रेड लाइट वाली लड़की
रेड लाइट वाली लड़की
यह कहानी है एक १४ वर्ष की लड़की नीला की, जिसे पहली बार मैंने सिग्नल पर देखा था। त्योहार का समय था। सिग्नल की बत्ती लाल थी। खासी लाइन लगी थी। इतनी जल्दी हरी ना होने वाली थी। नज़रें इधर - उधर दौड़ाई तो एक नीली आँखों से जा टकराई। अब जब भी उधर से गुजरती मेरी नज़रें उसे ढूंढा करती और नज़रें मिलते ही यह मुस्कुराती जैसे ये रोज का चलन हो चला था। इधर कुछ दिनों से वह नहीं दिख रही थी। जाने कैसा आकर्षण था उन आँखों में कि मेरा मन किसी भी काम में ना लगता। जैसे उसे ढूंढने की सनक सवार हो गई हो। तब इतवार को उसे ढूंढना शुरू किया। उसका भाई दिखा तो उसके पीछे उसके घर तक पहुंच गई।
पर ये क्या.....वो बेचारी औंधे मुंह ज़मीन पर पड़ी थी। जिन आँखों ने मुझे यहां तक पहुंचाया था वह काफी अन्दर धंसी मालूम पड़ती थी। अपने साथ बिस्कुट, केक व जूस के पैकेट लाई थी। बच्चों ने सुबह से कुछ ना खाया था। जब पेट भरा तो आँखें मुस्कुराईं और मैं वापस खिल गई। फिर उसने बताया कि बचपन में ही माँ गुजर गई। उसे किसी का प्यार नहीं मिला। पिता ने दूसरी शादी कर ली। ऐसे में वह अपने ही घर में परायी हो चुकी थी। माँ के साथ बाप भी सौतेला हो गया था। तीन छोटे भाई -बहन थे जिन्हे गोद में लेकर खाना बनाती। सबके खाने के बाद कुछ बचा -खुचा ही उसका निवाला था। अन्य बच्चों को जब स्कूल ड्रेस पहन कर स्कूल जाती देखती तो अपनी मटमैली सी वेशभूषा पर एक नज़र डालती। क्या कभी वह भी स्कूल जा सकेगी ? कभी पढ़ सकेगी ?
उसका पिता विस्मिल, विनोद सिंह नामक कोंटरक्टर के यहाँ दिहाड़ी मजदूरी करता था। उनके यहाँ एक हाउस हेल्पर की जरुरत थी, और बाप को पैसों की। उसने १०००० एडवांस उठाया और बस नीला को विनोद सिंह के घर काम पर लगा दिया। यहाँ भी उसके बारे में सोचने वाला कोई ना था पूरे दिन घर के काम काज करती हुयी रातों में जागती रहती। पति -पत्नी दोनों काम पर जाते थे। बच्चे स्कूल चले जाते। उनकी पुरानी कॉपियों में जाने क्या देखती और वैसा ही लिखने की कोशिश करती। उसकी पढ़ने की उत्कंठा ने उसमें असीम सहनशक्ति भर दिया था। जब भी अवसर मिलता वह लिखावट पहचानने की कोशिश करती।
इन दिनों उनके घर एक रिश्तेदार आया था। सबके जाने के बाद उसे अजीब नज़रों से देखता। किससे क्या कहे समझ नहीं पा रही थी।अकेली घर में रहने में डर लगता तो अपने बहन- भाई से मिलने की छुट्टी लेकर घर आ जाती। इसी दरम्यान लाल बत्ती पर मुझसे मिली। पिछले तीन दिनों से बुखार के कारण काम पर ना जा पाई।
सारी बातें सामने आ गई तो मन में कई सवाल उठने लगे। वहाँ के हालात वाकई बुरे थे। क्यों बच्चों को जन्म देते हैं जब उनकी सही परवरिश नहीं कर सकते। क्या अपने देश में भोजन व शिक्षा पाने का हक़ इन मासूमों को नहीं है। फिर कैसे किस जुबान से ये बच्चे 'मेरा भारत महान 'के नारे बुलंद कर सकेंगे। क्या इन्ही हालातों से मजबूर होकर तो ये चोरी, उठाईगिरी, देहव्यापार व अन्य व्यसनों में लिप्त नहीं हो जाते हैं? इनके वोट लेकर राजनेता देश -विदेश घूम कर, बड़े लोगों के साथ डिनर कर सम्बन्ध सुधारते हैं। जबकि देश में बच्चे भूखे हैं। उनकी रूह नहीं काँपती?
मैने मन ही मन कुछ तय किया। मुझे तो बस वो मासूम बच्ची और उसकी आँखों के ऊँची उड़ान के सपने दिख रहे थे। जैसे एक जूनून सा छा गया था। हर हाल में नीला को स्कूल में पढ़ते हुए देखना था। मैं जानती थी की दोनों पक्षों के निहित स्वार्थ जब एक हो तो उसे बदलना आसान ना होगा। स्वार्थ से परे निस्वार्थ कदम कब औरों की छोटी मानसिकता की परवाह करते हैं। आँखें बस नीला को देख रहीं थीं। उन आँखों में अनगिनत सपने थे जिन्हे पूरा करने वाला कोई ना था। एक अदम्य साहस का संचार हुआ और मन में यही विचार कर "जब ओखल में सिर दिया, तो मूसलों का क्या डर।"
नीला के पिता से बात की, कि वह अपने सभी बच्चों को कल से स्कूल भेजेंगे। तब उसने, विनोद सिंह से लिए गए ऋण के बारे में बताया। पर्स से १०००० रूपये निकाल कर विस्मिल के हाथों में दिए और ऋण चुका कर बच्ची को वापस काम पर ना भेजने के लिए कहा। अब नीला अपने बाकी के सभी भाई- बहनों के साथ स्कूल जाने लगी थी और सुबह- शाम दो घंटे विनोद सिंह के यहाँ आकर घर के कामों में मदद करने लगी थी। जिसके बदले में सभी भाई- बहनों की जरुरी जरूरतें पूरी हो रही थीं ।
मेरी जिद्द के आगे सबको झुकना पड़ा। उसकी सौतेली माँ व पिता दोनों को उन्होंने सख़्त हिदायत दी कि बच्चों की पढ़ाई में लापरवाही की तो उन्हें NGO में भेज देंगी। अंततः मेरी जीत हुयी थी। बच्चे पढ़ने लगे थे। आर्थिक समस्याएं भी जाती रहीं। स्कूल में स्कॉलरशिप की भी व्यवस्था हो गयी थी। मैं आते-जाते अक्सर उनके स्कूल जाने लगीं थी। हँसती -खिलखिलाती नीला आज नीले आसमान को छूने का अदम्य साहस जुटा पायी थी और उसके माध्यम से मैं भी एक नया सपना देखने लगी थी !!
