पुरवाई का एक झोंका

पुरवाई का एक झोंका

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पुरवाई का एक झोंका 
तुम्हारे लब सा मेरी गर्दन को छू गया
फिर रात ढली नहीं
फिर कभी सवेरा हुआ नहीं

चला दो कदम जो भोर में
राह जानी पहचानी थी, एक आवाज़ भी जानी सी लगी
दिन चढ़ा, आवाज़ भी गयी और राह भी गयी बदल
बस खुद से ही खुद को पुकार लिया

आज फिर मौसम ने याद दिलाया
तुम्हारी कामयाबी का एहसास कराया
फिर खुद भी मौसम रोने लगा,
वो बारिशो से और मैं आंसुओं से 


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