विनोद महर्षि'अप्रिय'

Romance

2.4  

विनोद महर्षि'अप्रिय'

Romance

प्यार की दहलीज

प्यार की दहलीज

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हेलो।

हेलो कौन।

आवाज पहचाने नहीं क्या ?

हाँ कुछ जानी पहचानी सी लग रही है पर बताओ कौन हो आप ?

बिंदु बोल रही हूं।

ओह !

आजकल कहाँ हो आप, दिखते ही नहींं

क्यों आप देखकर क्या करोगी

करना क्या है

तो फिर क्यों पूछा ?

सामने की शहद सी मीठी आवाज को सुनने के लिए विवेक सवाल पर सवाल दाग रहा था और उसी सुरीले अंदाज मेंं जवाब दे रही थी बिंदु।

बिंदु वयस्क थी और यह सब चोंचले जानती थी। बिंदु भी बिंदास थी। विवेक युवा था, बढ़ती जवानी का उबलता जोश उसका विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक था। इन बातों का सिलसिला चलना और विवेक-बिंदु का एक दूसरे के प्रति आकर्षण का कारण था बिंदु की पड़ोसन जो कि विवेक की मुहबोली माँ थी।उनका स्वभाव हंसी मजाक का था और विवेक भी चंचल था तो खूब जमती थी। यह देख बिंदु का यौवन मचल जाता था। विवेक अच्छे घर से था, संस्कारी भी था। लेकिन बिंदु विवेक पर इस कदर आकर्षित हो गई कि कुछ भी करके वो विवेक को पाना चाहती थी।जवानी की दहलीज पर कदम रखते हुए विवेक का भी दिल मचलता था। वो भी अब बिंदु पर फिदा होने लगा। दोनो का आकर्षण प्रगाढ़ रूप लेने लगा। विवेक पतंगा सा बन शमा सी बिंदु की तरफ खींचा चला आता, लेकिन उसको इस बात का पता नहीं था कि शमा के पास जाने पर पतंगे का क्या हश्र होता है।लेकिन अस्थिर युवा दिल इन सब बातों को नजरअंदाज करता हुआ मदहोशी मेंं खोकर आगे बढ़ने लगा। बिंदु प्रौढ़ थी लेकिन शारीरिक आकर्षण किसी षोडशी युवती से कम न था। माद्यम बदन, हिरनी से तीखे नयन, गुलाब की अधखुली पंखुड़ी से गुलाबी होंठ, लता सी लहराती लचीली कमर, घनघोर घटा सी जुल्फें, ऐसा भरपूर यौवन विवेक को मदहोश कर जाता था। बिंदु विवेक को लुभाने के कोई मौका नहीं छोड़ती थी।विवेक जब भी मुहबोली माँ के घर आता तो बिंदु नहाकर खुले केशो को सुर्ख गालो पर लहराती तो कभी नशीली मुस्कान बिखेरती, कभी तिरछे नैनो से इशारा कर जाती, कभी साड़ी का पल्लू गिरा देती। और इन अदाओं से विवेओ मचल उठता, वो अंदर ही अंदर तड़पता इस हुस्न का दीदार करने को। अब वो ख्वाबो मेंं भी बिंदु को देखने लगा था। चकवे की तरह रात भर बातों मेंं मशगूल रहता और मिलन के सुखद सपने संजोता ।अंजाम की परवाह किये बिना विवेक नादानी मेंं उस प्यार के कंटक भरे राह पर बढ़ चुका था जिसका अंजाम बहुत बुरा था, शायद जवानी के जोश मेंं कांटो को तो पार कर लेता पर आगे जो भयानक दलदल आने वाला था उसको विवेक को भान नहीं था।

अब विवेक पलभर भी बिंदु से दूर नहीं रहना चाहता था। बिंदु बच्चों की माँ थी पर उसके बदन मेंं वो कशिश थी कि किसी को भी घायल कर सकती थी फिर विवेक तो यौवन की उस दहलीज पर खड़ा था जहाँ से विचलित होना स्वभाविक था।

विवेक अब मस्त भौंरा बन हर वक्त बिंदु के आस पास मंडराने लगा था। उसकी दिलकश अदाएं विवेक को गुलाब की सी महक लागती थी। वो अब उसके और करीब जाना चाहता था, उस तरफ से भी खुला आमंत्रण था बस विवेक और बिंदु अब मौके की तलाश मेंं थे।

लेकिन विवेक की राह मेंं उसका संकोच भी था बिंदु उससे लगभग दुगुनी उम्र की थी तो थोड़ी शर्म भी विवेक को रोक रही थी।एक दिन माँ कही रिस्तेदार की शादी मेंं जा रही थी तो विवेक को घर की जिम्मेंदारी सौंप गई कि रात को यही सो जाना। आज विवेक के दिल में असंख्य अरमान जग गए, वो दिनभर बस ख्वाबो मेंं रहा और बेसब्री से रात का इंतजार करने लगा । आज बिंदु उसे सावन की घनघोर घटा सी लग रही थी और विवेक उस शीतल बारिश मेंं बदन को तपन को शांत करने के सपने ले रहा था। विवेक से एक एक पल बर्दास्त नहीं हो रहा था, बिंदु से बात हो गई थी कि कब मिलना है। उधर बिंदु भी सज सवँरकर मोरनी सी मन मेंं नाच रही थी।

आखिरकार वो पल आया जब नवांकुर पुष्प पराग सा विवेक का दिल और असंख्य पुष्पो का रसास्वादन कर चुकी तितली सी बिंदु का मिलन होना था। लेकिन विवेक ठिठक गया आगे बढ़ने मेंं संकोच हो रहा था, बालपन था, यौवन भी भरपूर लेकिन कभी पुष्प का रस चखा नहीं था तो लाज भी आ रही थी । लेकिन ऐसे प्रेम मिलन की कई दहलीज पर कर चुकी बिंदु ने उसके संकोच को दूर किया और ले गई अपने शयनकक्ष मेंं।

अब विवेक की आंखों के सामने वो नजारा था जिसका दीदार वो स्वप्न मेंं करता था । बिंदु ने यौवन से भरपूर मदहोश बदन के दर्शन कुछ यूं करवाये की विवेक ने अब यह दहलीज भी पार कर ली। जिस विवेक ने कभी किसी औरत का चेहरा भी गौर से ना देखा हो उसके सामने खिला हुआ गुलाब सा नग्न बदन था जिसकी खुशबू पूरे कमरे मेंं फैली हुई थी। विवेक ने भी अब आपा खो दिया और बिंदु से लिपट गया। भवँरा सा पुष्प का रसास्वादन करने चिपक गया। गुलाब की पंखुड़ी सी बिंदु ने उसे आगोश मेंं ले लिया। एक तरफ युवा बदन की तपिश और दूसरी तरफ कामुकता से भरा मदहोश बदन, शरद रात मेंं दोनों का मिलन यूँ हुआ जैसे सावन मेंं दिनभर छाई घटा झूमकर बरस रही हो।बिंदु ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी, विवेक को इस कदर घायल किया कि अब वो उसके आगोश मेंं बाहर नहीं आना चाहता था। इस मधुर आलिंगन से विवेक की चेतना जगी तो भौर हो रही थी। सुबह के 4 बज रहे थे। बिंदु को सोई छोड़कर विवेक घर की तरफ चला।

इस मिलन के पश्चात तो विवेक का जीवन ही बदल गया । अब वो सब कुछ भूल गया बस बिंदु ही उसके लिए सब कुछ थी। सैंकड़ो काम छोड़े, बिंदु को खुश करने के लिए खूब खर्चा करने लगा, उपहार देने लगा। लेकिन इस दिखावे से विवेक भूल गया कि वो इतनी बड़ी गलती कर रहा है जिसका अंजाम अविश्वसनीय है।

विवेक का मन अब काम पर नहीं लगता, सिर्फ बिंदु ही थी उसका जीवन। बदन का मिलन तो दोनों के लिए आम था, कभी भी कहीं भी।

जिस दहलीज से विवेक कतरा रहा था अब वो उस दहलीज को सैंकड़ो बार पर कर चुका था। अपने संस्कार, सोच शर्म और काम अब विवेक को तुच्छ लगने लगे थे। बस बिंदु का प्यार उसके लिए स्वर्ग के समान था।

लेकिन बिना काम यह सब कैसे चलता, पैसे भी चाहिए थे, आये दिन बिंदु की कोई न कोई ख्वाहिस रहती और विवेक खुद भी अब स्टैंडर्ड से रहना चाहता था तो खर्चा बहुत ज्यादा बढ़ गया। लेकिन जवान दिल इन बातों को नजरअंदाज कर आगे बढ़ता गया। विवेक माँ से पैसे ले लेता, कहता वापिस कर दूँगा, माँ भी विवेक की इच्छा को पूरी करने कर्ज ले लेती और विवेक जब भी मांगता उसको पैसे दे देती। लेकिन कर्ज वापिस भी करना होता है, विवेक करता कहाँ से, बिंदु के प्यार मेंं खोकर वो अब काम तो कुछ करता भी नहीं था, कहीं जाता तो 10-12 दिन से ज्यादा नहीं टिकता। बिंदु का आकर्षण उसे दूर रहने नहीं देता।

विवेक अनजाने मेंं ऐसे दलदल मेंं फंस गया था कि ना आगे रास्ता था ना पीछे। धीरे धीरे माँ को शक होने लगा, विवेक के बदले व्यवहार पर,, खर्चे पर,, तो माँ ने ध्यान रखना शुरू किया तो बिंदु और विवेके के इस रिश्ते का आभास हो गया। कई बार मा ने समझाया, लेकिन विवेक को कहां समझ में आता, ना बिंदु उसको कहीं जाने देती। थककर मा ने एक दिन चार वर्ष के कर्ज का हिसाब बनाकर विवेक के हाथ में पर्ची थमा दी और बोली कि आज से मेंरे घर की दहलीज पर कदम मत रखना।

विवेक से पर्ची का हिसाब देखा तो पांवो तले जमीन खिसक गई और सर से आसमान भी गायब। विवेक की आंखे फट कर कानो तक जा पहुंची, इतना बड़ा कर्ज कैसे चुकाएगा, उसका तो पूरा जीवन इसी मेंं चला जायेगा। ना इस नाजायज कर्ज के बारे मेंं घरवालो से बात कर सकता। अब करे तो क्या करें।

विवेक ने बिंदु से बात की तो बिंदु ने बात टाल दी, उसने अपने दोस्तों से विमर्श किया लेकिन किसी के पास इतनी बड़ी रकम नहीं थीं, अब कहाँ जाए, कोई दहलीज ऐसी नहीं थी जिस पर विवेक की परेशानी का समाधान हो सके।

निराश होकर विवेक शराब पीने लगा, उसकी परेशानी का हल नहीं निकला। अब विवेक और ज्यादा दलदल मेंं डूबता जा रहा था। एक रोज दूसरे गांव मेंं वो अपने दोस्तों के पास बैठा शराब पी रहा था तो उसको बिंदु की याद आई। उसने बिंदु के पास फ़ोन किया लेकिन बिंदु दूसरे नंबर पर व्यस्त थी। विवेक से 8-10 दफा काल किया लेकिन बिंदु ने जवाब नहीं दिया। विवेक का नशा उतर गया, क्योंकि जो बिंदु हर हालात मेंं विवेक के फ़ोन का जवाब देती थी आज क्यों नहीं दे रही है। विवेक को गुस्सा आया, वो उठा और पैदल गांव की तरफ चला।

कोई दो घंटे पैदल चलकर विवेक गांव पहुंचा। सीधे बिंदु के घर गया। रात का सन्नाटा था तो सब सो रहे थे। बिंदु के कमरे के पास पहुंचते ही विवेक के पांव ठिठक गए, कमरे मेंं से मादक आवाजे आ रही थी, कमरे मेंं रोशनी थी तो विवेक ने खिड़की के छेद से झांककर देखा तो विवेक के हाथ पांव शिथिल पड़ गए मुह खुला का खुला रह गया, जैसे लकवा मार गया हो । अंदर बिंदु किसी के साथ हमबिस्तर थी। विवेक वहीं बैठ गया रोने लगा, गुस्सा आया कि पत्थर लेकर दोनों का सर फोड़ दु। लेकिन पता नहीं क्यों विवेक ने यह विचार अंदर ही दफना दिया।

विवेक के रोने की आवाज शायद बिंदु के कान मेंं पड़ी, वो आधे अधूरे कपड़े पहन कर बाहर आई और गुस्से मेंं बोली,,तू यहां क्या कर रहा है ? किससे पूछकर मेंरे घर में आया है तूं ? विवेक निशब्द था, उसकी जबान तो बेजान हो गई थी। बिंदु बोलती रही,, तेरे पास अब है ही क्या, यह देख राज आज पहली बार आया है, यह सोने की चैन दी है, तेरे पास क्या अब ? निकल मेंरे घर से, कहते हुए बिंदु ने विवेक का हाथ पकड़ कर धक्का दे दिया।

बिंदु की ऊंची आवाज पड़ोसीयों ने सुनी तो दौड़कर आए तो वहाँ विवेक को नशे मेंं धुत और आधे अधूरे कपड़ो मेंं बिंदु को देखा तो बिना हकीकत जाने सबने विवेक को ही गलत मान लिया। आधी रात के इस शोर से काफी लोग इक्कठे हो गए और बात विवेक के घर तक भी पहुंच गई। विवेक के घरवालों को यकीन नहीं हुआ कि उनके लाड़ प्यार का यह सिला मिलेगा। उन्होंने विवेक को वहीं छोड़ा और बोले कि पुलिस को बुलाओ या जो भी करना है करो, हमारा इससे कोई वास्ता नहीं है। विवेक की मुहबोली माँ बीच बचाव करके विवेक को बाहर ले गई और बोली तूने आज तक मेंरी बात नहीं मानी आज एक अंतिम बात कर रही हु, यहाँ से दूर चला जा और तब तक ना आना जब तक तू इस कलंक को मिटा ना दो। समय हर घाव को भर देता है, कुछ ऐसा कर की यह बात सब भूल जाएं और नए विवेक को सब याद रखे। कहकर माँ अंदर चली गई। विवेक चेतनाहीन होकर खड़ा रहा।

विवेक अपने घर की तरफ चला। छत पर जाकर सो गया, जहाँ वो अक्सर बिंदु से मिलने के बाद आकर सोता था। शून्य से मष्तिष्क मेंं कुछ नहीं था, आसमान को देख रहा था। आंखों का पानी भी सूख गया था। ना गुस्सा ना चिंतन, बस एकटक आसमान निहार रहा था। पुरानी बातें याद आ रही थी जो विवेक के दिल पर गहरा आघात दे रही थी। नींद दूर दूर तक नहीं थी।

चिड़ियाँ के चहचहाने की आवाज से पता चला कि सुबह हो गई है।

विवेक अपने अंजाम तक पहुंच गया था, अब बस आखिरी दहलीज तक जाना था। सुबह घर से निकल और मां को फ़ोन किया भरे गले से कहा कि आखिरी बार 1000 रुपये दे दो। उधर से भी रुंधे गले से आवाज आई कि ले जा।

विवेक की जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी। मां के घर पहुंचा नजर झुकी हुई थी, मां ने पैसे दे दिए, लेकर विवेक झुकी नजरो के साथ ही घर से निकल गया।

बस पकड़ी और दिल्ली पहुंच गया, दो दिन स्टेशन पर सोचते हुए गुजार दिए। लेकिन विवेक को कोई रास्ता नहीं सुझा की आखिर जाऊं तो कहां जाऊं। तीसरे दिन का सूर्य भी अस्त हो गया पर विवेक का विवेक अभी भी निस्तेज था। सोचते सोचते विवेक रास्ते पर चल रहा था । विवेक को पता ही नहीं चला कि चलते चलते वो सड़क के बीच में आ गया था। वो अपने बीते हुए कल मेंं इतना खो गया था कि उसे पता नहीं चला। अचानक एक गाड़ी से टकरा गया, विवेक सड़क पर गिर गया गाड़ी से एक सज्जन बाहर निकले और देखा तो विवेक को चोट आई थी । सज्जन ने विवेक को गाड़ी मेंं बैठाया और डॉक्टर के पास ले गया, पट्टी करवाई और विवेक परिचय लिया तो विवेक ने अपने बारे बताया कि वो दिल्ली काम की तलाश मेंं आया है। सजन दिल्ली के प्रतिष्टित सेठ थे। उन्होंने विवेक को अपनी दुकान मेंं काम पर रख लिया। विवेक भी अब पूरे मन से काम करता था, लेकिन उसका बिता हुआ कल उसको रात मेंं सोने नहीं देता था।

बार बार उसको बिंदु का वो बर्ताव और खुद की गलती याद आती थी। वो कर्ज के बारे मेंं सोचकर अक्सर रो पड़ता । सेठजी का काम बहुत बड़ा था । अपनी नादानी और बिंदु के व्यवहार से विवेक ने बहुत कुछ सीख लिया था। वो मन लगाकर और ईमानदार से सेठजी का काम सम्भालता रहा। उधर सेठजी भी ऐसा काम देखकर बहुत खुश थे। हर माह विवेक के वेतन मेंं वृद्धि होने लगी। 2 साल हो गए विवेक अब सेठजी का विस्वास पात्र बन गया और हर माह वेतन घर पर भेजता था। विवेक का कर्ज धीरे धीरे अब कम हो रहा था। अब विवेक अपना अतीत भूल कर आगे बढ़ रहा था। घरवाले भी कुछ संतुष्ट थे। सबसे ज्यादा मुँहबोली मां को सुकून था।

इधर बिंदु राज के साथ खुश थी, लेकिन अपनी गलती की सजा तो हर किसी को भोगनी पड़ती है। बिंदु का एक 7 साल का बेटा था, अचानक एक दिन उसके पेट में दर्द हुआ । बिंदु उसे डॉक्टर के पास ले गई तो पता चला कि लिवर मेंं पानी भर गया। ऑपरेशन करना पड़ेगा जिसके लिए पैसों की जरूरत है। बिंदु के पास जमा पूंजी थी नहीं। बिंदु ने राज को बात बताई और मदद के लिए कहा। राज ने कोशिश करता हूं' कहकर कॉल काट दिया। शाम के समय बिंदु बेटे को लेकर घर आई, आज बिंदु दुखी थी, अपने इकलौते बेटे के लिए तड़प रही थी जो उसकी आँखों के सामने था, लेकिन गंभीर बीमारी से ग्रसित था। बिंदु ने फिर राज को फ़ोन मिलाया तो राज का नंबर बन्द मिला। बिंदु को झटका लगा, लेकिन अगले ही पल सोचा कि राज कोशिश कर रहा है मोबाइल बन्द हो गया होगा। लेकिन बिंदु के मन में किसी अनहोनी का डर बैठ गया। पूरी रात नींद आंखों मेंं नहीं थी। जागते जागते रात बीत गई। बिंदु ने उठते ही राज को फ़ोन किया लेकिन नंबर फिर बन्द । अब बिंदु का बदन कांपने लगा। रोने लगी। एक दो और रिश्तेदारों से बात की लेकिन कहीं से मदद नहीं मिली। सब बिंदु के व्यक्तित्व को जानते थे तो कोई मदद को तैयार नहीं हुआ। बिंदु के पास कोई चारा नहीं था। आंगन मेंं दीवार के सहारे रोते हुई बैठ गई। पास मेंं बिस्तर पर बिंदु का बेटा सो रहा था। बार बार उसको देख रही थी। वो नादान ना बिंदु के रोने का कारण जानता था और ना ही सामने खड़ी अनहोनी को।

कुछ देर रोकर शांत होने के बाद बिंदु को याद आया कि राज ने उसे 2-3 सोने के उपहार दिए थे, चैन अंगूठी और हाथ का लॉकेट भी, कोई और रास्ता नहीं देखकर बिंदु ने सोचा कि उनको बेच दु और इलाज शुरू करवाऊ, क्या पता राज का फ़ोन आ जाये और वो मदद कर देगा।

बिंदु ने चैन, अंगूठी, लॉकेट को लिया और दौड़ी सुनार की दुकान पर, बेहाल बिंदु आंखों से जलधारा बहते हुए सुनार को सब बताया। स्वर्णकार ने कहा बहन समान सही होगा तो अभी तुम्हे पैसे दे दूँगा। बिंदु ने मन में सोचा आज राज कितना काम आया है, भले ही उसका फ़ोन बन्द है लेकिन उसके उपहार से ही आज मुन्ने का इलाज होगा। उसको क्या पता था कि अगले ही पल उसकी यह उम्मीद टूट जाएगी।

स्वर्णकार ने दो तीन दफा देखा और पिघलाया लेकिन उनमेंं राति भर भी सोना नहीं निकला। बिंदु से कहा बहन यह सब नकली है, एकदम नकली इनका तो कोई 1 रुपया भी नहीं देगा। इतना सुनते ही बिंदु निढाल होकर वहीं गिर गई। स्वर्णकार ने उसे पानी पिलाया और घर भेजा, सांत्वना दी कि सब ठीक हो जाएगा।

बिंदु घर तो आई लेकिन इस तरह जैसे उसके पास आज कुछ नहीं है। आज बिंदु भी शून्य मेंं थी। वो खुद को कोस रही थी कि जिस राज को जिस्म दिया उसने ही इतना बड़ा धौखा दिया। अचानक बिंदु को याद आया कि चैन तो उसको विवेक ने भी दी थी। अचानक बिंदु के शरीर में फुर्ती आ गई, दौड़कर कमरे मेंं गई, संदूक मेंं से विवक की दी हुई चैन निकाली और वापिस दौड़कर गई उसी स्वर्णकार के पास, दादा इसको देखो शायद यह असली हो, बिंदु रो रही थी। चैन भी भारी थी, स्वर्णकार ने देखा परखा चेहरे पर चमक आई, बिंदु के साँसे रुकी हुई थी। लेकिन स्वर्णकार ने कहा बहन यह असली है, बिंदु ने ठंडी सांस ली और अगले ही पल फुट फुट कर रोने लगी। बड़ी मुश्किल से स्वर्णकार ने उसे चुप कराया। चैन के बदले बिंदु को 80000 रुपये मिले। हालांकि इतने पैसे से मुन्ने का इलाज नहीं होगा लेकिन पता नहीं आज बिंदु को खुद से नफरत हो गई थी।

उधर बिंदु की पड़ोस और विवेक की मुंहबोली मा ने बिंदु की कुछ मदद की और बिंदु को दिल्ली मुन्ने का इलाज करवाने भेजा।

बिंदु ने मुन्ने को भर्ती करवाया और इलाज शुरू हुआ। पैसे तो बिंदु के पास अब भी कम थे, लेकिन इलाज जरूर शुरू हो गया था। डॉक्टर ने कहा कि ऑपरेशन से लिये 50000 और कम है। बिंदु ने कहा आप ऑपरेशन कीजिये। पैसे की व्यवस्था हो जाएगी। हालांकि बिंदु के पास 50 रुपये आने का भी रास्ता नहीं था। लेकिन ना जाने फिर भी बिन्दू खुश थी। उसको सुकून था। आंखों से संतोष भरे आँशु थे। शायद विवेक के बारे मेंं सोच रही थी।

इधर विवेक के सेठजी को मौसमी बुखार था तो विवेक सेठजी को हॉस्पिटल लेकर गया हुआ था। अचानक विवेक की नजर बैंच पर बैठी बिंदु पर पड़ी, पहले तो विवेक छिप गया, फिर सोचा बिंदु यहां कैसे ! रिसेप्शन पर पूछताछ मेंं पता चला कि बिंदु मुन्ने का इलाज करवाने यहां आई है। विवेक को बिंदु पर गुस्सा अब भी आ रहा था। लेकिन उसने सोचा कि मुन्ने का क्या कसूर है वो तो नादान है। एक समय मैं भी नादान था। विवेक बिंदु के सामने नहींं आया डॉक्टर से बात की तो पता चला कि मुन्ने के लिवर मेंं पानी भरा हुआ है, ऑपरेशन करना होगा। डॉक्टर ने विवेक को सब बताया कि पैसे कम होने से ऑपरेशन मेंं देरी हो रही है।

विवेक ने डॉक्टर को कहा कि आप ऑपरेशन कीजिये पैसे जमा हो जायँगे।

विवेक छुपकर वहां से चला गया।सेठजी को छोड़ने,घर आकर सेठजी से कहा कि 50000 रुपये चाहिए तो सेठजी ने दे दिए चूंकि विवेक सेठजी का सबसे विस्वास्पात्र था तो सेठजी ने दे दिए।

विवेक वापिस हॉस्पिटल गया पैसे जमा करवाये और मुन्ने का ऑपरेशन करवाया। बिंदु को पता नहीं था कि यह सब किसने किया।

मुन्ने का इलाज हो गया। बिंदु खुश थी लेकिन वो उस शख्स से मिलना चाहती थी जिसने यह मदद की।

कुछ दिनों मेंं मुन्ना ठीक हुआ, डॉक्टर ने अब घर जाने की इजाजत दे दी थी। दवाई और कुछ नसीहत देकर डॉक्टर ने बिंदु को कहा कि आप अब आराम से घर जा सकते हो। बिंदु ने डॉक्टर से पूछा कि साहब यह बता दो की ऑपरेशन के पैसे किसने दिए। डॉक्टर ने कहा कि मैं नाम तो उनका जनता नहीं हु लेकिन वो रोज सुबह शाम यहां आकर मुन्ने का हालचाल पूछते है। अभी उनके आने का समय है।

बिंदु ने सोचा आज देखती हूं कि कौन है वो इंसान।

कुछ देर मेंं शूट बूट मेंं एक व्यक्ति आया डॉक्टर से बात हुई और मुन्ने के स्वस्थ होने का पता चला तो खुश हुए। बिंदु दूर से देख रही थी, गौर से देखने पर बिंदु ने पहचाना की यह तो विवेक है। बिंदु वहीं बैठ गई, उसके हाथ पांव सुन्न हो गए, आंखों के आँशु सूख गए थे। लेकिन दिल में दर्द भरी तस्सली थी। बिंदु विवेक से मिलना चाहती थी लेकिन इतनी हिम्मत नहीं हुई कि विवेक के सामने जा सके। बिंदु अतीत मेंं खो गई थी। अचानक देखा कि विवेक उसके सामने से गुजर रहा था बिंदु के मुंह से आवाज नहीं निकली बस हाथ उठा लेकिन विवेक ने मुड़कर नहीं देखा था।

मुख्य दरवाजे से बाहर निकलने के बाद बिंदु हिम्मत करके उठी बाहर की तरफ दौड़ी लेकिन तब तक विवेक हॉस्पिटल की दहलीज पार कर चुका था। और उस दहलीज पर जाना अब बिंदु के बस का नहीं था। एकाएक बिंदू के आंखों से फिर अश्रुधारा निकल पड़ी। दहाड़ मार कर रोने लगी बिंदु, लेकिन अब विवेक और बिंदु के बीच बहुत दूरी थी। एक ऐसी दहलीज थी जो बिंदु ने स्वयं बनाई थी। आज बिंदु विवेक का चेहरा भी ठीक से नहीं देख सकी। आज बिंदु को खुद के बदन पर गुस्सा आ रहा था। और विवेक के नेकदिल पर उसकी आँखों से पश्चाताप के आँशुओ की धारा झरने के रूप मेंं बह रही थी।


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