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विनोद महर्षि'अप्रिय'

Drama

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विनोद महर्षि'अप्रिय'

Drama

बंजर से आगे

बंजर से आगे

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जब मैं मरुभूमि के दर्शन करने गया तो सचमुच मुझे गहरा आघात पहुंचा। अब तक तो बस सुना था कि बांझ और बंजर एक जैसे होते हैं। अब जब वो बेवा मरुधरा मेरी आँखों के सामने थी तो अतीत की सुनी हुई बातें यथार्थ में परिवर्तित होती गई और मैं पत्थर बनकर बस देखता रहा।

सामने वही सपाट मैदान रूपी धरातल जिसके बारे में मैंने अब तक बस सुना था। दिल को धक्का इसलिए लगा कि आधुनिकता में हम इस कदर खो गए है कि कुछ चीजें हम जानबूझकर नजरअंदाज कर देते हैं। आज विज्ञान की प्रगति है की हम चाँद पर और मंगल पर पहुंच गए है, धरातल की खोज करने और यहां यह धरातल एक एक बूंद के लिए तरस रहा है।

खैर मेरे विचार तो मेरे मश्तिष्क में यूँ ही चलते रहते हैं। परन्तु मैं अब सिर्फ मरुभूमि को देख रहा था और महसूस कर रहा था। तो आइए आप भी मेरे साथ सैर कीजिये मेरी मरुभूमि का,,,,, शायद आपको यात्रा स्वयं से जुड़ी हुई लगे।

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मैं चल रहा था। निर्वात में हवा सांय सांय कर रही थी। कहीं ऊंचे टीले तो कहीं सपाट मैदान। दूर दूर तक सुनहरी रेत के अलावा और कुछ नजर नही आ रहा था। कोई दो मील चलने के बाद एक खेजड़ी का वृक्ष दिखाई दिया। मन को कुछ ठंडक मिली, पांवों को गति अब बढ़ गई थी। शीघ्र छांव में जाना चाहता था। तेज गति से चलकर राजस्थान के कल्पवृक्ष के पास पहुंचा।

शीतल छांव में जैसे ही रुककर पसीना पौंछा, एक तेज हवा का झोंका आया और मुझे ऐसा लगा कि उस छांव से बाहर भेजना चाह रहा हो। एक बारगी मैं सिहर गया। फिर अचानक एक आवाज आई,,,,,

यहां क्यों आया है? कहीं मुझे काटने तो नहीं आया?

आवाज सुनकर मैं चौंक गया। बल्कि यह कहिए कि डर गया। इस सुनसान में कौन बोल रहा है? मेरी समझ से बाहर था। इधर उधर देखने लगा कि यह आवाज कहाँ से आई। फिर आवाज गूंजी,,,,

इधर उधर क्या देख रहे हो। मैं बोल रही हूँ। जिसकी छांव में तुम लोग विश्राम करते हो और अपने स्वार्थ के लिए फिर मुझे ही काट देते हो। शर्म तो मनुष्य में है नहीं।

मैं और अधिक डर गया। गौर से देखा तो समझा कि वो आवाज तो खेजड़ी की है। अब तो मैं कांपने लगा। सोचा की इस खेजड़ी में तो भूत है। वहां से जाना चाहा परन्तु दूर दूर तक कहीं छांव नजर नही आ रही थी और पैर भी अब चलने की गवाही नही दे रहे थे। थका हुआ था। दिल को संभाला और प्रत्युत्तर दिया,,,,

आप कौन?

खेजड़ी- मैं खेजड़ी हूँ। तुम कुछ देर यहां विश्राम करोगे और फिर चलते बनोगे। स्वार्थ के वशीभूत होकर फिर एक दिन मुझे काटोगे। मैं तुम्हे यहां नही रहने दूँगी। चले जाओ अभी यहाँ से।

मैं आपको काटने नहीं आया हूँ जी। (बड़ी मुश्किल से कांपती हुई आवाज में मैंने कहा)

खेजड़ी- तो क्यों आये हो यहाँ? कोई नही आता। मेरे वंश को खत्म करने में लगे तो तुम लोग। यदि यहां भी मेरा बड़ा परिवार होता तो आ जाते तुम लोग। लेकिन मैं अकेली ही बची हूँ।

लेकिन इसमें हमारा क्या कसूर। इस बंजर भूमि में वृक्ष होते ही नहीं तो लोग क्यों आते यहाँ? बताओ।

खेजड़ी- अबे चुप, बंजर किसको बोला !! मैं हूँ इस मरुभूमि को बेटी। अकेली हूँ तो क्या हुआ, हूँ तो सही। और मेरी संख्या कम है तो तुम लोगों के कारण।

हम लोगों के कारण कैसे?

खेजड़ी- जहां ज्यादा वृक्ष हैं वहां तुम लोग कौनसा चमन बना रहे हो। मेरी प्रजातियों को काट काटकर तो तुम लोग आलीशान बंगले बना रहे हो। लेकिन याद रखो, हम हैं तो तुम लोगों के बंगले है। यदि हम नहीं होंगे तो घुट जाओगे और किसी दिन बेमौत मर जाओगे। संभल जाओ, अभी भी वक्त है।

हां, आपकी बात सही है, लेकिन इस रेगिस्थान में वृक्ष होते नहीं है। और जहां होते हैं वहां तो हम उगाते ही हैं।

खेजड़ी- क्या उगाते हो? अपने मतलब के उगाते हो जिससे तुम लोगों को फायदा हो। स्वार्थ को साधने के वृक्ष लगाते हो और कुछ बड़े होने के बाद काटकर बेचते हो। लगाते ही हो तो पीपल, वट, या खेजड़ी लगाकर दिखाओ तो जानूं की धरती का शृंगार करने के लिए लगाते हो।

बात में दम था तो मैं निरुत्तर था। बोलता भी क्या? सच ही है आजकल हम व्यवशाय ही तो करतें हैं। कहाँ हम गांव की चौपाल में पीपल के नीचे शीतल छांव का आनंद लेते हैं? टीन के छपर ही तो हैं अब वहां। वह पीपल जो सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देता है अब धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है। एक वो समय था जब गांव के बड़े बुजुर्ग बताते थे कि हमने उस मोहल्ले वाला पीपल लगाया और वहां हम चौपाल लगाते हैं। आज हम वही वृक्ष लगाते हैं जिनसे हम व्यापार कर सकें। मैं सोच में डूबा था कि फिर से आवाज गूंजी,,,,

खेजड़ी- क्यों क्या हुआ? सच्चाई सुनी तो जबान चिपक गई ना? यदि यह मरुभूमि बंजर ही तो बता मेरा अंकुरण इसमें कैसे हुआ? यह बंजर नहीं है। तुम लोगों को उपेक्षा ने इसका श्रृंगार छीन लिया। कोशिश करके तो देखो इसमें भी अंकुर फूटता है।

जी सही है। मैं आपकी बातों से सहमत हूँ। सच है आधुनिकता की दौड़ में हम अंधे हो गए हैं और हम प्रकृति को भूल गए हैं। हमे आपकी छांव में रूकने का कोई अधिकार नहीं है। क्षमा करें। मैं चलता हूँ।

खेजड़ी- अच्छा है कि तुमने स्वीकारा है। मैं इतनी बुरी नहीं हूँ कि तुमको इस धूप में जाने दूं। रुक जाओ। धूप कम होने पर अपने गंतव्य पर चले जाना।


मै खेजड़ी की छांव में सुस्ता रहा था और सोच रहा था कि आज हम इस कदर गिर गए हैं की इस धरा का श्रृंगार भी हम अपने स्वार्थ के लिए छीन रहें हैं। सच में खेजड़ी ने आज एक आईना दिखाया है। बचपन में पढ़ी एक अंग्रेजी कि कविता याद आई की इंसान जब तक झिंझोड़ ना जाए तब तक वो जागता नहीं है।

सच मे आज आत्मा रोने लगी। वही दर्द जो एक बांझ को होता है। जिसको हम समाज में तिरस्कृत करते हैं। ठीक उसी तरह इस जननी का श्रृंगार छीन कर हम इसे तिरस्कृत करते हैं। सोच में इस कदर डूब गया और उपर से मां कि तरह शीतल छांव बरसाती खेजड़ी, जिसकी शीतल छांव में मुझे नींद आ गई।

जागा तो देखा कि सूर्य पश्चिम में अस्त होने को था। हड़बड़ाकर उठा जैसे की अब तक मां की गोद में आंचल कि छांव तले चैन की नींद ली। सच में प्रकृति कि गोद में वो ही सुख मिला जो मां की गोद में मिलता है। आनंद की चरम सीमा पर पहुंचकर सुखद अहसास हुआ। लेकिन आगे भी जाना था तो चला, खेजड़ी के ज्ञान और मां सदृश सुखद पल देने का धन्यवाद देते हुए।

दूर दूर तक फैले उजाड़ वन को निहारता हुआ चलने लगा। एक एक बालिस्त जगह को देखकर मन रोता रहा। अपने गांव में कुछ औरतें ऐसी थी जो बांझ थी या विधवा, और उन पर जालिम समाज की प्रताड़ना जो मैने अपनी आंखों से देखी थी। उस स्त्री की आंखो से बरसती करुणा और रहम के लिए उठते हाथ हर एक दृश्य इस मरुधरा पर भी साकार हो रहे थे।

रेत पर पड़ती सूर्य की रोशनी में मृगमरिचिका इस तरह लगती जैसे उस पीड़ित महिला की आंखो मे वो आंसू है जो सूख गए हैं। सांय सांय करती हवा से उड़कर बने रेत के टीले ऐसे लग रहे थे जैसे आंखो के नीचे काली गोलाई में रो रोकर सूजे हुए उभार हैं। मीलों दूर नजर आते कहीं कहीं छोटे पेड़ इस तरह लग रहे थे जैसे कि मन की दुर्बलता से वो तिरस्कृत महिला के हाथ बड़ी मुश्किल से रहम के लिए उठ रहे हो। मरुस्थल में कम पानी में उगने वाले झाड़ ऐसे लग रहे थे जैसे कि बिना किसी मतलब के समाज के लोग हां में हां मिलाते हुए बांझ या विधवा को अधिक प्रताड़ित करवाते हैं। वो झाड़ जो खुद सूखे हुए है और मरुभूमि को तिरस्कृत कर रहें है।

सूर्य अस्त होने को था और मेरे रात बिताने का कहीं कोई ठिकाना नहीं था। यकीं नहीं हो रहा था कि इस अत्याधुनिक युग में जहां रहने की बसने की कितनी बड़ी समस्या है वहीं यह मरुभूमि दूर दूर तक सुनसान पड़ी है। जिसकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं है। जैसे आज कन्या भ्रूण हत्या हो रही है,जहां आज लिंगानुपात घट रहा है , फिर भी समाज में बहुधा स्त्री प्रताड़ना के किस्से हम सुनते हैं।

मेरे रात्रि रुकने के लिए कोई ठौर नहीं था। सोच रहा था कि कहां रुकु। फिर सोचा कि इस रेत की गोद में आराम करता हूं। मां की गोद में सोने का एक और मौका और वो सुख प्राप्त करने के लिए,,,,,


आज मरुभूमि मुझे मां जितनी प्यारी लग रही थी। चलते चलते एक टीले पर पहुंचा और चारों तरफ नजर दौड़ाई, यह देखने के लिए की कहीं आसपास कुछ दिखाई दे रहा है क्या? दूर एक जगह आग सी जलती हुई प्रतीत हुई तो सोचा कि शायद कोई होगा। उस मंजिल तक पहुंचने के लिए पैरों की रफ्तार तेज की और पहुंचा तो देखा कि एक वृद्ध आदमी ने आग जला रखी है।

दिल को तसल्ली हुई। जिस तरह एक गरीब मां भी कैसे ना कैसे जुगाड करके अपने बच्चों का पेट पालती है ठीक उसी तरह इस मरुभूमि ने भी मेरे रात्रि विश्राम के लिए जुगाड कर दिया था। पता चला कि औरत के दिल में कितनी जगह होती है। हर रूप में कितने रिश्तों को संभालती है। चाहे पास में कुछ ना हो फिर भी दिल में अपनेपन और प्रेम रूपी दौलत का भंडार रखती है। शायद इस मरुभूमि को मुझ पर तरस आया होगा और मेरे लिए इस उजाड़ में भी आशियाना बना दिया।

मै उस वृद्ध के पास गया और कहा,,

राम राम बाबा,

कौन?

चेहरे में धंसी आंखो से देखने का प्रयत्न किया।

बाबा मै विनोद महर्षि, बहुत दूर से आया हूं।

कठे से आया हो।( कहां से आए हो)

बाबा मै चूरू जिले का हूं। यहां घूमने आया था, इस रेगिस्थान को देखते देखते रात्रि हो गई और अब कहीं रुकने की जगह नहीं है। आपके यहां रुक सकता हूं क्या?

बाबा ने मुझे और गौर से देखा।

बाबा मै कोई चोर डाकू नहीं हूं। मै एक लेखक हूं और यहां घूमने आया हूं।

बेटा चोर डाकू यहां आकर भी क्या करेगा। इस सुनसान में कौनसा धन छुपा हुआ है। यहां तो जानवर भी नहीं आते।

तो बाबा आप यहां क्या करते हो? और कौन रहता है आपके साथ!!

और कोई नहीं बेटा, अकेला ही रहता हूं। मेरा कोई है नहीं। अबिस दुनियां में। यहां पास ही एक गांव है वहां दिन में जाकर कुछ मांग लाता हूं और रात्रि में यहां आकर सो जाता हूं।

बाबा अकेले इस सुनसान में आपको डर नहीं लगता!

नहीं बेटा डर तो आजकल बस्ती में लगता है जहां इंसान के रूप में हैवान घूमते हैं।

सच कहा आपने बाबा, आजकल ऐसा ही है।

बेटा समय बहुत बदल गया है। खैर छोड़ो, तुम दिनभर के थके हुए हो मेरे पास तो यह बसी रोटी है , भूख है तो खा को और सो जाओ। यहां बहुत जगह है सोने की।

भूख तो मुझे भी लगी हुई थी लेकिन बाबा ने जब बसी रोटी का नाम लिया तो खाने की इच्छा नहीं हुई। सोचने लगा कि क्या करूं। बाबा तो बैठ गए और खाने लगे, रोटी की सुगन्ध आने लगी तो मन हुआ कि कुछ खाएं। वैसे भी प्रकृति की गोद में सब अच्छा लगता है। मैंने उस बाबा की जगह खुद को रखकर सोचा तो झटका लगा कि इसी रोटी को चाव से खाने वाला वो भी एक इंसान ही है।

कुछ देर बाद बाबा ने जब अपना खाना खत्म किया तो फिर पूछा, बेटा कुछ खा लो।

अबकी मै बैठ गया और झट से खाने लगा।

खाना ख़तम किया , बहुत आनंद आया और तृप्ति का अहसास हुआ। बाबा ज्यादा नहीं बोलते थे। वो सो गए।

जब आधी रात बीत गई तो एक गाय आई और बाबा की टूटी फूटी कुटिया के पास एक बाल्टी थी जिसमे गाय ने आकर पानी पिया। मैंने सोचा कि इस सुनसान में बाबा न जाने कहां से पानी लाए हैं और यह गाय पानी पी रही है। बेचारे इस अवस्था में पानी कहां से लाते होंगे। मै जैसे ही खड़ा हुआ कि गाय को दूर करें तो बाबा बोले सो जा बेटा, यह मेरी ही गाय है।

आपकी?

हां मेरी,

तो आप इसका दूध निकालते हो?

अरे नहीं बेटा यह दूध नहीं देती है। लेकिन मेरी सहायता जरूर करती है।

दूध नहीं देती फिर भी सहायता करती है। वो कैसे?

अभी तुम देखना, कैसे करती है।

मै समझा नहीं बाबा।

अरे बेटा इस सुनसान में सुखी घास खाकर यह रह जाती है लेकिन आसपास कहीं पानी नहीं है, तो मै पास के गांव से पानी ले आता हूं। यह बेचारी यहां आकर पानी पिती है और गोबर यहीं करके जाती है तो मुझे आग जलाने के लिए लकड़ियां लेने नहीं जाना पड़ता है। करती है कि नहीं मेरी सहायता।

वाह बाबा,, बेजुबान की जुबान आपने समझी और खुद्दारी देखो, आपका कर्ज भी उसी वक़्त चुकाती है। वाह,,, वाह री प्रकृति,,,,, तेरी महिमा को कौन समझता है। तूं किसी ना किसी रूप में कुछ ना कुछ देती ही रहती है। इस सुनसान में एक गाय भी एक वृद्ध इंसान का सहारा बन गई और एक तरफ आंधी दुनियां में इंसान भी इंसान के काम नहीं आता है।

सोचता हुआ मैं सो गया। आगे की यात्रा की चिंता में,,,,,,




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