प्यार का गहना

प्यार का गहना

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ढोलक की मंगल थाप के साथ पूरा घर बन्नी के गीतों से गूंज रहा था।

निशा की मां दौड़ दौड़ कर अपनी बेटी के कल होने वाले विवाह में जाने वाले सामानों की सूची मिला रही थीं।

निशा की ससुराल से आए चढ़ावे को देखकर हर कोई फूला नहीं समा रहा था।

जहां पर बैठक में बैठी निशा के पिता रमेश लोगों के बीच घिरे रिश्ते के लिए सहज प्रशंसा पा रहे थे वही निशा की मां बार-बार भगवान को धन्यवाद देती निशा के भाग्य पर सराह रही थीं।

एक माह पहले निशा की कॉलेज में हुए वार्षिकोत्सव में जब निशा ने मां सरस्वती की कृपा से प्रदत्त कंठ से उनकी स्तुति की तो विद्यालय के ट्रस्टी विशंभर दयाल ने अपने एकमात्र पुत्र के लिए वधू चुनने में क्षण भर भी नहीं लिया।

विशंभर दयाल की गिनती शहर के जाने-माने प्रभावशाली व्यक्तियों में होती थी और उनका एकमात्र पुत्र सरल अपने नाम को परिभाषित करता हुआ पिता के पथ का अनुगामी था।

सरल की मां का उसकी बाल्यावस्था में ही निधन हो गया था ।

वह जब सितार पर स्वर छेड़ती उनकी कोठी उनके स्वर और सितार की धुन से झूम उठती।

कम उम्र में ही पत्नी को खो देने के बाद विशंभर दयाल ने पुनर्विवाह नहीं किया सरल के साथ ही जीवन की गति को आगे बढ़ाते रहें।

उन्होंने अपनी पत्नी नंदिनी से वायदा किया था कि वह सरल की परवरिश में कोई कमी नहीं रखेंगे।

सरल की दादी ने सरल के पालन पोषण में कोई कमी नहीं रखी थी।

सरल बड़ा होता गया और अपनी योग्यता के चलते

शीघ्र ही शहर की नामी वकीलों में उसका भी नाम जुड़ गया।

और जब विद्यालय के वार्षिकोत्सव में बतौर चीफ गेस्ट उन्होंने निशा को गाते हुए सुना तो उन्हें लगा कि उनका घर अब स्वरों से फिर गूंजने लगेगा।

सामने से आए सुयोग्य वर और विशंभर दयाल के सुसंस्कृत परिवार को भला निशा के पिता रमेश कैसे अस्वीकार कर पाते।

जब सरल की दादी निशा को देखने उनके घर गई तो वह एक नजर में ही समझ गई थी रूप व गुण की धनी निशा दर्प की भी स्वामिनी थी।

दूध का धुला उसका रंग व कोयल सी आवाज जहां उसके व्यक्तित्व में चार चांद लगा दे वही उसका अक्कड़ व स्वयं पर इतराता घमंड उसके गुणों में चांद पर दाग जैसे थे।

और यही कारण था कि आज जब विवाह से एक रोज पूर्व सरल के यहां से चढ़ावा आया था तो उसका मन बहुत खिन्न था।

सादगी के सौंदर्य से भरा विशंभर दयाल के यहां से आया हुआ चढ़ावा जहां उनके आडंबर रहित होने का प्रमाण दे रहा था वही निशा का मन गुस्से की आग से दहक रहा था।

पिछले एक माह से वह अपने भाग्य पर इतराती नहीं थक रही थी वहीं आज उसका सुस्त मुख उसके रुष्ट व्यवहार की चुगली कर रहा था।

साधारण सा लहंगा व नाम मात्र को आए गहने देख देख कर उसका जी जला जा रहा था।

"निशा अपना हाथ सीधा रखो वरना मेहंदी टेढ़ी लग जाएगी।" जब मेहंदी लगाने वाली उसकी सहेली मीनल ने चिल्लाकर उसका हाथ खींचा तो गुस्से में लाल होते हुए उसने कहा, "लग जाने दो क्या फर्क पड़ता है टेड़ी लगे या आढ़ी।"

मीनल आश्चर्य से उसका मुंह देखती रह गई पिछले एक माह से उसने नाक में दम कर रखा था अपनी तैयारियों को लेकर और आज विवाह से एक दिन पूर्व उसका रवैया अजीब सा देखकर सभी परेशान थे।

अपनी मन में कड़वाहट लिए निशा अब ब्याह कर सरल के साथ उसके घर में आ चुकी थी।

कोठी की भव्यता देख कर जहां निशा का मन प्रसन्न था वही अपने लहंगे व भेजे हुए आभूषणों से वह अभी भी चिढ़ी हुई थी।

विवाह की रस्मों से निबट कर जब थकी हुई निशा अपने कक्ष में पहुंची तो वह उस कक्ष की सुंदरता व सजावट देखकर अभिभूत थी।

कक्ष मे आए सरल से लाख चाहते हुए भी वह अपनी कड़वाहट छुपा नहीं पाई।

जब सरल ने उसे उपहार में एक अंगूठी पहनाई तो उस का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया।

उसका मुख गंभीर होते देख जब सरल ने उससे इस का कारण पूछा तो वह तुनक कर बोल पड़ी,

"बस एक अंगूठी..... आपसे मुझे ऐसी आशा नहीं थी।........ मुझे उम्मीद थी आप मुझे एक डायमंड सेट गिफ्ट करेंगे आज।"

सरल कुछ समझ पाता उससे पहले ही वह पुनः बोली," आपको लगता है कि मैं गरीब परिवार से यही हूं इसलिए आप मुझे ऐसी तुच्छ भेंट दे रहे हैं आपने अपने बड़े घराने का भी ख्याल नहीं रखा। मैं सोचती थी कि मुझे आपके यहां से चढ़ावे में बेशुमार गहने आएंगे और आपने मुश्किल से दो सेट ही मुझे भेजें।"

सरल समझ चुका निशा को उसका उपहार बिल्कुल नहीं भाया था लेकिन अपने उपहार के लिए तुच्छ भेंट सुनकर उसका मन बेहद दुखी था वह सुनकर चुपचाप कक्ष से बाहर निकल आया।

अपनी रौ में बहती निशा बहुत कुछ कह गई थी उसे यह भी नहीं भान था कि उसकी बातें सरल को कितना दुख पहुंचा गई थी।

अगले दिन जब उसकी मुंह दिखाई में दादी और उसके ससुर विशंभर दयाल ने दो जड़ाऊ सेट पहनाए तब जाकर उसके तप्त हृदय को शांति पड़ी।

अब उसकी बेचैन निगाहें सरल को ढूंढ रही थी पर उसे सरल कहीं भी आसपास दिखाई नहीं दे रहा था।

अगले दिन पग फेरे को अपने मायके जाते हुए जब वह अपने पिताजी रमेश के साथ कार में बैठने वाली थी थी कि अचानक सरल उसके सामने आ गया और उससे बिना निगाहें मिलाएं उसे एक गिफ्ट पकड़ा कर चला गया।

थोड़ी दूर जाने पर उसने गिफ्ट खोलकर देखा उसमें जड़ाऊ टॉप्स दमक रहे थे।

पिता के साथ कार में बैठी घर को जाती अब वह बहुत बेचैन थी सरल का उससे नजरे ना मिलाना उसे अंदर तक खा रहा था।

उसके पग फेरे में घर जाते हुए ढेरों चीजें उसके साथ कार में उसके भाई बहनों के लिए बतौर उपहार भेजी जा रही थी।

जब वह घर पहुंची तो उसके भव्य रूप की शोभा बढ़ाते गहनों को देखकर उसकी मां सविता के मन संतुष्टि पर मुहर लग गई थी।

वह तीन-चार दिन वहां रही , इस बीच दादी का फोन तो उस पर कई बार आया लेकिन सरल नहीं उससे एक बार भी बात नहीं की।

वह स्वयं सरल से बात करने में झिझक रही थी तो वह उससे बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।

चौथी रोज जब सरल उसे लेने आया तो सरल ने देखा निशा ने उसके दिए टॉप्स पहन रखे थे।

उस पर एक निगाह उचटती डालकर वह कार चलाता रहा। निशा से उसने एक भी शब्द बात नहीं की।

घर पहुंचकर दादी ने उसका भव्य स्वागत किया।

विशंभर दयाल की इच्छा पर उसने दोपहर के खाने के बाद सुंदर भजन सुनाया।

उसके सरस्वती विराजे कंठ की दादी व ससुर ने उन्मुक्त प्रशंसा की पर उसकी निगाहें जिसे ढूंढ रही थी वह कहीं आस पास नहीं था।

थोड़ी देर में देखा सरल अपना बैकपैक करे आ रहा था।

सब देख कर चौंक गए तो उसने बताया कि अचानक ही किसी मीटिंग के सिलसिले में उसे विदेश जाना पड़ रहा था।

घर से निकलते हुए भी सरल ने उसे एक बार भी नहीं देखा। दादी और पिता जी के पैर छूकर वह कार में बैठ गया था।

अनमनी निशा जब अपने कमरे में आई तो उसने देखा कि उसके पलंग पर एक डिब्बा रखा था।

उसने खोलकर देखा तो उसमें एक सोने की चैन चमक रही थी।

वह समझ गई थी कि सरल उसे वहां रख कर गया था।

तीन माह तक सरल घर नहीं लौटा।

इस बीच उसे घर की भव्यता के साथ सादगी का भी पता चल गया था।

उसके कोमल हृदय ससुर सदैव दूसरों की मदद को तत्पर रहते और दादी तो ममता की मूर्ति थीं।

घर में सब सुख सुविधाऐं होते हुए भी सरल की कमी उसे खा रही थी। एक से एक बढ़कर आभूषण व कपड़े होने पर भी उसकी उन्हें पहनने की इच्छा ना करती।

दिन ब दिन वह कमजोर होती जा रही थी उसका दूध जैसा उजला रंग पीला पड़ता जा रहा था।

दादी की अनुभवी निगाहें समझ चुकी थी कि निशा और सरल के बीच एक मौन युद्ध चल रहा था।

एक दिन बातों ही बातों मे दादी ने उसे बताया कि विवाह को लेकर सरल बहुत उत्साही था और इसी वजह से उसने विवाह में भेजे उपहार व चढ़ावा स्वयं के पैसों से तैयार कराये थे।

अब तक निशा की भी आंखें खुल चुकी थी वह समझ चुकी थी कि उसका स्वाभिमानी पति उसे लगातार संदेश दे रहा था कि वह भले ही एक बड़े घराने में ब्याह कर आई थी पर वह स्वयं भी उसका खर्चा उठा कर उसका भविष्य पूर्णता सुरक्षित रखेगा।

उसको सुस्त देखकर कुछ दिनों के लिए विशंभर दयाल ने उसे मायके घूम आने को कहा।

मायके में उसका मन नहीं लग रहा था ।

जब उसकी नवविवाहिता मित्र मीनल उसे अपने पति के स्नेह के बारे में बता रही थी तो उसका मन और डूबा चला जा रहा था।

दादी ने खबर भिजवाई थी कि कल सरल आ रहा था यह सुनकर निशा ने तुरंत ही घर जाने की इच्छा जाहिर करी।

पति के आते ही घर जाने की बात सुनकर उत्साहित होती निशा को देखकर उसके माता-पिता बहुत प्रसन्न थे।

उसके पिता उसे शाम को ससुराल छोड़ आए।

आज सरल घर आ चुका था। खाना खाते हुए उसने एक सरसरी निगाह निशा पर डाली वह उसे बहुत कमजोर लग रही थी।

उसके पिता अभी ऑफिस नहीं आए थे थोड़ी देर दादी के पास बैठने के बाद वह निशा के पास कक्ष में गया।

निशा सर झुकाए चुपचाप पलंग पर बैठी थी।

वह उसे एक पैकेट देकर मुड़ने ही वाला था कि निशा ने उसकी कलाई पकड़ ली।

"मुझे यह नहीं चाहिए।" निशा की आवाज भीगी हुई थी।

सरल ने वह पैकेट खोलकर उसे बढ़ाते हुए कहा, "पर इसमें तो तुम्हारे मन का डायमंड सेट है।"

चमचमाते डायमंड सेट को निशा ने एक तरफ कर दिया। और हथेलियों में अपना मुंह छुपा कर सुबकते हुए बोली, "नहीं ...मुझे यह नहीं चाहिए.... मुझे आपका साथ चाहिए।"

उसको रोता देखकर सरल ने बढ़कर उसे अपनी बाहों में भर लिया था।

आज सरल की बाहों का हार निशा को सभी हारों से प्यारा लग रहा था।

मन के मैल धुल गए थे। आज मिले उस इस प्यार के गहने से उसका मन तृप्त था।

अगले दिन सुबह सुनाए निशा के भजन पर सबसे पहले ताली बजाने वाला सरल था।

अपनी घराने की बहू को देखकर दूर कहीं सरल की मां की आत्मा आज संतृप्त थी।


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