विविध भारत भाग 4 बंजर

विविध भारत भाग 4 बंजर

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एक सुनसान बियाबान जंगल, जो वास्तव में जंगल नहीं मरुस्थल की ज़मीन है। लेकिन किसी दावानल की चपेट में आए हुए जंगल के समान है, दूर-दूर तक कहीं कोई वृक्ष नहीं दिखाई दे रहा है।

सुनसान रेगिस्तान है, सपाट मैदान के समान समतल धरातल है, जो एक बेवा की तरह नजर आता है। जिस प्रकार एक विधवा औरत बिना श्रृंगार के सादा वस्त्र पहने रहती है, ना शरीर पर कोई अलंकार होता है, ना वस्त्रों में कोई रंग ना ही चेहरे पर कोई लकीर, ना खुशी की, ना ग़म की। दुख के गहरे सागर में गोता लगाकर, मानो एक पत्थर की मूरत बन गई हो, जिसमें ना भाव है, ना कोई भावना, जो हँसना भूल गई है, और रो रो कर उसके आँसू भी सूख गए हैं। अब चेहरा बेजान पत्थर की तरह है, जिसमे सिर्फ प्राण है, सांस चलती है, पर भावनाओं की कहीं कोई हरकत नहीं होती।

जब संसार की सुख भोग की उम्र में कोई भयंकर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है तो विषाद की एक गहरी रेखा माथे पर इस तरह जम जाती है जैसे ओस की बूंदे जमकर बर्फ बन गई हो जो कभी पानी नहीं बनेगी, क्योंकि उसके आसपास का वातावरण उसे ऐसे सुखों की तपन नहीं देता है जो वापिस पानी बन सके। जैसे जमीन में लाखों संघर्ष सहकर के पत्थर बनता है। स्त्री भी परिवार समाज के दुखों से पीड़ित होकर एक बेजान पत्थर बन जाती है। उस बेवा के श्रृंगार की तरह ही बिल्कुल सुनसान वो धरातल का टुकड़ा है जो मरुधरा में है। जहां ना कोई बीज अंकुरित होता है, ना कोई पंछी कलरव करता है, ना कोई व्यक्ति नजर आता है। एकदम सुनसान बंजर भूमि।

जैसे एक कोमल कली खिलती है तो हजारों खुशबू बांटती है। लेकिन यदि किसी वृक्ष पर पुष्प ना खिले तो वह हमेशा उदास रहता है, उसके आसपास उतनी भीड़ नहीं होती जितनी खूबसूरत पुष्पों के झुरमुट के पास होती है। उसी प्रकार एक स्त्री की ख्वाहिश होती है कि वह मां बने, उसकी कोख से भी बीज अंकुरित हो और वह अंकुर इस दुनिया में ख़ुशियाँ बांटे। लेकिन ईश्वर की माया कहीं धूप कहीं छाया कहावत यथार्थ है। एक स्त्री जो सब सुखों से परिपूर्ण है, लेकिन स्त्री का सबसे बड़ा अंलकार उसकी कोख का अंकुरित होना होता है, यदि ऐसा ना हो तो वह स्त्री बंजर भूमी की तरह होती है,और हमेशा दुःखी रहती है। शायद नींद भी नहीं आती होगी, वह कल्पना में रहती है, जागृत अवस्था में स्वपन देखती है कि काश उसके आंगन में भी किलकारी गुंजे, कोई उसे भी माँ कहकर पुकारे। तब उसका दर्द महसूस नहीं कर सकते है। स्त्री केवल सोने-चांदी के आभूषण से ही अलंकृत नहीं होती है ,आभूषण सुंदरता बढ़ाते हैं , लेकिन तन की, मन की नहीं। मन की सुंदरता और आत्मिक सुख तो तब प्राप्त होता है जब एक स्त्री की कोख अंकुरित हो, लेकिन यदि ऐसा नहीं होता है तो वह बंजर है ठीक मेरी मरुभूमि की तरह ।

धरती का अलंकार बड़े-बड़े भवन या रंग बिरंगी कृत्रिम कृतियां नहीं होती है। धरा का अलंकार तो हरे भरे वृक्ष, पुष्पों के झुरमुट, जिस पर पंछी मधुर आवाज में कलरव करें, जिसकी गोद में पशु अपना पेट भर कर विश्राम करें, जहां पथिक थककर ठंडी छांव में शीतल हवा का आनंद ले। घनघोर घटा छा कर मेघ शीतल जल बरसाते है तो मयूर आनंदित होकर मनमोहक नृत्य करता है। जलधारा कहीं नदी तो कहीं झरनो के रूप में बहती है तो धरा पर खुशहाली महकती है। एक स्त्री का माँ बनना और धरती पर हरियाली दोनों ही कोख अंकुरीत होना होता है। ना जाने ईश्वर की क्या माया है एक स्त्री से अनजाने में भूल हो जाती है तो ईश्वर उसकी कोख सुनी रखकर उसे दंडित करता है पर इस धरती मां की ऐसी क्या गलती है कि इस पालनहारी को बांझ रखा।

इस रेगिस्तान का वह हिस्सा देखकर अनायास ही बांझपन का किस्सा याद आ जाता है जैसे समाज में बांझ स्त्री तिरस्कृत होती है। समाज के लोग उसे हीन भावना से देखते हैं, घर के किसी मांगलिक कार्य उसको शामिल करना पाप समझते हैं और वह बेचारी दुखी होकर भगवान को कोसती रहती है। ठीक उसी तरह मेरी मरूभूमि का एक टुकड़ा भी भगवान को कोसता होगा कि इस ने क्या पाप किया जो इसकी कोख तूने सुनी रखी। बांझ स्त्री की तरह इस धरा को भी उपेक्षित किया जाता है। जहां इस आधुनिक युग में एक बालिस्त जमीन के टुकड़े के लिए लोग मर जाते हैं, वहीं इस धरा पर दूर-दूर तक मनुष्य तो क्या पक्षी कीड़े मकोड़े तक नजर नहीं आते है। पता नहीं ईश्वर करे कौन सा नापतोल है जो इस प्रकार का है प्रकृति और समाज दोनों एक दूजे के पूरक हैं दोनों एक दूजे के बिना अधूरे है...



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