जवाब था, गुस्से में मेरी ओर लपका वो पर रेल चल दी। जिससे वो पीछे की ओर गिर गया। 

अच्छा मौका देख, मैं वहां से हवा हो लिया। क्यूंकि इतनी बड़ी ट्रेन में किसी को ढूंढ पाना आसान नहीं होता और वो भी तब जब सर्दियों के दिन हो। मैंने टोपा निकाला और सिर पर लगा के अगले कंपार्टमेंट में जाकर बैठ गया।

मुझे ठंड लग रही थी, क्यूंकि घर से गुस्से में, मैं, जल्दी की वजह से, जैकेट नहीं पहना था। गुस्सा होता भी क्यूं न आखिर मेरी वजह से आज फिर कलेश हुआ था। आज की सुबह भाई ने मेरी बुआ की बेटी को जगा लिया था और उससे बातें कर रहा था, सुबह से मेरा मतलब है ४ बजे। उसे अच्छे से पता था कि मुझे काम पर जाना है, मेरे बार बार टोकने पर भी वो नहीं माना। बातें बढ़ती गई उसमें उस बच्ची को मैंने अपनी ओर खींचा ताकि उसको सुला सकूं। पर जैसे भाई तो आज लड़ने के विचार में था, वो मुझपर टूट पड़ा। 

खुद को बचाने के लिए मैंने भी हाथापाई शुरू कर दी। इतना जड़ा झगड़ा हो चुका था कि पापा,मम्मी, और दीदी भी हमारे कमरे में आ गए। पापा ने हमें अलग कराया और कहने लगे "ये ज्यादा अम्मा बनता है और बच्चो को घर ले आता है, आगे से कोई जरूरत नहीं तुम्हे किसी को घर लाने की, तू कलेश की वजह है।" मै आंखो में आंसू लेकर सब सुन रहा था, भाई को कोई कुछ नहीं बोला तो मैंने कहा "इसमें उस बच्ची की क्या गलती है, वो खुद तो बातें नहीं कर रही थी" मेरा बात सुन पापा का खून खौल गया और मेरा भाई फिर टूटा मुझ पर। 

मैंने भी उसको ढंग से धोया। ऐसा देख पापा ने मुझे मारना शुरू कर दिया, वो रुके तो मै क्या करता मैंने अपना दीवार पर तीन बार जोर से पटका, पापा ने मेरे सिर के आगे हाथ लगा के बचाया और कहने लगे "पैसे की गरमी है इसमें, आगे से मत लेना इसका पैसा" यह सुनकर मैंने सोचा कि २००० रुपए में कितनी गर्मी, कौन सी गर्मी। क्या ग़लत तो गलत कहना भी गलत है? मैंने भी गुस्से में कहा नहीं दूंगा तो उन्होंने एक जोरदार तमाचा लगा दिया मेरे। मेरी आंखें मेरे मन का हाल बयान कर रही थी और मेरा दिल रो रहा था। 

जैसे तैसे सब खत्म हुआ, पर अभी कहा ये तो शुरुआत थी मेरे लिए, आखिर इस बार शक मेरी नियत पर किया गया था। आंखों में आंसुओ को जबरदस्ती कैद करके मैंने सोने की कोशिश की पर नींद कहा आनी थी तो बैग पैक कर नए सफ़र पर चल दिया। रेल का हॉर्न बजा,मैंने अपनी नम आंखो को पोंछा, फिर सवाल किया क्या सच में मैं गलत हूं? अगर हां तो भगवान मेरा न्याय क्यूं नहीं करते, क्यूं नहीं वो मुझे मौत दे देते। 

आखिर हर दिन की हुई दुआ क्यूं खाली जाती है मेरी, ये जिन्दगी खत्म ही नहीं होती। रेल की खिड़की से बाहर झांकता मै अपनी आंखो को बंद किए हुए था कि दिल कचोट गया। याद गया वो किस्सा जब मेरी और भाई की एक बार और लड़ाई हुई थी, तब भी उसको नहीं मुझे मेरा गया था, इस हद तक मेरी उंगलियों से खून निकल आया था। धक्के मार के मुझे जीने में फेंक दिया गया और कहा गया चला का यहां से। मन तो किया चला जाऊ पर पता नहीं था कि कैसे भागते है, आखिर एक १३ साल का बच्चा भाग के कहा जाएगा। 

"सुनिए, क्या आप ठीक है?" एक सुन्दर सी लड़की ने मेरे कंधे पर हाथ रख के पूछा। मैंने उसको देखा तो देखता ही रह गया, उसने मुझे आंखो से इशारे में फिर पूछा क्या ठीक हो, मैंने मुस्कुराहट से जवाब दिया हां। वो मेरी बगल वाली सीट पर बैठ गई।


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