Divyanjli Verma

Fantasy Inspirational

3.4  

Divyanjli Verma

Fantasy Inspirational

राजा और हिरण

राजा और हिरण

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         भगवत गीता से प्रेरित

  सुदूर उत्तर भारत में एक बड़ा ही दयालु और न्यायप्रिय राजा था । उसके शासन काल में सारी प्रजा बहुत ही आराम से सुखपूर्वक रहती थी।

             राजा को भगवान की भक्ति करने में बड़ा ही आनन्द आता था।

              लेकिन राजा होने के कारण वो अपना सारा समय भक्ति करने मे नही लगा सकते थे । क्योंकि उन्हें प्रजा का ध्यान भी रखना था ।

               तो राजा ने सोचा जब वो बूढ़े हो जाएंगे तब जंगल में जाके एकांत में बैठ के भगवान की भक्ति करेंगे।

              देखते देखते समय बिता गया। राजा ने अपना सारा राजपाट अपने पुत्र को सौंप दिया और सबसे विदा ले के जंगल की ओर चल दिये।

             जंगल में पहुँच कर राजा ने एक नदी के किनारे छोटी सी कुटिया बनाई। और उसी कुटिया में रह कर ब्रह्मचर्य जीवन का पालन करने लगे।

           एक दिन जब वो ध्यान लगा कर बैठे थे तो उन्हें कुछ आवाजें सुनाई देती है। जिस कारण उनका ध्यान टूट जाता है। आंख खोल के देखने पर वो पाते है की नदी के दूसरी ओर एक गर्भवती हिरणी अपनी जान बचाने के लिये भाग रही थी ।जिसके पीछे एक खूंखार शेर दौड़ रहा था।

          तभी हिरणी ने अपनी जान बचाने के लिये एक छलांग लगाई जिससे वो नदी के इस पर आ सके। जैसे ही उसने कूदने के लिये जोर लगाया उसका बच्चा गर्भ से बाहर आ गया और नदी में गिर गया।

          बच्चा नदी में डूबने लगा। राजा से ये सब देखा नहीं गया। वो तुरंत उठे और उस नवजात बच्चे को बचाने के लिये नदी में कूद पड़े। वो बच्चे को बचा कर अपनी कुटिया में लाये। उसे पत्तों से लपेट कर, फिर लकड़ियाँ इकट्ठी करके आग जलाई। जिससे बच्चे को गर्मी मिल सके।

          इस तरह राजा ने उस बच्चे की जान बचाई। और तब से वो हिरण राजा के साथ ही रहने लगा। कभी कभी जब वो हिरण चरने जाता और आने में देर हो जाती तो राजा को चिंता होने लगती। वो उसे ढूँढने निकल पड़ते।

         ऐसे ही दिन बीतने लगे। समय के साथ साथ राजा बूढ़े होने लगे थे ।उधर हिरण भी बड़ा हो गया था।

        एक दिन जब राजा ध्यान लगा के बैठे थे। अचानक उनकी तबीयत खराब होने लगती है। राजा कुटिया में जा के लेट जाते है। उन्हें ऐसा लगता है की अब उनके प्राण निकल जायेंगे। उधर हिरण जो चरने गया था वो अभी तक नहीं आया था।

           राजा को हिरण की चिंता होने लगी । मरने से पहले वो आखिरी बार हिरण को देखना चाहते थे। लेकिन उनकी ये इच्छा पूर्ण ना हो सकी। और जीवन के आखिरी समय में हिरण के लिये चिंतित होते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।

           मरने के पश्चात राजा का दुसरा जन्म एक हिरण के रूप मे हुआ। और राजा ने उसी हिरण की कोख से जन्म लिया जिसे उन्होंने बचाया था।

और जिस तरह राजा ने छोटी हिरणी की सेवा की थी। उसे खिलाया पिलाया था। अब वो हिरणी भी उसी प्रकार राजा की सेवा अपने बच्चे के रूप में करने लगी। और दोनों खुशी खुशी रहने लगे।

       इस तरह हिरणी और राजा ने अपने कर्म भोग लिये।

       लेकिन एक हिरण के रूप में राजा को अपनी भक्ति की बात याद थी तो उन्होंने भगवान से प्रार्थना की, की अगला जन्म उन्हें मनुष्य का मिले जिससे वो भक्ति के मार्ग पर दोबारा चल सके।

      भगवान ने राजा की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और अगले जन्म में राजा का जन्म एक ग्वाले के घर में हुआ।

उस ग्वाले के तीन पुत्रों में राजा सबसे छोटे पुत्र थे। और ग्वाले ने उनका नाम रखा माखनलाल।

 

 माखन लाल बचपन से ही बहुत शांत रहते। ना वो किसी से बात करते, ना बच्चों के साथ खेलने जाते। ना ही अन्य किसी कार्य में रुचि लेते।

        ये सब इसलिये था क्योंकि माखनलाल को उनके पहले जन्म में की हुई साधना और भक्ति के बल से सब कुछ याद था की उनका जन्म मनुष्य के रूप में क्यों हुआ है? इसलिये वो बिना किसी से बोले मन ही मन में नारायण का जाप करते थे ।

         लेकिन उधर माता पिता को चिंता सताने लगी की बेटा तो गूँगा-बहरा है । कैसे उसका जीवन यापन होगा ?कौन उससे विवाह करेगा? ग्वाला बहुत से पण्डित, डाक्टर, वैध और ना जाने किस किस के पास गया अपने बेटे को लेकर ,जिससे माखनलाल ठीक हो जाये। लेकिन सब व्यर्थ ही था।

        उधर माखनलाल दुनिया की सारी चिंताओ से मुक्त अपने भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ते हुए लगातार जप में लीन रहते।

       देखते देखते समय बीत गया। माखनलाल के दोनो बड़े भाई कमाने लगे । उनका विवाह भी हो गया । दोनों भाई अपने वैवाहिक जीवन में खुश थे।

      लेकिन पिता जी को तो माखनलाल की चिंता सताती रहती थी। कौन लड़की माखनलाल से विवाह करेगी ? वो तो ना कुछ सुन पाता है। ना बोल पाता है ।और कुछ कमाता भी नही है।

        जब तक पिता जी जिन्दा थे। घर मे शांती थी। जो भी खाना बनता, माखनलाल को भी मिल जाता था। लेकिन समय एक सा कहा रहता है । धीरे धीरे पिता जी यानी ग्वाला बूढ़ा हो गया। घर की सारी जिम्मेदारी माखनलाल के दोनों भाइयों ने सम्भाल ली थी।

       बुढ़ापे में बीमारी से लड़ते हुए ग्वाला ने अपनी अन्तिम सांसें ली । पिता की मृत्यु के बाद जायदाद का बटवारा होना था। लेकिन दोनो बड़े भाईयो ने सोचा की ये छोटा भाई माखनलाल तो कुछ सुनता बोलता है नहीं। ना ही इसका परिवार है । इसे जमीन जायदाद की क्या जरूरत है। अच्छा होगा हम दोनो ही सब कुछ आपस में बाट ले। और रही बात माखनलाल के रहने और खाने की तो वो बारी बारी से हम दोनों के घर खा लिया करेगा।

             दोनों भाभीयों ने भी इस पर अपनी सहमती दे दी। कुछ दिन तो सब ठीक ठाक बिता। लेकिन थोडे दिन बाद छोटी भाभी को माखनलाल का यू मुफ्त मे रोटी खाना खटकने लगा। और वो रोज नये नये बहाने ढूँढती माखनलाल से झगड़ने के। जब भी कभी वो घर में लड़ना , चिल्लाना शुरू करती। माखनलाल चुपचाप उठ के घर के बाहर आ जाते और घर के सामने ही एक पेड़ के नीचे बैठ ,भाभी के शांत होने का इन्तजार करते।

          एसा अब रोज रोज होने लगा था । जैसे ही भाभी नाराज होती माखनलाल बाहर आ जाते और भाभी के शान्त होते ही वापस घर में चले जाते।

         लेकिन एक दिन झगड़ा बहुत बढ़ गया। सुबह से शाम हो गई लेकिन भाभी शांत नहीं हुई। पहले तो भाभी सुबह गुस्सा होती थी तो दोपहर तक शान्त हो जाती थी ।लेकिन आज तो शाम से रात भी हो गई। फिर रात को भाभी ने दरवाजा बन्द कर लिया । मजबूरन माखनलाल को उस दिन भूखे पेट वही बाहर पेड़ के नीचे सोना पड़ा ।

         अगले दिन सुबह उठ के माखनलाल दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी उधर से एक राजा अपनी पालकी से गुजर रहे थे। उनके पालकों ने जब माखनलाल जैसे हृष्ट-पुष्ट आदमी को देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। की इतनी सुबह ये आदमी यहाँ क्या कर रहा है? कही ये भीख तो नहीं माँग रहा?

       उन्होंने सोचा की इतना बलवान आदमी भीख माँगता अच्छा नहीं लगता। इसे राजमहल में कुछ कार्य जरूर मिल सकता है।

          यही सोच के एक पालक ने माखनलाल से उनका नाम पूछा। लेकिन माखनलाल कुछ नहीं बोले। फिर पालक ने पूछा की तुम क्या करते हो। इस पर भी माखनलाल चुप रहे। तब पालकों ने सोचा की लगता है ये गूँगा बहरा भी है। तो उन्होंने माखनलाल को इशारे से पालकी उठा के उनके साथ चलने को बोला।  माखनलाल ने भी वैसा ही किया।

          कुछ दूर जंगल में चलने के बाद अचानक से पालकी हिलने डुलने लगी। क्योंकि माखनलाल ठीक से चल नहीं रहे थे। तब पालकी में बैठे राजा ने और पालकों ने सोचा की लगता है इसने मदिरा पान किया है तभी ठीक से चल नहीं पा रहा।

          तो राजा ने माखनलाल से कहा की यदि तुम थक गये हो या तुमने मदिरा पान किया है तो थोड़ा देर रुक के आराम कर लो।

           इस पर माखनलाल ने जवाब दिया की मैंने कोई मदिरपान नहीं किया है। ना ही मैं थका हूँ। मैं तो बस उन छोटे कीड़े मकौड़ों को बचा कर चल रहा था जिससे वो मेरे पैर के नीचे आ कर मर ना जाये।

          ये बात सुन कर राजा को लगा की ये कोई साधारण पुरुष नहीं है। जरूर कोई संत है। राजा और उनके पालकों ने तुरंत हाथ जोड़ कर माखनलाल से क्षमा मांगी।

           पूरे जीवन मे आज पहली बार माखनलाल ने कुछ बोला था और इसके बाद ही उन्हेंजीवन भगवान की कृपा से मोक्ष की प्राप्ति हो गई।



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