पुस्तकों का मूल्य
पुस्तकों का मूल्य
रिटायरमेंट के बाद रोनित के दादा-दादी उन्हीं के साथ दिल्ली रहने आ गये थे। "पुस्तकों का मूल्य रत्नों से भी अधिक होता है क्योंकि रत्न तो केवल बाहरी चमक-दमक दिखाते हैं पर पुस्तकें हमारे अन्तःकरण को उज्ज्वल बनाती हैं।" रोनित के दादाजी हमेशा इसी बात पर जोर देते थे।
स्कूल से आने के कुछ समय बाद दादाजी रोनित को होमवर्क के लिए बुलाते थे तब उसे अच्छा तो नहीं लगता था पर उनकी बात टाल भी नहीं सकता था वह मन मारकर बैठ जाता था। होमवर्क के बाद दादाजी उसे एक-एक करके सभी विषय बारी-बारी से पढ़ाते ,प्रश्न पूछते औऱ जब तक समझ नहीं आता छोड़ते नहीं थे। उसके मम्मी पापा अपने माता-पिता का बहुत सम्मान करते थे। उनके लिए दादा दादी की हर बात फाइनल होती थी अतः शिकायत का कोई फायदा ही नहीं था।
पढ़ाई के बाद दादाजी उसके दोस्त बनकर साथ में हर तरह की बातें करते, घुमाने ले जाते और पसंद की चीजें दिलवाते। रोनित दादी माँ उसे अच्छी-अच्छी सीख देने वाली रोचक कहानियां सुनाती।इस तरह मनोरंजन के साथ-साथ उसके संस्कारों की नींव भी मजबूत होती जा रही थी।
शुरू-शुरू में जो पढ़ाई उसे मुसीबत लगती थी अब उसमें मजा आने लगा। दादाजी की मेहनत से उसे सभी विषय आसानी से समझ आने लगे।अब तो दादाजी के बुलाने के पहले ही वह आकर बैठ जाता और उन्हें तरह-तरह के प्रश्न पूछता औऱ जवाब पाकर बहुत खुश होता। धीरे-धीरे अध्यापक उसे पसन्द करने लगे। पाठशाला में उसकी गिनती मेधावी में होने लगी।
आज उनकी मेहनत का नतीजा है कि वह आई आई टी परीक्षा में अच्छी रेंक से आई है। उसके अच्छे परिणाम से उसका कंप्युटर इंजीनियरिंग के लिए आईआईटी बॉम्बे में सलेक्शन हो गया। आज सबसे पहले उसने अपना रिजल्ट दादाजी को सुनाया और पाईर छूकर आशीर्वाद लिया। आज जब समाचार पत्र, रेडियो और टीवी वाले उसका इंटरव्यू लेने आए हैं तो वह सभी को बड़े गर्व से कहता है कि मेरी सफलता में मेरे परिवार के संस्कार और दादा-दादी की मेहनत का बहुत बड़ा हाथ है। सभी विद्यार्थियों के लिए उसने सलाह दी कि -आराम को त्यागो और पुस्तकों का मूल्य पहचानो।
